Ashtahnika Parva
अष्टाह्निक पर्व
आज से जैन समुदाय का फाल्गुन मास का अष्टाह्निक पर्व आरम्भ हो गया है | अष्टाह्निक पर्व वर्ष में तीन बार आते हैं – आषाढ़ मास में, कार्तिक मास में और फाल्गुन मास में | इन तीनों महीनों की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक आठ दिनों तक यह पर्व चलता है | क्योंकि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी का आरम्भ कल यानी गुरूवार को सूर्योदय से पूर्व चार बजकर चौबीस मिनट पर होगा, इसीलिए जैन पञ्चांग के अनुसार आज से अष्टाह्निक पर्व का आरम्भ हो रहा है | इस पर्व में श्रावक लोग प्रायः व्रत उपवास आदि रखकर सिद्धचक्र, नन्दीश्वर, कल्पद्रुम और इन्द्रध्वज आदि मण्डल विधानों का आयोजन करते हैं | मुख्य रूप से इस पर्व को ‘नन्दीश्वर पर्व’’ भी कहा जाता है क्योंकि मान्यता है कि सभी इन्द्रादि देवगण नन्दीश्वर द्वीप में जाकर वहाँ बावन जिनालयों की पूजा करते हैं | किन्तु नन्दीश्वर द्वीप मनुष्यों के लिए अगम्य होने के कारण अष्टाह्निक पर्व में पूजा उपासना के द्वारा उसका पुण्य प्राप्त करने के विधान किया जाता है |
सिद्धचक्र के रचयिता आचार्य पद्मकीर्ति कहे जाते हैं जिन्होंने श्रीपाल चरित्र में इसका उल्लेख किया है कि किस प्रकार मैना सुन्दरी ने अष्टाह्निक पर्व के दौरान इसकी विधिवत आराधना करके अपने पति सहित सात सौ कुष्ठ रोगियों को उनके रोग से मुक्ति दिलाई |
सिद्धचक्र का अर्थ ही है सिद्धों का समूह | जैन सम्प्रदाय में सिद्द्धों की आराधना पर विशेष बल दिया गया है “ॐ णमो सिद्धाणं” | सिद्धचक्र के माध्यम से समस्त सिद्धों को नमन किया जाता है | इस विधान के अन्तर्गत दो प्रकार से आराधना की जा सकती है – सर्वोत्तम उपासना अष्टदिवसीय मानी जाती है – जिसमें चार प्रकार के आहारों का त्याग करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए सिद्धों की आराधना की जाती है | किन्तु शारीरिक रूप से अक्षम लोग एकदिवसीय उपासना भी कर सकते हैं |
सिद्ध शब्द को मंगल का सूचक माना जाता है, इसीलिए प्रायः बहुत से जैन ग्रन्थों का आरम्भ सिद्ध शब्द से ही किया जाता है – जैसे आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी के जैनेन्द्र प्रक्रिया ग्रन्थ का आरम्भ होता है “सिद्धिरनेकान्तात्” कथन के साथ – जिसका अभिप्राय है अनेकान्त की धारणा को स्थापित करना – अनेकान्त से सिद्धि प्राप्त होती है | सिद्धान्त – जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है – जिन ग्रन्थों के अन्त में सिद्ध शब्द आता है उन्हें सिद्धान्त कहा जाता है | कोई भी विधान सिद्धान्त के बिना असम्भव है, इसीलिए कहा गया है : सिद्धानां कीर्तनादन्ते, य: सिद्धान्तप्रसिद्धवाक् |
सोSनाद्यनन्तसन्तान:, सिद्धान्तो नोSवताच्चिरम् ||
अर्थात, समस्त जीवों की आत्मा तो सिद्धान्ततः सिद्ध है, किन्तु व्यवहार से सभी मनुष्य संसारी हैं – क्योंकि परिवर्तन शील संसार में भ्रमण कर रहे हैं | जब तक व्यक्ति सिद्ध नहीं बन जाता तब तक उसे सिद्धों की आराधना करनी चाहिए ताकि मनुष्य उनके जैसा बन सके – ऐसी मान्यता है |
कर्माष्टकं विनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मी निकेतनं |
सम्यक्त्वादि गुणोपेतं सिद्धचक्र नमाभ्यहम् ||
अर्थात सिद्धचक्र विधान अष्टकर्मों से मुक्ति प्रदान करने वाला, मोक्ष लक्ष्मी का निकेतन तथा सम्यक गुणों से युक्त है, ऐसे सिद्ध चक्र को हम नमन करते हैं |