नारी शक्ति को नमन

Working Women

पिछले दिनों एक महिला अधिवेशन में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | आप सभी जानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के साथ साथ गणतन्त्र दिवस और पन्द्रह आगस्त आदि कुछ ऐसे दिन होते हैं जिनके आस पास इस प्रकार की राष्ट्रीय समस्याओं पर परिचर्चाओं में वृद्धि हो जाती है | बहरहाल, मंच पर उपस्थित सभी वक्ता अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत कर रहे थे परिवार, समाज तथा राष्ट्र के स्तर पर महिलाओं की भागीदारी के विषय में | उन्हीं में से एक वक्ता का मानना था कि जितने भी नारी सशक्तीकरण अथवा नारी मुक्ति जैसे आन्दोलन चलाए जा रहे हैं वे सब खोखले हैं और नारी का तो मुख्य कार्य ही है घर में बैठकर सन्तान को अच्छे संस्कार प्रदान करना | इससे पूर्व भी एक अन्य कार्यक्रम में बहस का मुद्दा था “काम काजी महिलाएँ – Working Women – परिवार के लिए वरदान हैं या अभिशाप…” और आश्चर्य की बात ये कि जो कामकाजी महिलाएँ अपने अपने क्षेत्र में कोई मुक़ाम हासिल कर चुकी हैं वे ही कामकाजी महिलाओं के विरोध में मुखर होकर बोल रही थीं | बड़ा आश्चर्य हुआ देखकर |

भारत जैसी प्रगतिशील सोच रखने वाले देश में, जहाँ दानवों का संहार करने वाली माँ दुर्गा को शक्ति का पर्याय माना जाता है – अर्थात देश का रक्षा प्रबन्ध सँभाला हुआ है, माता लक्ष्मी धन के प्रबन्धन में व्यस्त मानी जाती हैं – यानी अर्थ विभाग, और माँ वाणी संसार भर के लोगों के हृदयों से अज्ञान का अन्धकार दूर करने में व्यस्त हैं – अर्थात शिक्षा विभाग को सफलता से आगे बढ़ा रही हैं, वहाँ भी क्या इस प्रकार के विषय कोई महत्त्व रखते हैं ? लेकिन सत्य तो यह है कि जन साधारण के लिए रखते हैं | क्योंकि हम लोग आगे अवश्य बढ़ रहे हैं – पर मानसिक सोच के स्तर पर नहीं | हम अपना स्वर्णिम इतिहास भूल जाते हैं कि जब हर लड़की के लिए भली भाँति शिक्षा प्राप्त करना, कलाओं में निपुण होना – जिनमें युद्धकला भी शामिल थी – आवश्यक था | लड़की का विवाह ही तब किया जाता था जब वह योग्य हो जाती थी और वैसा ही योग्य वर उसके लिए चुना जाता था | अपनी इच्छा से कहीं भी आने जाने की स्वतन्त्रता थी और कुछ भी कार्य वह कर सकती थी | नारी पर तो विदेशियों के आक्रमणों के पश्चात बन्धन लगने आरम्भ हुए, क्योकि वे लोग महिलाओं को, लड़कियों को जबरन उठाकर ले जाते थे और उनके साथ दुष्कर्म करते थे |

इस सबको भूलकर हम उस इतिहास को दोहराने में लगे हुए हैं जब नारी को केवल घर में रहकर बच्चों तथा परिवार की देख भाल करने की ही भूमिका दी जाती थी | लेकिन उस इतिहास को भी याद करते समय हम यह क्यों भूल जाते हैं कि वह युग आखेट का, युद्धों का युग था | पुरुषों को भोजन के लिए शिकार करने जाना होता था अथवा युद्ध के लिए जाना होता था | ऐसे में बच्चे तथा घर के बड़े बुजुर्गों की ज़िम्मेदारी होती थी नारी के कन्धों पर | साथ ही न तो पुरुषों के लिए और न ही महिलाओं के लिए कार्यक्षेत्र का इतना विस्तार था जितना आज है | इस स्थिति में महिलाओं को घर पर रहकर ही अपने समस्त उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना पड़ता था | और बच्चा जिसकी संगति में अधिक रहेगा वैसे ही संस्कार उसे प्राप्त होंगे | इसलिए माँ का प्रभाव सन्तान पर अधिक होता था | अब तो विज्ञान ने भारत की इस पौराणिक मान्यता की भी पुष्टि कर दी है कि बच्चे की सीखने की प्रक्रिया गर्भ में ही आरम्भ हो जाती है – जिसके लिए अभिमन्यु की कथा प्रसिद्ध ही है |

आज कार्य के विभिन्न आयाम सबके समक्ष हैं | पुरुष हो या स्त्री – सबके लिए एक जैसी सुविधाएँ हैं और अपने मनचाहे कार्यक्षेत्र में योग्यता और निपुणता प्राप्त करके कोई भी आगे बढ़ सकता है | तो फिर यह कहाँ का न्याय है कि महिलाओं को बच्चों को संस्कार देने के नाम पर घरों तक सीमित कर दिया जाए ? यह सत्य है कि सन्तान को जन्म देने के कारण सबसे पहले संस्कार माँ के ही प्राप्त होते हैं किसी भी बच्चे को, किन्तु जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है और पहले घर परिवार के सदस्यों, फिर गुरुओं मित्रों आदि के सम्पर्क में आता जाता है वैसे वैसे उन सबके संस्कार भी उसकी संस्कारों की पूँजी में वृद्धि करते चले जाते हैं | और यह कोई एक दो दिन चलने वाली प्रक्रिया नहीं है, जीवन भर यह क्रम चलता रहता है | हमारा व्यवहार, हमारे विचार जीवन भर संस्कारित होते रहते हैं | तभी तो कहते हैं कि संगति सोच समझकर करनी चाहिए | एक और अहम बात, संस्कारों की शिक्षा के लिए किसी पुस्तकीय ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती, व्यक्ति अपने साथ रहने वाले लोगों के आचार व्यवहार को देख देखकर ही संस्कारित होता है | हम किसी बुज़ुर्ग व्यक्ति को देखकर स्वयं तो उसे प्रणाम न करें और अपने बच्चे से प्रणाम करने के लिए कहें तो वह नहीं करेगा | किन्तु यदि वह हमें बड़ों के समक्ष श्रद्धानत होते देखेगा तो वह स्वयं ऐसा करने के लिए प्रेरित होगा | तो किसी भी माँ के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह बच्चे के सामने बैठकर उसे संस्कार तोते की तरह रटाए, बल्कि अपने व्यवहार से उसे बच्चे में संस्कार डालने होंगे | और इसके लिए उसका हर समय घर के भीतर ही बैठ रहना आवश्यक नहीं | साथ ही, माँ के साथ साथ पिता को भी अपना व्यवहार उस प्रकार का बनाना होगा जैसा वह अपनी सन्तान को देखना चाहता है |

स्त्री यदि कार्य के लिए घर से बाहर जाती है तो ऐसा करके वह घर की आर्थिक स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने में सहयोग ही दे रही है | साथ ही उसे ज़रा ज़रा सी बात के लिए पुरुषों के सामने या घर के अन्य सदस्यों के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता | नारी आत्मनिर्भर होगी तो अकेले पुरुष के कन्धों पर ही परिवार के लिए सुख सुविधाएँ जुटाने का बोझ नहीं रहेगा, उसकी पत्नी भी उसमें सहयोग देगी | आज वह आत्म निर्भर बन रही है जिसके कारण उसके स्वाभिमान में भी वृद्धि हो रही है | साथ ही हमने देखा है कि जो माताएँ काम करने के लिए घर से बाहर जाती हैं उनकी दिनचर्या कहीं अधिक अनुशासित और संयमित हो जाती है | बच्चे जब अपनी माता को अनुशासित और संयमित दिनचर्या का अनुशीलन करते देखते हैं, उन्हें उनकी आत्मनिर्भरता के कारण गर्व से सर ऊँचा किये देखते हैं, तो उनका जीवन स्वयमेव अनुशासित और संयमित हो जाता है और वे भी पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करने लगते हैं, ताकि वे भी अपनी माँ के ही समान गर्व के साथ सर ऊँचा करके चल सकें |

साथ ही कामकाजी महिलाएँ अपने साथ साथ दूसरे लोगों को भी काम मुहैया कराती हैं, क्योंकि काम करने वाली महिलाओं को अपने ऑफिस में या घर में हाथ बँटाने के लिए मदद चाहिए होती है | और इस प्रकार कड़ी से कड़ी जुड़ते हुए बेरोज़गारी की समस्या पर भी काफ़ी हद तक लगाम लगती है |

इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जो महिलाएँ बाहर जाकर काम नहीं करती हैं अथवा परिवार के लोगों की सेवा में व्यस्त रहने के कारण धनोपार्जन में पति का हाथ नहीं बँटाती हैं वे कमतर हैं | निश्चित रूप से उनका सारा दिन घर गृहस्थी की ही देख रेख में निकल जाता है | पर उसके लिए तो किसी की सहायता भी ली जा सकती है | जो महिलाएँ काम करती हैं उन पर तो काम का और उत्तरदायित्वों का दोहरा बोझ आ जाता है | उन्हें कार्यक्षेत्र में भी स्वयं को सिद्ध करके दिखाना होता है और घर परिवार में जो कार्य केवल एक महिला ही कर सकती है वे सारे कार्य भी सँभालने होते हैं | किन्तु उनकी आत्मनिर्भरता की भावना उनमें वो साहस उपन्न कर देती है कि ये सब वे हँसते हँसते कर जाती हैं |

महिला के लिए आत्मनिर्भर होना केवल धनोपार्जन के लिए ही आवश्यक नहीं है | हाँ धनोपार्जन भी कामकाजी होने का एक लाभ है | किन्तु हर महिला में कोई न कोई योग्यता, कोई न कोई टेलेंट अवश्य छिपा होता है | और जब अपनी योग्यता के अनुरूप वह कार्य नहीं कर पाती तो निराशा की शिकार हो जाती है | अतः हर नारी का मौलिक अधिकार है यह कि उसे उसकी योग्यता के अनुसार कार्य करने दिया जाए |

साथ ही, जितने अधिक लोग परिवार में आत्म निर्भर होंगे उतना ही अधिक परिवार आर्थिक तथा सामाजिक और वैचारिक स्तर पर मज़बूत बनेगा | और एक सशक्त परिवार से सशक्त समाज तथा सशक्त समाज से सशक्त देश का निर्माण होता है |

इसलिए देश की आधी आबादी नारी शक्ति का आत्मनिर्भर होना अत्यन्त आवश्यक है और इस विषय पर किसी प्रकार के वाद विवाद का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता…

अन्त में, समस्त नारी शक्ति को नमन के साथ ही कल गणतन्त्र दिवस की सभी को हार्दिक बधाई…