Vedic Astrology – Ancient as well as Contemporary

Vedic Astrology - Ancient as well as Contemporary

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वैदिक ज्योतिष-  प्राचीन भी और सम सामयिक भी

नक्षत्र, तिथि, पक्ष, मास, ऋतु तथा सम्वत्सर – काल के इन समस्त खण्डों के साथ यज्ञों का निर्देश वेदों में उपलब्ध है | वास्तव में तो वैदिक साहित्य के रचनाकाल में ही भारतीय ज्योतिष पूर्णरूप से अस्तित्व में आ चुका था | सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में इसके प्रमाण इधर उधर बिखरे पड़े हैं | हमारे ऋषि मुनि किस प्रकार समस्त ग्रहों नक्षत्रों से अपने और समाज के लिए मंगल कामना करते थे इसी का ज्वलन्त उदाहरण है प्रस्तुत मन्त्र:

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा: |

स्वस्ति न तार्क्ष्योSरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ||

प्रस्तुत मन्त्र में राशि चक्र के समान चार भाग करके परिधि पर समान दूरी वाले चारों बिन्दुओं पर पड़ने वाले नक्षत्रों से अपने व समस्त संसार के कल्याण की कामना इन ऋषि मुनियों ने की है | इन्द्र से चित्रा का, पूषा से रेवती का, तार्क्ष्य से श्रवण का तथा बृहस्पति से पुष्य नक्षत्रों का ग्रहण किया गया है | चित्रा का अन्तिम भाग कन्या राशि के अन्त पर और रेवती का अन्तिम भाग मीन राशि के अन्त पर 180 अंश का कोण बनाते हैं | यही स्थिति श्रवण व पुष्य नक्षत्रों की मकर व कर्क राशियों में है |

तैत्तिरीय शाखा के अनुसार चित्रा नक्षत्र का स्वामी इन्द्र को माना गया है | भारत में प्राचीन काल में नक्षत्रों के जो स्वरूप माने जाते थे उनके अनुसार चित्रा नक्षत्र का स्वरूप लम्बे कानों वाले उल्लू के जैसा माना गया है | अतः इन्द्र का नाम वृद्धश्रवा भी है | जो सम्भवतः इसलिए भी है कि इन्द्र को लम्बे कानों वाले चित्रा नक्षत्र का अधिपति माना गया है | अतः यहाँ वृद्धश्रवा का अभिप्राय चित्रा नक्षत्र से ही है | पूषा का नक्षत्र रेवती तो सर्वसम्मत ही है | तार्क्ष्य शब्द से अभिप्राय श्रवण से है | श्रवण नक्षत्र में तीन तारे होते हैं | तीन तारों का समूह तृक्ष तथा उसका अधिपति तार्क्ष्य | तार्क्ष्य को गरुड़ का विशेषण भी माना गया है | और इस प्रकार तार्क्ष्य उन विष्णु भगवान का भी पर्याय हो गया जिनका वाहन गरुड़ है | अरिष्टनेमि अर्थात कष्टों को दूर करने वाला सुदर्शन चक्र – भगवान विष्णु का अस्त्र | पुष्य नक्षत्र का स्वामी देवगुरु बृहस्पति को माना गया है | विष्णु पुराण के द्वितीय अंश में नक्षत्र पुरुष का विस्तृत वर्णन मिलता है | उसके अनुसार भगवान विष्णु ने अपने शरीर के ही अंगों से अभिजित सहित 28 नक्षत्रों की उत्पत्ति की और बाद में दयावश अपने ही शरीर में रहने के लिए स्थान भी दे दिया | बृहत्संहिता में भी इसका विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है |

वेदांग ज्योतिष के प्रतिनिधि ग्रन्थ दो वेदों से सम्बन्ध रखने वाले उपलब्ध होते हैं | एक याजुष् ज्योतिष – जिसका सम्बन्ध यजुर्वेद से है | दूसरा आर्च ज्योतिष – जिसका सम्बन्ध ऋग्वेद से है | इन दोनों ही ग्रन्थों में वैदिककालीन ज्योतिष का समग्र वर्णन उपलब्ध होता है | बाद में यज्ञ भाग के विविध विधानों के साथ साथ दैनिक जीवन में भी ज्योतिष का महत्त्व वैदिक काल में ही जनसामान्य को मान्य हो गया था | परवर्ती ब्राहमण और संहिता काल में तो अनेक विख्यात ज्योतिषाचार्यों का वर्णन तथा रचनाएँ हमें उपलब्ध होती ही हैं | जिनमें पाराशर, गर्ग, वाराहमिहिर, आदिभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य तथा कमलाकर जैसे ज्योतिर्विदों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं | ज्योतिषीय गणना का मूलाधार वाराहमिहिर का सूर्य सिद्धान्त ही है |

परवर्ती साहित्य और इतिहास में यदि हम रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थों का अध्ययन करें तो यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि उस काल में भी प्रत्येक आचार्य ज्योतिषाचार्य अवश्य होते थे | इन दोनों ही इतिहास ग्रन्थों में ज्योतिषीय आधार पर फल कथन यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं |

इस प्रकार सम्भावनाओं का विज्ञान ज्योतिष प्राचीन विज्ञान होते हुए भी नितान्त अर्वाचीन और सम सामयिक भी है तथा व्यक्ति को दिशा निर्देश देने का कार्य करता आ रहा है |