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जन्म से पुनर्जन्म
जन्म से पुनर्जन्म – गर्भ संस्कार – पुंसवन संस्कार – हमारे मनीषियों ने अनुभव किया कि गर्भ धारण करने के बाद सबसे पहली आवश्यकता होती है कि माता पिता के आहार-व्यवहार, चिन्तन और भाव सभी को उत्तम और सन्तुलित बनाने का प्रयास किया जाए | और इसके लिए अनुकूल वातावरण बनाने की भी आवश्यकता होती है | प्रायः गर्भ के तीसरे माह तक गर्भस्थ शिशु के विचार तन्त्र का विकास आरम्भ हो जाता है | आज के डॉक्टर्स भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं | अतः इसी समय पुंसवन संस्कार किया जाता था | यागों का युग था | और निश्चित रूप से वेद मन्त्रों तथा यज्ञ के वातावरण और संस्कार के सूत्रों का प्रभाव गर्भस्थ शिशु के विकसित होते विचार तन्त्र पर पड़ना स्वाभाविक ही था | और केवल गर्भस्थ शिशु पर ही नहीं, उसके परिजनों को भी यह प्रेरणा प्राप्त होती थी कि घर का वातावरण ऐसा बनाया जाए जो गर्भिणी की मनःस्थिति के अनुकूल हो |
गर्भ का निश्चय हो जाने के बाद तीन माह पूरे होने तक कोई किसी अच्छे Astrologer द्वारा शुभ मुहूर्त का निश्चय कराकर इस संस्कार को सम्पन्न किये जाने का एक कारण और भी था – क्योंकि तीसरा माह आते आते शिशु का हृदय धमनियों के माध्यम से माता के हृदय से सम्बद्ध रहता है और उससे रस ग्रहण करता रहता है | और यहीं से शिशु और माँ के मध्य प्रेम, विश्वास, सहयोग तथा ममता के बन्धन की नींव पड़नी आरम्भ हो जाती है | इसी कारण से माँ को “दौहृदिनी” अर्थात दो हृदयों वाली भी कहा जाता है:
मातृजं ह्यस्य हृदयं तद्रसहारिणीभिर्धमनीभिर्मातुहृदयेनाभिसम्बद्धं भवति | तस्मात्तयोस्ताभि: श्रद्धा सम्पद्यते | तथा च द्विहृदयां नारीं दौहृदिनीत्याचक्षते || अष्टांगसंग्रह 2/11
यही कारण है कि गर्भ में स्वरूप लेते आकार तथा विचारों को आध्यात्मिक उपचार देने हेतु यह संस्कार किया जाता था | इसका मूलभूत प्रयोजन था गर्भस्थ शिशु के शारीरिक, बौद्धिक तथा भावनात्मक विकास के लिए उचित प्रयास करना | गर्भिणी के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराना, उसके खान पान आदि का ध्यान रखना तथा उसके मन को प्रसन्न रखने का प्रयास करना | गर्भस्थ शिशु की इच्छाओं के अनुरूप ही माँ की इच्छाएँ भी बलवती होती जाती हैं | अतः इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी की समस्त “उचित” कामनाओं की पूर्ति का प्रयास भी किया जाता था | गर्भिणी को पूर्ण रूप से सन्तुष्ट रखना इस संकार का उद्देश्य था | मान्यता थी कि गर्भिणी यदि प्रसन्न और सन्तुष्ट रहेगी तो उत्पन्न होने वाली सन्तान भी प्रसन्न तथा सन्तुष्ट प्रकृति की और दीर्घायु रहेगी |
इस प्रकार यदि वास्तव में देखा जाए तो यह संस्कार आज भी उतना ही सम सामयिक है जितना प्राचीन समय में था, और कुछ पारम्परिक – Traditional – परिवारों में इसका आज भी लगभग उसी रूप में पालन किया जाता है |
……….क्रमश: