Ganga Dussehra

Ganga Dussehra

Ganga Dussehra

आपः देवता

दस दिन से चले आ रहे गंगा दशहरा का आज समापन है | इससे पूर्व बाईस अप्रैल को गंगा सप्तमी थी | बहुत से लोगों ने पुण्य प्राप्ति के लिए गंगा के पवित्र जल में स्नान किया होगा | होना भी चाहिए, क्योंकि जल जीवन की अनिवार्य आवश्यकता होने के साथ ही प्रगति का संवाहक भी है | वैदिक साहित्य में जितने अधिक मन्त्र और स्तुतियाँ किसी न किसी रूप में जल के लिए उपलब्ध होती हैं उतनी सम्भवतः किसी अन्य देवता के लिए नहीं उपलब्ध होतीं | जल के देवता मित्र और वरुण को भाई माना गया है तथा ये द्वादश आदित्यों (मित्रावरुणौ – देवमाता अदिति के पुत्र) में गिने जाते हैं |

Ganga Dussehra
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व्यावहारिक दृष्टि से भी देखें तो जल का सबसे अधिक उपयोग होता है क्योंकि इसके द्वारा जीवन को ऊर्जा और गति प्राप्त होती है | यदि मनुष्य को पौष्टिक और कर्मठ बने रहना है तो उसे शुद्ध जल का अधिकाधिक सेवन करने की सलाह दी जाती है | क्योंकि जल का मुख्य गुण है नमी और शीतलता प्रदान करते हुए दोषों को समाप्त करना | जल ही विद्युत् के रूप में प्रकाश देता है तो भाप बनकर पुनः पृथिवी को सिंचित करके प्राणीमात्र के लिए भोज्य पदार्थों, वनस्पतियों तथा औषधियों आदि की उत्पत्ति का कारण बनता है | जल तत्व के ही कारण मन भावमय है, वाणी सरस है तथा नेत्रों में आर्द्रता और तेज विद्यमान है | अथर्ववेद में जल के गुणों का विस्तार से वर्णन मिलता है | यजुर्वेद में भी कहा गया है कि जल को दूषित करना तथा वनस्पतियों को हानि पहुँचाना जीवन के लिए हानिकारक है | ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में प्राथना है कि हमें शुद्ध जल तथा औषधियाँ उपलब्ध हों | वेदों में जल को “आप: देवता” कहा गया है और पूरे चार सूक्त इसी “आप: देवता” के लिए समर्पित हैं | अस्तु, गंगा दशहरा के पावन पर्व पर प्रस्तुत है इसी आपः सूक्त के कुछ अंश…

अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् || पृञ्चतीर्मधुना पयः ||

अमूया उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह || ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ||

अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः || सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः ||
अप्स्व अन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये || देवा भवत वाजिनः ||
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा ||
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः ||

आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वेSमम || ज्योक् च सूर्यं दृशे ||

इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि ||
यद्वाहमभिदु द्रोह यद्वा शेप उतानृतम् ||

आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि ||
पयस्वानग्न आ गहि तंमा सं सृज वर्चसा || (प्रथम मण्डल सूक्त 23/16-23)

यज्ञ करने वालों के सहायक मधुर जल माताओं के समान पुष्टि प्रदान करते हैं तथा दुग्ध को पुष्ट करते हैं | सूर्य किरणों में समाहित जल हमारे यज्ञों के लिए उपलब्ध हों | जिस जल का सेवन हमारी गायें करती हैं तथा जो पृथिवी और अन्तरिक्ष में समान रूप से प्रवाहित है उस जल के लिए हम हवि समर्पित करते हैं | अमृतमय औषधीय गुणों से युक्त जल की प्रशंसा से समस्त देवता उत्साह प्राप्त करें | जल में समस्त औषधियाँ तथा समस्त सुखों को प्रदान करने वाली अग्नि अर्थात ऊर्जा समाहित है | ऐसा जल जीवन रक्षक औषधियों को हमारे शरीर में स्थापित करे ताकि हम चिरकाल तक नीरोग रहकर सूर्य का दर्शन करते रहें | हे जल के देवताओं ! हमसे अज्ञानवश द्वेष, आक्रोश, असत्य आदि जो कुछ भी दुराचार हुए हों उन सबको आप हमसे दूर प्रवाहित कर दें | जल में प्रवृष्ट होकर हमने जो स्नान किया है उसके कारण हम रस से आप्लावित हो गए हैं | ये जल हमें वर्चस्व प्रदान करें | हम इनका स्वागत करते हैं |

आपो यं वः प्रथमं देवयन्त इन्द्रानमूर्मिमकृण्वतेल: |
तं वो वयं शुचिमरिप्रमद्य घृतेप्रुषं मधुमन्तं वनेम ||

तमूर्मिमापो मधुमत्तमं वोSपां नपादवत्वा शुहेमा |
यस्मिन्निन्द्रो वसुभिर्मादयाते तमश्याम देवयन्तो वो अद्य ||

शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः |
ता इन्द्रस्य न मिनन्तिं व्रतानि सिन्धुभ्यो हण्यं घृतवज्जुहोत ||

याः सूर्यो रश्मिभिराततान याम्य इन्द्री अरदद् गातुभूर्मिम्।।
तो सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः || (सप्तम मण्डल सूक्त 47/1-4)

हे जलदेवता ! आपका मधुर प्रवाह सोमरस में मिला है जिसे स्वर्ग की कामना से हम इन्द्रदेव को अर्पित कर रहे हैं | आज हम समस्त जीव भी उसी सोमरस का पान करेंगे | आप समस्त जीवों को तृप्ति प्रदान करते हुए पवित्र भी करते हो | आप हमारे यज्ञों की निर्विघ्न सम्पन्नता हेतु यज्ञों में उपस्थित रहते हो | ये समस्त जलाशय इसी प्रकार निरन्तर प्रवाहित रहें इस हेतु हम यज्ञों का आयोजन करते रहें | हे सिन्धु ! जिन जलप्रवाहों को सूर्येदेव अपनी रश्मियों से गतिमान रखते हैं तथा इन्द्र जिनके प्रवाह के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं ऐसी जलधाराएँ निरन्तर हमें धन धान्य से परिपूर्ण करती हुई हमारा कल्याण करती रहें |

समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः |
इन्द्रो या वज्री वृषभोरराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||

या आपो दिव्या उत वा स्त्रवन्ति रवनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः |
समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||

यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम् |
मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||

यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा या सूर्जं मदन्ति |
वैश्वानरो यास्वाग्निः प्रविष्टस्ता आपो दवीरिह मामवन्तु || (सप्तम मण्डल सूक्त 49/1-4)

समुद्र जिनमें ज्येष्ठ हैं, जो दिव्य जल आकाश से वर्षा के रूप में हमें प्राप्त होते हैं, जो नदियों, कुँओं और स्रोतों से निरन्तर प्रवाहित होते हुए समस्त जड़ चेतन को पवित्र करते हुए समुद्र में जा मिलते हैं, इन्द्र जिन्हें मार्ग दिखाते हैं, सत्यासत्य के साक्षी वरुण जिनके देवता हैं, स्वयं वरुण-सोम-अग्नि विश्व की व्यवस्था के निमित्त जिनमें निवास करते हैं, जिनमें विद्यमान समस्त देव जिनके द्वारा अन्न आदि से आनन्दित होते हैं वे रसपूर्ण, दीप्तिमती तथा समस्त को पवित्र करने वाली नदियाँ हमारी रक्षा करें…

वैदिक ऋषि की इसी मंगलकामना के साथ सभी को गंगा दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ…