कार्तिकी पूर्णिमा – कुछ स्मृतियाँ
कल कार्तिकी पूर्णिमा, त्रिपुरारी पूर्णिमा, गुरु परब, प्रकाश परब और देव दीवाली के साथ ही तुलसी विवाह भी सम्पन्न हो गया और त्यौहारों तथा पर्वों का माह कार्तिक माह भी समाप्त होकर आज से मार्गशीर्ष मार्ग आरम्भ हो गया | अपने बचपन और युवावस्था की कुछ स्मृतियाँ कल दिन भर मन में घुमड़ती रहीं |
हमारे पितृ नगर नजीबाबाद से लगभग बारह किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है नागलसोती गाँव – जहाँ गंगा नदी प्रवाहित होती है और जहाँ हर वर्ष कार्तिक स्नान तथा गंगा दशहरा के अवसर पर पवित्र गंगा नदी में स्नान करने हेतु अपार जन समूह उमड़ उठता था – “था” इसलिए क्योंकि आज वहाँ क्या स्थिति होगी इसका भान नहीं |
पूर्णिमा से एक दिन पूर्व ही लोगों का भैंसा बुग्गी और बसों से वहाँ पहुँचना आरम्भ हो
जाता था जो | कुछ लोग अपने निजी वाहनों – जो उस समय कुछेक लोगों के पास ही
हुआ करते थे – से जाया करते थे और अपने परिवार तथा अपने मित्रगणों के लिए व्यक्तिगत टेंट किराए पर लिया करते थे | हमारे पिताजी और चाचा लोग भी सपरिवार ठहरने के लिए पहले से ही बड़ा सा टेंट बुक कर लिया करते थे और गंगा स्नान से एक दिन पूर्व दल बल के साथ पहुँच जाया करते थे मेले का आनन्द लेने तथा गंगा में स्नान के लिए | मेला आयोजन समिति की ओर से गंगा के बड़े से रेतीले पठार पर कुकुरमुत्तों (मशरूम्स) की भाँति छोटे बड़े टेंट उगा दिए जाते थे जहाँ लोग विश्राम करते थे, खाते पीते थे और मेले का आनन्द लेते थे | यानी तम्बुओं का एक शहर बस जाया करता था |
कहीं मेला आयोजकों की ओर से तो कहीं कुछ विशिष्ट व्यक्तियों अथवा परिवारों की ओर से हलवाइयों की भट्टियाँ भी लग जाया करती थीं जहाँ वे लोग भण्डारे के लिए ताज़ी ताज़ी जलेबी, उड़द की दाल की खिचड़ी और कद्दू की खट्टी मीठी सब्ज़ी के साथ उड़द की डाल की पिट्ठी की कचौरियाँ बनाने में तत्पर रहते थे | साथ में होता था मीठी सुगन्ध फैलाता देसी घी, बथुए का रायता, गाजर मूली का लच्छा, आम का खट्टा अचार और मूँग-उड़द दाल के पापड़ | हमारे टेंट के बाहर भी एक बड़ी सी भट्टी रहती थी जो हमारे साथ ही गए सुन्दरलाल ताऊ जी (हलवाई) लगवाया करते थे और वहाँ भी इसी प्रकार का भण्डारा दो दिन लगातार चलता रहता था | श्रद्धालुजन गंगा में स्नान करके आते और उन्हें ये समस्त भोज्य पदार्थ प्रसादस्वरूप वितरित किया जाता तो उनके मुखमण्डल पर अपार तृप्ति की आभा दीख पड़ती |
इधर ये सारा कार्यक्रम चलता रहता और उधर बड़े खाली पड़े मैदान में तरह तरह के खेलों का, कुश्ती आदि पहलवानी के करतबों का और जादू के खेल आदि का भी
कार्यक्रम चलता रहता था | हमारे पिताजी श्री यमुना प्रसाद कात्यायन अध्यापक होने के साथ ही एक पहलवान भी थे तो वे भी दो दो हाथ दिखाने में पीछे नहीं रहते थे | इसके अतिरिक्त बच्चों के लिए हिण्डोले गढ़े होते थे जिन पर दो तरफ दो लड़के खड़े होकर उन्हें चलाते थे | छोटे मोटे सामानों को दुकानें सजी होती थीं – जिनमें गंगाजली और इलायचीदाने-मुरमुरे के पैकेट्स के साथ ही स्त्रियों के श्रृंगार की सामग्रियाँ, पुरुषों के लिए रुमाल मफलर बटुए इत्यादि और बच्चों के लिए कपड़े तथा खेल खिलौने आदि रखे होते थे | सामान बेचने वाले तरह के गीत गा गाकर विशेष रूप से बच्चों को अपनी दुकानों की ओर आकर्षित करते थे |
किसी दूसरी ओर ढोल ताशे बजते रहते थे और ग्रामीण अंचलों से आए पुरुष स्त्रियाँ गंगा मैया की आरती के साथ ही राम कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित लोकगीत झूम झूम कर गाते रहते थे | कहीं मदारी का तमाशा चल रहा होता था | यानी अच्छा ख़ासा मेला भरा करता था | अत्यन्त ही उल्लासमय वातावरण हुआ करता था | किसी बड़े व्यक्ति के साथ हम बच्चे इकट्ठा होकर मेला घूमने निकल जाते थे |
दोपहर बाद तक यही सारे कार्यक्रम चलते रहते थे और शाम को दूध जलेबी के प्रसाद वितरण के साथ मेला सम्पन्न हो जाया करता था और रात तक हर कोई अपने अपने घर पहुँच जाता था – मेले की उल्लासपूर्ण और भावभीनी यादें दिल में सँजोए – पुनः अगले वर्ष वहाँ जाने का स्वप्न आँखों में सजाए…
आज किसी के पास समय नहीं इस प्रकार के मिट्टी से जुड़े मेलों के आयोजनों का | मेले आज भी आयोजित किये जाते हैं, लेकिन सरकारी या ग़ैर सरकारी संस्थाएँ उन्हें एक नुमाइश का रूप दे देती हैं – छोटी बड़ी सेलिब्रिटीज़ इन मेलों की शोभा बढ़ाती हैं… आकर्षक जगमग करते स्टाल्स, मनलुभावने नृत्य गान आदि के कार्यक्रम, लेकिन वो पहले सी सादगी अब नहीं दीख पड़ती ऐसे किसी भी मेले में…