Samskaras
जन्म से पुनर्जन्म
बात चल रही है गर्भाधान संस्कार की | यह संस्कार न तो कोरा धार्मिक अनुष्ठान ही था और न ही काम वासना का प्रतीक था | यह तो एक बहुत ही पवित्र कर्म माना जाता था | उदाहरण के लिए शिव-पार्वती का मंगल मिलन काम वासना के कारण नहीं हुआ था | काम को तो शिव ने कब का जलाकर भस्म कर दिया था | शिव-पार्वती का मिलन हुआ था कार्तिकेय के जन्म के निमित्त क्योंकि तारकासुर जैसे दानव का वध करने की सामर्थ्य केवल उसी में सम्भव थी | गर्भाधान संस्कार के अन्तर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाने का प्रयास किया जाता था कि वंशवृद्धि आवश्यक है, किन्तु तभी इसका विचार करना चाहिए जब दोनों शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व हों और सन्तान पालन करने की योग्यता उनमें हो, तभी वे परिवार और समाज के लिए श्रेष्ठ और तेजस्वी नई पीढ़ी की संरचना कर पाने में समर्थ हो सकेंगे | और इस प्रकार से आज के युग में भी इन संस्कारों का उतना ही महत्त्व है जितना वैदिक अथवा उसके परवर्ती काल में था |
गर्भ में ही बालक का विकास आरम्भ हो जाता है | गर्भस्थ शिशु चैतन्य जीव की भाँति व्यवहार करने लगता है | वह सब कुछ सुनता भी है और उसे ग्रहण भी करता है | यही कारण है कि माता के गर्भ में आने के बाद से ही शिशु को संस्कारित किया जा सकता है | हमारे पूर्वज इस तथ्य से भली भाँति परिचित थे इसीलिए इस संस्कार के महत्त्व को उन्होंने स्वीकार किया था | महर्षि चरक ने कहा है कि गर्भ धारण करने की सबसे पहली शर्त यह है कि माता पिता दोनों के मन प्रसन्न हों तथा उनके शरीर स्वस्थ हों | इसीलिए उनके लिए उत्तम भोजन और सदा प्रसन्नचित्त रहना आवश्यक है | जिस समय गर्भाधान किया जाए उस समय दोनों का मन उत्साह और प्रसन्नता से भरा हुआ होना चाहिए | ऐसा कोई कार्य उन्हें नहीं करना चाहिए जिसके कारण उन्हें किसी प्रकार का तनाव अथवा चिन्ता हो | माता के लिए भी सुझाव है कि गर्भ में पल रहा शिशु माँ की आवाज़ और मनोभावों को सम्वेदनाओं के माध्यम से अच्छी तरह समझता है | अभिमन्यु की चर्चा हम कर ही चुके हैं और सभी उस कथा से परिचित भी हैं | अतः माँ जितना स्वयं को शान्त और प्रसन्न रखते हुए रचनात्मक गतिविधियों में अपना समय व्यतीत करेगी बालक उतना ही शान्तचित्त और समझदार होगा | गर्भ से लेकर सात वर्ष की अवस्था तक शिशु जो कुछ सीखता समझता है वही उसके जीवन की आधारशिला यानी नींव होती है |
आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ |
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः ||
अर्थात, स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं उनकी सन्तान भी वैसे ही स्वभाव की होती है |
इस प्रकार वास्तव में तो यह संस्कार प्रजनन-विज्ञान का आध्यात्मिक एवं सामाजिक आधार पर मार्गदर्शन कराने वाला संस्कार ही था | जिसकी मूलभूत भावना यही थी कि भावी माता पिता ने पूर्ण रूप से शिक्षित होकर शारीरिक तथा मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहते हुए उचित मनोदशा में यदि गर्भाधान कर लिया तो माता के गर्भ से योग्य, गुणवान और आदर्श सन्तान प्राप्त होने में कोई सन्देह नहीं रह जाएगा |
क्रमशः…………