न जायते म्रियते वा कदाचित…

स्वयं प्रकाश स्वरूप एवं स्वयं प्रकाशित तथा नित्य शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वरूप हमारी अपनी आत्मा को किसी अन्य स्रोत से चेतना अथवा प्रकाश पाने की आवश्यकता ही नहीं – और यही है परमात्मतत्व – परमात्मा – इसे पाने के लिए कहीं और जाने की आवश्यकता ही नहीं – आवश्यकता है तो अपने भीतर झाँकने की – पैठने की अपने भीतर – और वही है सबसे कठिन कार्य…

उपनिषदों में तो आत्मा को कहा ही गया है स्वयं प्रकाश | जो स्वयं प्रकाश है उसे प्रकाशित करने की आवश्यकता ही नहीं है | आवश्यकता है इस प्रकाश को समझ कर उससे दिशा प्राप्त कर अपनी आत्मा की चैतन्यता को समझ आगे बढ़ जाने की |

यदि स्वयं से ही अपरिचित रह गए तो आगे बढ़ना व्यर्थ है | आत्मा की सुषुप्ति, स्वप्न तथा जाग्रत हर अवस्था में चैतन्य विद्यमान रहता है, अतः चैतन्य आत्मा का शुद्ध स्वभाव है | चैतन्य होने के कारण आत्मा स्वयं प्रकाश है तथा जगत को भी प्रकाशित करता है | व्यक्ति का सबसे बड़ा गुरु भी यही होता है और यही ज्ञातव्य भी होता है | यह शाश्वत है, अनादि है, अनन्त है – यही कारण है कि न यह कभी जन्मता है, न मृत्यु को प्राप्त होता है, न यह किसी भौतिक (जो पञ्चभूतों से निर्मित हो) पदार्थ की भाँति गल सकता है, न जल सकता है | इनमें से कोई भी गुण धर्म आत्मा का नहीं है |

न जायते म्रियते वा कदाचित्, नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |

अजो नित्यः शाश्वतोSयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||

गीता – 2/20

ऐसी अविनाशी तथा निरन्तर विद्यमान इसी आत्मा के रहस्य को – परमात्म तत्त्व को – यदि समझ गए तो फिर परमात्मा को अन्यत्र ढूँढने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती – वह तो अपने भीतर ही निहित होता है…

आध्यात्मिक जिज्ञासु भौतिक सुखों से ऊपर उठकर इसी परमात्मा को समझने का प्रयास करते हैं, जो निश्चित रूप से अत्यन्त कठिन मार्ग है | किन्तु यदि हमने हर व्यक्ति की आत्मा को अपने सामान समझ लिया तो जानिये हम परमात्मा को समझने की दिशा में अग्रसर हैं…