Rahu Kavacham

Rahu Kavacham

Rahu Kavacham

वैदिक ज्योतिष ग्रन्थों के अनुसार राहु को एक स्वाभाविक अशुभ ग्रह के रूप में माना जाता है | ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक दिन में एक भाग राहुकाल अवश्य होता है जो किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए अशुभ माना जाता है | यह तमोगुणी, कृष्ण वर्ण तथा स्वाभाविक पापग्रह माना जाता है | माना जाता है कि जिस स्थान पर यह बैठता है उसकी प्रगति को रोकता है |

किन्तु वास्तव में तो अन्य ग्रहों की ही भाँति राहु को भी देखा जाना चाहिए | जिस प्रकार अन्य ग्रह अपनी स्थिति-दृष्टि-युति आदि के आधार पर अपनी दशा अन्तर्दशाओं में शुभाशुभ फल देते हैं उसी प्रकार राहु के भी शुभाशुभ परिणाम इसकी दशा अन्तर्दशा में व्यक्ति को प्राप्त होते रहते हैं | यदि राहु अनुकूल स्थिति में है तो अपनी दशा अन्तर्दशा में जातक को अर्थलाभ के साथ साथ कार्य में सफलता तथा यश में वृद्धि भी प्रदान करता है तथा उसकी हर मनोकामना पूर्ण करता है | इसके अतिरिक्त राहु व्यक्ति की बुद्धि को खोजपरक बनाता है और इसीलिए अनुकूल राहु की दशा अन्तर्दशा में व्यक्ति के शोध कार्य पूर्ण हो सकते हैं | साथ ही Electronics आदि से सम्बन्धित बहुत से नवीन टेक्नोलोजी और व्यवसायों का ज्ञान भी किसी कुण्डली में राहु की स्थिति से किया जा सकता है | किन्तु वही राहु यदि प्रतिकूल स्थिति में है तो विपरीत  परिणाम भी प्रदान करता है और व्यक्ति की बुद्धि भ्रमित करने में सक्षम होता है | साथ ही ऐसा कोई गम्भीर रोग भी जातक को हो सकता जिसके कारण का पता चल पाना तथा जिसका इलाज़ कर पाना कठिन हो | और इस प्रकार छाया ग्रह होते हुए भी व्यक्ति विशेष की जन्मकुण्डली पर इसका व्यापक प्रभाव होता है |

राहु के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए तथा इसे प्रसन्न करने के लिए प्रायः भगवान् शिव की उपासना और महामृत्युंजय मन्त्र के जाप का सुझाव Vedic Astrologer देते हैं | इसके अतिरिक्त कुछ अन्य मन्त्रों के जाप का सुझाव भी दिया जाता है जिनमें राहु कवच भी सम्मिलित है | महाभारत के द्रोणपर्व में धृतराष्ट्र तथा संजय के मध्य हुए सम्वादों में इसका उल्लेख मिलता है जिसका ऋषि चन्द्रमा है | प्रस्तुत है महाभारत के द्रोणपर्व से लिया हुआ राहुकवचम्

|| अथ राहुकवचम् ||
अस्य श्रीराहुकवचस्तोत्रमन्त्रस्य चन्द्रमा ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, रां बीजं, नमः शक्तिः, स्वाहा कीलकम् I राहुप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः II

प्रणमामि सदा राहुं शूर्पाकारं किरीटिनम् |

सैन्हिकेयं करालास्यं लोकानां भयप्रदम् ||

नीलाम्बर: शिरः पातु ललाटं लोकवन्दितः |

चक्षुषी पातु मे राहुः श्रोत्रे त्वर्धशरीरवान् ||

नासिकां मे धूम्रवर्णः शूलपाणिर्मुखं मम |

जिव्हां मे सिंहिकासूनुः कंठं मे कठिनांघ्रिक: ||

भुजङ्गेशो भुजौ पातु निलमाल्याम्बरः करौ |

पातु वक्षःस्थलं मन्त्री पातु कुक्षिं विधुन्तुद: ||

कटिं मे विकटः पातु ऊरु मे सुरपूजितः |

स्वर्भानुर्जानुनी पातु जंघे मे पातु जाड्यहा ||

गुल्फ़ौ ग्रहपतिः पातु पादौ मे भीषणाकृतिः |

सर्वाणि अंगानि मे पातु निलश्चन्दनभूषण: ||

राहोरिदं कवचमृद्धिदवस्तुदं यो |

भक्त्या पठत्यनुदिनं नियतः शुचिः सन् ||

प्राप्नोति कीर्तिमतुलां श्रियमृद्धिमायुरारोग्यम्

आत्मविजयं च हि तत्प्रसादात् ||

|| इति श्रीमहाभारते धृतराष्ट्रसंजयसम्वादे द्रोणपर्वणि राहुकवचं सम्पूर्णम् ||