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जन्म से पुनर्जन्म
जन्म से पुनर्जन्म – षष्ठी पूजन और नामकरण – इन दोनों संस्कारों का भी सम्बन्ध गर्भ संस्कारों से ही है | गर्भाधान गर्भ से पूर्व का संस्कार, पुंसवन और सीमन्तोन्नयन गर्भ धारण करने के बाद के संस्कार तथा जातकर्म, षष्ठी पूजन और नामकरण जन्म के तुरन्त बाद के संस्कार | षष्ठी पूजन – नाम के अनुरूप ही जन्म के छठे दिन किया जाता है | इसका उद्देश्य है षष्ठी देवी की पूजा अर्चना के माध्यम से समस्त देवी देवताओं से प्रार्थना करना कि नवजात शिशु का मंगल हो तथा वह शरीर, मन और अन्तःकरण से बलिष्ठ एवं गुणी बने | और इसके बाद किया जाता है नामकरण संस्कार |
“नामधेयं दशम्या च द्वादश्यां वास्यकारयेत् | पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते ||” (मनु. 2/30) दसवें अथवा बारहवें दिन पुण्य तिथि, नक्षत्र आदि शुभ मुहूर्त देखकर शिशु का नामकरण करना चाहिये | लेकिन सर्वसम्मत मान्यता यह है कि ग्यारहवें दिन नामकरण किया जाता है | किन्तु आवश्यक नहीं कि दसवें अथवा ग्यारहवें दिन ही नामकरण किया जाए – परिवार की रीति के अनुसार ही नामकरण के लिए मुहूर्त सिद्ध किया जाता है | नाम ऐसा हो जो सुगम और सुन्दर होने के साथ साथ मंगल, सामर्थ्य और धनवत्ता का द्योतक भी हो | कहा जाता है कि नाम अच्छा होने से गुण भी अच्छे होते हैं |
जब से मनुष्य ने भाषा की खोज की उसने दिन प्रतिदिन प्रयोग की जाने वस्तुओं को किसी न किसी नाम से पुकारना आरम्भ कर दिया | जैसे जैसे समाज जागरूक होता गया वैसे वैसे सभ्य भी होता गया | और इसी क्रम में नाम की महत्ता भी सभी को अनुभव होने लगी | और धीरे धीरे नामकरण को धार्मिक संस्कारों के साथ जोड़ दिया गया | बृहस्पति के अनुसार “नामाखिलस्य व्यवहारहेतु: शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतु: | नाम्नैव कीर्तिं लभते मनुष्य: तत: प्रशस्तं खलु नामकर्म ||” अर्थात समस्त व्यवहार का आरम्भ नाम से ही होता है | यही मनुष्य के लिये शुभदायक होता है, भाग्यदायक होता है | नाम से ही मनुष्य को प्रसिद्धि प्राप्त होती है | इसीलिये नामकरण संस्कार सबसे प्रमुख संस्कार है |
इस संस्कार का उदेश्य केवल शिशु को नाम भर देना नहीं है, अपितु उसे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर उच्च से उच्चतर मानव के रूप में विकसित करना भी है | चरक के अनुसार नाम ऐसे होने चाहियें जिनका कोई अर्थ हो, क्योंकि नाम का उद्देश्य केवल सम्बोधन भर देना नहीं था अपितु उस नाम के माध्यम से बालक के समक्ष उसके लिए एक लक्ष्य भी प्रतुत किया जाता था | नाम भी ऐसा होना चाहिए जो बोलने और सुनने में कठिन न हो, तथा कानों को अच्छा लगे |
आध्यात्मिक दृष्टि से “कः कतर: कतमः“ सिद्धान्त नामकरण का आधार होता था | अर्थात तुम कौन हो ? तुम ब्रह्मवत हो और सुख हो | तुम कौन-तर हो ? तुम ब्रह्मतर हो अर्थात ब्रह्म के गुण तुममें विद्यमान हैं | तुम कौन-तम हो ? तुम ब्रह्मतम हो अर्थात पूर्ण रूप से ब्रह्मस्वरूप ही हो | ब्रह्म का अर्थ होता है व्यापकत्व | इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से उस परब्रह्म के साथ – समग्र के साथ – सम्बन्ध जिस नाम से प्रतीत होता हो ऐसा नाम रखने की प्रथा उस समय थी | किन्तु सर्वमान्य धारणा यही थी कि नाम सुन्दर, कर्णप्रिय तथा बोलने में सरल होना चाहिए | साथ ही जातक के जन्म नक्षत्र के आधार पर नाम रखा जाता था |
इस प्रकार शिशु के जन्म एक पश्चात होने वाले संस्कारों में नामकरण संस्कार का विशेष महत्त्व था – वह भी ज्योतिषीय आधार पर नक्षत्र आदि की गणना करके – और तह महत्त्व आज भी है, और सदा रहेगा…