Guru Purnima

Guru Purnima

Guru Purnima

गुरु पूर्णिमा

मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका,

नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता च या ||

वास्तव में ऐसी श्रद्धा और प्रज्ञा से युत होती है गुरु की सत्ता – गुरु की प्रकृति – जो माता के सामान  ममत्व का भाव रखती है तो पिता के सामान उचित मार्गदर्शन भी करती है | आज गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व है – हमारे विचार से सभी पर्वों में सबसे उत्तम पर्व है गुरु पूर्णिमा का पर्व | क्योंकि गुरु अपने ज्ञान रूपी अमृत जल से शिष्य के व्यक्तित्व की नींव को सींच कर उसे दृढ़ता प्रदान करता है और उसका रक्षण तथा विकास करता है | तो सर्वप्रथम तो समस्त गुरुजनों को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ |

गुरुदेव स्वामी वेदभारती जी
गुरुदेव स्वामी वेदभारती जी

हमारे देश में पौराणिक काल से ही आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूजा के रूप में मनाया जाता है | इसी दिन पंचम वेद “महाभारत” के रचयिता कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास का जन्मदिन भी माना जाता है और इसीलिए इसे “व्यास पूर्णिमा” भी कहा जाता है | और महर्षि वेदव्यास को ही आदि गुरु भी माना जाता है इसीलिए व्यास पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा भी कहा जाता है | भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, पुराणों और उपपुराणों की रचना की, ऋषियों के अनुभवों को सरल बना कर व्यवस्थित किया, पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना की तथा विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का लेखन किया । इस सबसे प्रभावित होकर देवताओं ने महर्षि वेदव्यास को “गुरुदेव” की संज्ञा प्रदान की तथा उनका पूजन किया । तभी से व्यास पूर्णिमा को “गुरु पूर्णिमा” के रूप में मनाने की प्रथा चली आ रही है | बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के पाँच सप्ताह बाद भगवान बुद्ध ने भी सारनाथ पहुँच कर आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही अपने प्रथम पाँच शिष्यों को उपदेश दिया था | इसलिये बौद्ध धर्मावलम्बी भी इसी दिन गुरु पूजन का आयोजन करते हैं |

गुरुपूजा के अवसर पर न केवल गुरुओं का स्वागत सत्कार किया जाता था, बल्कि माता पिता तथा अन्य गुरुजनों की भी गुरु के समान ही पूजा अर्चना की जाती थी | वैसे भी व्यक्ति के प्रथम गुरु तो उसके माता पिता ही होते हैं |

प्रथम गुरु जननी जनक युगल
प्रथम गुरु जननी जनक युगल

आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से प्रायः वर्षा आरम्भ हो जाती है और उस समय तो चार चार महीनों तक इन्द्रदेव धरती पर अमृत रस बरसाते रहते थे | आवागमन के साधन इतने थे नहीं, इसलिए उन चार महीनों तक अर्थात चातुर्मास की अवधि में सभी ऋषि मुनि एक ही स्थान पर निवास करते थे | और इस प्रकार इन चार महीनों तक प्रतिदिन गुरु के सान्निध्य का सुअवसर शिष्य को प्राप्त हो जाता था और उसकी शिक्षा निरवरोध चलती रहती थी | क्योंकि विद्या अधिकाँश में गुरुमुखी होती थी, अर्थात लिखा हुआ पढ़कर कण्ठस्थ करने का विधान उस युग में नहीं था, बल्कि गुरु के मुख से सुनकर विद्या को ग्रहण किया जाता था | गुरु के मुख से सुनकर उस विद्या का व्यावहारिक पक्ष भी विद्यार्थियों को समझ आता था और वह विद्या जीवनपर्यन्त शिष्य को न केवल स्मरण रहती थी, बल्कि उसके जीवन का अभिन्न अंग ही बन जाया करती थी | इस समय मौसम भी अनुकूल होता था – न अधिक गर्मी न सर्दी | तो जिस प्रकार सूर्य से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता तथा फसल उपजाने की सामर्थ्य प्राप्त होती है उसी प्रकार गुरुचरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञानार्जन की सामर्थ्य प्राप्त होती थी और उनके व्यक्तित्व की नींव दृढ़ होती थी जो उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती थी |

तो, हम सभी समस्त गुरुजनों के चरणकमलों में सादर अभिवादन करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करें | जय गुरुदेव…..

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः

गुरुर्साक्षाद्परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः |

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानान्जन्शलाकया

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ||

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः |

अनेकजन्मसम्प्राप्तम कर्मबन्धविदाहिने

आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः ||

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधी साक्षिभूतम्

भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तन्नमामि ||