Karma – कर्म
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः || श्रीमद्भगवद्गीता 18/46
जिसके कारण संसार के समस्त ब्रह्माण्ड – समस्त जीव – अपने अपने कर्म में प्रवृत्त हो रहे हैं, जिसने यह समस्त ताना बाना बुना है, उसका पूर्ण निष्ठा के साथ अनुकरण तभी सम्भव है जब हम सभी उसी के समान श्रमशील होकर निष्काम कर्म करते रहें और प्रसन्न रहें |
कर्म करना मनुष्य का स्वभाव है | और कर्मशील रहते हुए मनुष्य जीवन में हर पल किसी न किसी प्रकार की समस्या का सामना भी हर किसी को करना ही पड़ता है | समस्या बड़ी भी हो सकती है और छोटी भी | कभी कभी हम भावनात्मक रूप से इतने अधिक कोमल हो जाते हैं कि हमें बिना किसी समस्या के भी समस्या का अनुभव होने लगता है | और तब अपनी उन समस्याओं के निदान के लिए हम इधर उधर भागना शुरू कर देते हैं |
अपनी समस्याओं के समाधान के लिए हम कभी किसी गुरु के पास जाते हैं, तो कभी किसी विशेषज्ञ के पास जाते हैं | कभी किसी ज्योतिषी अर्थात Vedic Astrologer आदि के पास जाकर अपनी समस्या के विषय में उन्हें बताते हैं ताकि वे हमें उन समस्याओं से मुक्ति का कोई उपाय बता सकें | यह भी सत्य है कि एक योग्य गुरु अथवा मार्गदर्शक वही होता है जो हमारे बताए बिना ही हमारी समस्याओं को समझ जाए और उनके निराकरण का उपाय हमें बताए – सही मार्ग हमें दिखाए |
किन्तु वास्तविकता यह है कि गुरु केवल उपाय बता सकता है, उस उपाय को करना तो हमें स्वयं ही होगा | अर्थात कर्म हमें स्वयं ही करना होगा | जबकि समग्र प्रकृति ही कर्मशीला है तो कोई भी व्यक्ति भला कर्महीन होकर कैसे बैठा रह सकता है ? सोते, जागते, स्वप्न देखते हर स्थिति में मनुष्य कर्मरत ही रहता है | जीवन का कोई भी पल ऐसा नहीं होता जब व्यक्ति कर्म न करता हो – फिर चाहे वह शारीरिक स्तर पर किया गया कर्म हो अथवा वैचारिक स्तर पर अथवा वाणी के स्तर पर |
अस्तु ! “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः”…
हम सभी उचित दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करते हुए कर्मरत रहें और अपना लक्ष्य प्राप्त करें…