पञ्चांग का पंचम अंग करण

पिछले कुछ समय से पञ्चांग के विभिन्न अवयवों पर चर्चा कर रहे हैं | पञ्चांग के चार अंगों – दिन, तिथि, नक्षत्र और योग के बाद अब, पञ्चांग का पाँचवाँ अवयव है करण | तिथि का आधा भाग करण कहलाता है | चन्द्रमा जब 6 अंश पूर्ण कर लेता है तब एक करण पूर्ण होता है | कुल ग्यारह करण होते हैं | इनमें किन्स्तुघ्न, चतुष्पद, शकुनि तथा नाग ये चार करण हर माह में आते हैं और इन्हें स्थिर करण कहा जाता है | अन्य सात करण चर करण कहलाते हैं | ये एक स्थिर गति में एक दूसरे के पीछे आते हैं | इनके नाम हैं: बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि जिसे भद्रा भी कहा जाता है |

इन सभी ग्यारह करणों के गुण स्वभाव निम्न प्रकार हैं:

किन्तुघ्न – यह स्थिर करण है | इसके प्रतीक माने जाते हैं कृमि – कीट – कीड़े | इसका फल सामान्य है तथा इसकी अवस्था ऊर्ध्वमुखी मानी जाती है |

बव – यह चर करण है | इसका प्रतीक सिंह को माना गया है | इसका गुण समभाव है तथा इसकी अवस्था बालावस्था मानी गई है |

बालव – यह भी चर करण है | इसका प्रतीक है चीता | यह कुमार माना जाता है तथा इसकी अवस्था बैठी हुई मानी जाती है |

कौलव – चर करण | इसका प्रतीक माना गया है शूकर को | श्रेष्ठ फल देने वाला ऊर्ध्व अवस्था का करण माना जाता है |

तैतिल – यह भी चर करण है | इसका प्रतीक है गधा | अशुभ फलदायी सुप्त अवस्था का करण माना जाता है |

गर –चर करण है तथा इसका प्रतीक है हाथी | इसे प्रौढ़ माना जाता है तथा इसकी अवस्था बैठी हुई मानी जाती है |

वणिज – यह भी चर करण है | इसका प्रतीक गौ को माना जाता है | इसकी अवस्था बैठी हुई मानी गई है |

विष्टि अर्थात भद्राचर करण | इसका प्रतीक मुर्गी को माना गया है | मध्यम फल देने वाला बैठी हुई स्थिति का करण माना जाता है |

शकुनि –स्थिर करण | इसका प्रतीक है कोई भी पक्षी | यद्यपि इसकी अवस्था ऊर्ध्वमुखी है फिर भी इसे सामान्य फल देने वाला करण माना जाता है |

चतुष्पद – यह भी स्थिर करण है | जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसका प्रतीक है पशु | इसका भी फल सामान्य है तथा इसकी अवस्था सुप्त मानी जाती है |

नाग – यह भी स्थिर करण है | इसके भी नाम से ही स्पष्ट है कि इसका प्रतीक माना गया है सर्प को | इसका फल सामान्य है तथा इसकी अवस्था सुप्त मानी गई है |

जैसा कि ऊपर के विवरण से ज्ञात होता है, प्रत्येक करण का अपना स्वयं का गुण धर्म होता है और उसी के अनुसार उसका फलकथन भी होता है | इनमें विष्टि करण अथवा भद्रा को सबसे अधिक अशुभ माना जाता है | किसी भी नवीन कार्य का आरम्भ इस करण में नहीं किया जा सकता | कुछ धार्मिक कार्यों में भी भद्रा का त्याग किया जाता है | सुप्त और बैठी हुई स्थितियाँ उत्तम नहीं होतीं | ऊर्ध्व अवस्था उत्तम होती हैं |

किन्स्तुघ्न करण स्थिर करण है तथा प्रथम करण है | साथ ही करण का तिथियों के साथ विशेष सम्बन्ध होता है | सूर्य और चन्द्र जब एक ही राशि में सामान अंशों पर होते हैं तो प्रतिपदा तिथि के साथ ही किन्स्तुघ्न करण का आरम्भ हो जाता है जो छह अंशों तक रहता है | चन्द्रमा जब सूर्य से छह अंश से आगे बढ़ना आरम्भ करता है तो बव नामक चर करण का आरम्भ होता है और जब सूर्य तथा चन्द्र का राश्यंतर बारह अंश पूर्ण हो जाता है तो प्रतिपदा तिथि समाप्त होकर द्वितीया तिथि आरम्भ हो जाती है और उसके साथ ही चर करण बालव का आरम्भ हो जाता है | यही क्रम प्रत्येक करण के साथ चलता रहता है |

अन्त में इतना अवश्य कहेंगे कि शुभ मुहूर्त – Auspicious Time – में यदि कोई कार्य आरम्भ किया जा सकता है तो अवश्य करना चाहिए | किन्तु यदि कार्य आवश्यक ही हो और कोई शुभ मुहूर्त नहीं मिल रहा हो तो Vedic Astrologer व्यक्ति को इस शुभाशुभ मुहूर्त के भय से ऊपर उठकर सकारात्मक भाव के साथ कर्म करने की ही सलाह देते हैं…