श्री पार्श्वनाथाय नमः

ॐ ह्रीं अर्ह श्री पार्श्वनाथाय नमः

आज पौष कृष्ण एकादशी को जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की जयन्ती मनाई जा रही है | भगवान पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 3 हजार वर्ष पूर्व वाराणसी में इक्ष्वाकु वंश के महाराज अश्वसेन की पत्नी महारानी वामा के गर्भ से हुआ था | जन्म के समय ही इनके शरीर पर सर्प का चिह्न था | महारानी वामा ने गर्भावस्था में भी एक बार स्वप्न में सर्प देखा था इसलिए बच्चे का नाम पार्श्व रख दिया | राजकुमार होने के कारण उनका प्रारम्भिक जीवन अत्यन्त समृद्ध वातावरण में व्यतीत हुआ । एक दिन उन्होंने पुरवासियों को पूजा की सामाग्री लेकर एक दिशा में जाते देखा | पार्श्व भी उनके पीछे चल दिए | वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक तपस्वी पंचाग्नि जला रहा था और अग्नि में एक सर्प के जोड़े की बलि दी जा रही थी | तब पार्श्व ने कहा जिस धर्म में दया का भाव न हो वह धर्म निरर्थक है |

इसी प्रकार की कुछ अन्य कथाएँ भी हैं |

माना जाता है कि तीस वर्ष की आयु में इन्होने गृहत्याग करके जैन धर्म की दीक्षा ली | काशी में 83 दिन की कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ | उसके बाद उन्होंने अनेक देशों का भ्रमण किया तथा अनेक लोगों को दीक्षित किया | आज जैन समाज जिस रूप में है उस चतुर्विध संघ – जिसमें मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका सम्मिलित होते हैं – की स्थापना का श्रेय भी पार्श्वनाथ को ही जाता है |

चतुर्विध संघ में प्रत्येक गण एक गणधर के अन्तर्गत कार्य करता था । स्त्री पुरुष में अथवा छोटे बड़े में कोई भेद नहीं माना जाता था – सभी अनुयायियों को समान माना जाता था | ऐसा भी माना जाता है कि भगवान बुद्ध के भी अधिकाँश पूर्वज पार्श्वनाथ के अनुयायी थे |

अपना निर्वाण निकट जान पार्श्वनाथ झारखण्ड में स्थित सम्मेद शिखर जी पर तपस्या के लिए चले गए जहाँ श्रावण शुक्ल अष्टमी को उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ |

जैन पुराणों के अनुसार तीर्थंकर बनने से पूर्व पार्श्नाथ के नौ जन्म हुए थे, जिनमें से प्रथम जन्म में वे एक ब्राह्मण थे, दूसरे जन्म में हाथी, तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता, चतुर्थ में एक क्षत्रिय राजा, पंचम में पुनः देव, छठे में चक्रवर्ती सम्राट, सप्तम में पुनः देवता, अष्टम में पुनः एक राजा और नवम जन्म में इन्द्र के रूप में जन्म लिया | इन्हीं पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों के फलस्वरूप दशम जन्म में पार्श्व के रूप में जन्म लेकर ये तेईसवें तीर्थंकर बने |

इनके विवाह के विषय में भी मतभेद है | दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार ये बाल ब्रह्मचारी थे | जबकि श्वेताम्बर मतावलम्बियों में कुछ इन्हें दिगम्बरों की ही भाँति बाल ब्रह्मचारी मानते हैं और कुछ विवाहित मानते हैं | विवाहित मानने वालों के अनुसार गृहस्थ का त्याग करके ये तपस्या के लिए गए थे |

मान्यताएँ जो भी हों, इतना तो सत्य है कि भगवान पार्श्वनाथ ने मानव मूल्यों के संरक्षण तथा मानव मात्र के उत्थान के लिए तप किया, अपने शिष्यों को धर्म में दीक्षित किया और जन कल्याण के कार्य करते हुए ही अन्त में निर्वाण प्राप्त किया | ऐसे भगवान पार्श्वनाथ की जयन्ती की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ – इस भावना के साथ  कि हम सब भी उन्हीं के समान मानव मात्र के कल्याण के निमित्त कर्म करते रहें…