जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी |
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोSतु ते ||
कल भाद्रपद अमावस्या है – पितृपक्ष की अमावस्या – पितृपक्ष का अन्तिम श्राद्ध | कहते हैं इस दिन उन पूर्वजों के लिए भी तर्पण किया जाता है जिनके देहावसान की तिथि न ज्ञात हो या तिथि में कोई सन्देह हो या जिनका श्राद्ध करना भूल गए हों | साथ ही उन आत्माओं की शान्ति के लिए भी तर्पण किया जाता है जिनके साथ हमारा कभी कोई सम्बन्ध या कोई परिचय ही नहीं रहा – अर्थात् अनजान लोगों की भी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो – ऐसी उदात्त विचारधारा हिन्दू और भारतीय संस्कृति की ही देन है |
कल महालया – पितृपक्ष के अन्तिम दिन एक ओर अन्तिम श्राद्ध के रूप में पितरों को श्रद्धा सहित अन्तिम तर्पण करके उन्हें विदा किया जाता है – विसर्जन किया जाता है :
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः |
सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे ||
ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां |
सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ||
इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः |
वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा||
गायत्री मन्त्र तथा उपरोक्त मन्त्रों का श्रद्धापूर्वक जाप करते हुए पितरों को सम्मान के साथ विदा किया जाता है | तो दूसरी ओर माँ दुर्गा का आगमन होता है और उनके स्वागत के रूप में आरम्भ हो जाती है महिषासुर मर्दिनी के मन्त्रों के मधुर उच्चारण के साथ नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना | माँ दुर्गा की पूजा का यह उत्सव चलता रहता है नौ दिनों तक और इसका समापन दसवें दिन धूम धाम से देवी की प्रतिमा विसर्जन के साथ होता है | एक ओर मृतात्माओं के प्रति श्रद्धा का पर्व श्राद्धपक्ष के रूप में और दूसरी ओर उसके तुरन्त बाद नवजीवन के रूप में देवी भगवती की उपासना का पर्व नवरात्र के रूप में – मृत्यु और नवजीवन का कितना अनूठा संगम है ये |
नवरात्रों में लगभग हर घर में दुर्गा सप्तशती का पाठ होता है | दुर्गा सप्तशती की कथा कहने को तो एक धार्मिक और आध्यात्मिक कथा है, लेकिन पूरी ही कथा की प्रस्तुति प्रतीक-नाटक के रूप में अत्यन्त कलात्मक ढंग से की गई है | कथा का पठन करते समय ऐसा प्रतीत होता है मानों आपकी आँखों के सामने समस्त घटनाक्रम चल रहा है एक चलचित्र की भाँति | दानवी शक्ति पर दैवीय शक्ति की विजय के लिए मार्कंडेय मुनि द्वारा एक ऐसी नाटकीय परिस्थिति का निर्माण किया गया है जिसके पात्र लौकिक भी हैं और अलौकिक भी | एक ओर राजा सुरथ तथा समाधि नामक वैश्य के हृदयों में लोभ, मोह और कायरता जैसे दानव निवास करते हैं और उसी कायरता तथा पलायनवादी स्वभाव के चलते दोनों सब कुछ छोड़कर ऋषि के आश्रम में जा पहुँचते हैं और विचित्र नाटकीय घटनाक्रम में एक दूसरे से परिचित होते हैं | तो वहीं दूसरी उनके हृदय में स्थित लोभ, मोह, कायरता और पलायन जैसी आसुरी भावनाओं का नाश करने के लिए मुनि दोनों को एक कथा सुनाते हैं जिसमें माँ दुर्गा विभिन्न रूप धारण करके मधु-कैटभ, महिषासुर, चंड-मुंड, शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज जैसे न जाने कितने राक्षसों का संहार करती हैं | वास्तव में तो महर्षि मार्कंडेय का उद्देश्य मानवीय धरातल पर प्रतीकात्मक रूप में अच्छाई-बुराई के मध्य संघर्ष तथा उस संघर्ष में बुराई पर अच्छाई की विजय दिखाना ही था – ताकि वह राजा सुरथ और समाधि वैश्य अपने हृदय से लोभ मोह तथा कायरता का आवरण हटाकर पुनः गीतोक्त निष्काम कर्म में लीन हो सकें |
देखा जाए तो यह संघर्ष सांसारिक जीवन में हर पल चलता ही रहता है | युद्ध में रक्तबीज जैसे राक्षसों का वध हो जाने पर भी उनकी आत्माएँ विविध दुर्गुणों के रूप में मनुष्य मात्र के भीतर विद्यमान हैं | महिषासुर कभी भैंसा बन जाता है, कभी हाथी, कभी सिंह – ये सब वास्तव में मनुष्य के भावों के ही प्रतीक हैं | एक वस्तु अथवा व्यक्ति की ओर से मोह समाप्त हो जाता है तो किसी अन्य वस्तु अथवा व्यक्ति के प्रति मनुष्य मोह में बंध जाता है | एक बुराई को समाप्त करने का प्रयास मनुष्य करता है तो रक्तबीज की भाँति अन्य दूसरी बुराइयाँ जन्म ले लेती हैं | क्रोध, अहंकार, वर्चस्व की भावना इत्यादि बुराइयाँ ही वास्तव में विविध रूपों वाला महिषासुर और निरन्तर पनपते रहने वाला रक्तबीज हैं | इन सबका अन्त यदि किसी प्रकार सम्भव है तो वह है व्यक्ति की अपनी संकल्प शक्ति | अपनी संकल्पशक्ति को दृढ़ करके ही मनुष्य अपने भीतर की इन समस्त बुराइयों पर विजय प्राप्त कर सकता है | और संकल्पशक्ति की दृढ़ता के लिए आवश्यकता है भक्तियुक्त समर्पण की | समर्पण का भाव मन में दृढ़ होते ही मनुष्य का अहम् स्वतः ही समाप्त हो जाता है | क्योंकि अहम् के साथ तो समर्पण हो नहीं सकता | समर्पण में तो मैं और मेरा तथा तू और तेरा का भाव सदा के लिए मिटा देना होता है | “मैं कर्ता हूँ” का भाव भी सदा के लिए मिटा देना होता है | जो कुछ भी कर्म मनुष्य करता है उसे पूर्णतः उस परम शक्ति को समर्पित करना ही वास्तविक समर्पण है | जो वास्तव में बहुत कठिन कार्य है और भक्ति द्वारा ही सम्भव है | राजा सुरथ और समाधि वैश्य इसी भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हैं और ईश्वरीय शक्ति के प्रति समर्पित हो जाते हैं | समस्त देवतागण भी दानवी शक्तियों से मुक्ति पाने के लिए माँ दुर्गा की ही शरण में जाते हैं |
कालान्तर में ऐसी भी मान्यता है कि भगवान राम ने दुष्ट रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में ही नौ दिनों तक माँ दुर्गा के चण्डिका रूप को जागृत करने के लिए उपासना की थी – ताकि माँ भवानी स्वयं उनके समक्ष प्रकट होकर उन्हें विजय का आशीर्वाद प्रदान कर सकें | उपासना और यज्ञ में अनेक विघ्न उपस्थित हुए – क्योंकि रावण ने भी यही उपासना की थी ठीक उसी समय पर | लेकिन रावण का यज्ञ भंग हो गया और भगवान राम का यज्ञ विधिवत् सम्पन्न हुआ | जिसके फलस्वरूप अनुष्ठान के अन्तिम दिन माँ दुर्गा ने स्वयं प्रकट होकर भगवान राम को विजय का आशीर्वाद प्रदान किया और तब दसवें दिन श्री राम ने दुष्ट रावण का वध करके उस पर विजय प्राप्त की | इसी विजय के उपलक्ष्य में विजयादशमी का पर्व मनाया जाता है | हो सकता है प्रथम नवरात्र से ही भगवान राम की लीलाओं का आयोजन भी इसी निमित्त किया जाता हो |
ऐसी भी मान्यता है कि नवरात्र में की जाने वाली भगवती दुर्गा के नौ रूपों की उपासना वास्तव में नवग्रहों की उपासना है | कथा आती है कि देवासुर संग्राम में समस्त देवताओं ने अपनी अपनी शक्तियों को एक ही स्थान पर इकट्ठा कर दिया था – देवी को भेंट कर दिया था | माना जाता है कि वे समस्त देवता और कोई नहीं, नवग्रहों के ही विविध रूप थे | साथ ही जब देवी ने स्वयं को अनेक रूपों में बाँट कर दानवों से युद्ध किया तो वे नव रूप ही नव दुर्गा कहलाए और वे नवरूप ही नवग्रहों के रूप में पूजे जाते हैं | इस प्रकार दुर्गा के नौ रूपों में प्रत्येक रूप एक ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है |
जो भी हो, नवरात्रों के नौ दिनों में पूर्ण भक्तिभाव से देवी के इन रूपों की क्रमशः पूजा अर्चना की जाती है | ये समस्त रूप सम्मिलित भाव से इस तथ्य का भी समर्थन करते हैं कि शक्ति सर्वाद्या है | उसका प्रभाव महान है | उसकी माया बड़ी कठोर तथा अगम्य है तथा उसका महात्मय अकथनीय है | और इन समस्त रूपों का सम्मिलित रूप है वह प्रकृति अथवा योगशक्ति जो समस्त चराचर जगत का उद्गम है तथा जिसके द्वारा भगवान समस्त जगत को धारण किये हुए हैं |
पूरे नवरात्रों में उत्सव का वातावरण बना रहता है | कहीं डांडिया की धूम रहती है तो कहीं देवी के नौ रूपों की पूजा अर्चना की जाती है | पूरे भक्ति भाव से दुर्गा सप्तशती में देवी की तीनों चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध और शुम्भ निशुम्भ का उनकी समस्त सेना के सहित वध की कथाओं का पाठ किया जाता है | इन तीनों चरित्रों को पढ़कर इहलोक में पल पल दिखाई देने वाले अनेकानेक द्वन्द्वों का स्मरण हो आता है | किन्तु देवी के ये तीनों ही चरित्र इस लोक की कल्पनाशीलता से बहुत ऊपर हैं | दुर्गा सप्तशती किसी लौकिक युद्ध का वर्णन अवश्य प्रतीत होती है, किन्तु वास्तव में यह एक अत्यन्त दिव्य रहस्य को समेटे एक ऐसा महान उपासना ग्रन्थ है जिसमें समस्त चराचर जगत – समस्त प्रकृति – समस्त ब्रह्माण्ड – के लिए कल्याण की कामना है…
देवी प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद, प्रसीद मातर्जगतोSखिलस्य |
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं, त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ||
माँ भगवती को नमन करते हुए सभी को शारदीय नवरात्र – आश्विन नवरात्र – की हार्दिक शुभकामनाएँ…