Spirituality and the Treatment of Mind
अध्यात्म और मनश्चिकित्सा
अर्जुन ने जब दोनों सेनाओं में अपने ही प्रियजनों को आमने सामने खड़े देखा तो उनकी मृत्यु से भयाक्रान्त हो श्री कृष्ण की शरण पहुँचे “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् |” तब भगवान ने सर्वप्रथम एक कुशल वैद्य और मनोवैज्ञानिक की भाँति उनके मन से मृत्यु का भय दूर किया | मृत्यु को अवश्यम्भावी, देह को असत् तथा आत्मा को सत् बताते हुए अर्जुन को लोकमर्यादानुसार धर्ममार्ग पर चलते हुए लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग बताया | उनका लक्ष्य उन्हें बताया | अर्जुन को अभी भी संशय था कि भीष्म और द्रोण जैसे गुरुजनों के साथ युद्ध करना धर्मविरुद्ध होगा | इस संशय को दूर करने के लिये ही कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि आत्मा अकर्ता है | और जब आत्मा अकर्ता है तो उसके मरने, मारने, जलने, गलने जैसी क्रियाएँ हो ही नहीं सकतीं | ये सब तो स्थूल शरीर के धर्म हैं | और यदि आत्मा को लोकप्रसिद्धि के अनुसार अनेक शरीरों की उत्पत्ति और विनाश के साथ साथ उत्पन्न और नष्ट होता हुआ मान भी लें तो भी इस विषय में शोक करना उचित नहीं, क्योंकि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मर चुका है उसका पुनर्जन्म निश्चित है | अतः युद्ध करना धर्मसंगत है | और क्षत्रिय का तो धर्म ही युद्ध करना है | यदि तू युद्ध किये बिना ही पीछे हट गया तो तिरस्कार और दया का पात्र होगा | युद्ध करते करते यदि वीरगति को प्राप्त हुआ तो स्वर्ग में जाएगा और सौभाग्य से यदि जीत गया तो पृथिवी का भोग करेगा | वैसे भी तेरा अधिकार कर्म करने में है न कि कर्मफल में | इस प्रकार अर्जुन के मन से मृत्यु का भय दूर करने के लिये आत्मा के विषय में बताकर उसके मन में ज्ञान का बीजारोपण किया | क्योंकि डाक्टर या वैद्य का एक कर्तव्य यह भी है कि यदि मरीज़ के मन में उसकी बीमारी को लेकर किसी प्रकार का भ्रम है तो उस भ्रम को दूर करने के लिये वह मरीज़ को हर बात की सही सही जानकारी दे | और यही कार्य भगवान ने किया |
जब जब भी इस प्रकार के संशय की स्थिति आती है कि व्यक्ति को कर्म अकर्म का ज्ञान नहीं रहता तब तब श्रीकृष्ण जैसे ही किसी मनश्चिकित्सक की आवश्यकता होती है | रामचरितमानस में एक प्रसंग आता है कि जामवंत, हनुमान, अंगद आदि वानर सेना के साथ माता सीता का पता लगाने जाते हैं | बहुत समय व्यतीत हो जाता है किन्तु वे अपने कार्य में सफल नही हो पाते | सब सोचते हैं कि कार्य पूर्ण किये बिना यदि वापस गए तो सुग्रीव हमें जीवित नहीं छोड़ेंगे, और यदि यहाँ पड़े रहे तो वैसे ही भूख प्यास से हम सब मारे जाएँगे | क्या करें क्या न करें | वही किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति | तभी जटायु का भाई सम्पाति वहाँ आता है और बताता है कि माता सीता को रावण ने अशोक वाटिका में बंदी बनाकर रखा हुआ है | मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ, किन्तु तुम लोगों को राम का यह कार्य अवश्य करना चाहिये | वानर शत योजन सागर पार करके लंका जाने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहे थे | जामवन्त को लगता था कि वे बूढ़े हो चुके हैं | अंगद और हनुमान भी सशंकित थे कि वे लोग सम्भवतः लंका नहीं जा पाएँगे | अपना बल ही वे भूल चुके थे | तब जामवन्त ने कहा :
“पवन तनय, बल पवन समाना, बुद्धि बिबेक बिग्यान निधाना |
कवन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होत तात तुम्ह पाहीं |
राम काज लगि तव अवतारा, सुनतहिं भयऊ पर्वताकारा ||” – किष्किन्धाकाण्ड
“हनुमान तुम चुप क्यों बैठे हो ? तुम्हारा बल तो पवन के समान है | बुद्धि, विवेक और विज्ञान के तुम निधान हो | संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जो तुम कर न सको | तुम्हारा तो जन्म ही भगवान के कार्य के लिये हुआ है |” इतना सुनकर हनुमान को अपनी शक्ति का ज्ञान हुआ और बोले “यदि ऐसा है तो मैं अभी जाता हूँ और सीता को देखकर वापस आता हूँ | कार्य पूर्ण होने पर मुझे भी हर्ष होगा – जब लगि आवौं सीतहि देखी, होहहि काजु मोहि हरष विसेषी – सुन्दरकाण्ड…” और वे तुरंत पर्वताकार होकर लंका की ओर चल दिये | इस प्रकार हनुमान के संशय को जामवंत ने दूर किया |
अर्जुन के साथ भी यही स्थिति थी | उन्हें भी मोहवश अपने लक्ष्य का भान नहीं रहा था | वही उन्हें बताना था | इसीलिये उन्होंने कहा कि समस्त कामनाओं का त्याग करके कर्तव्य कर्म करो | ज्ञानी व्यक्ति का यही लक्षण है | अर्जुन ने फिर संशय किया कि यदि ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर आप मुझे हिंसा जैसे क्रूर कर्म में क्यों लगाते हैं ? भगवान ने उत्तर दिया कि तुम्हारा कर्तव्य कर्म युद्ध ही है | तीनों लोकों में मेरा तो कोई कर्तव्य कर्म नहीं है, फिर भी मैं कर्म करता हूँ | यदि मैं ऐसा नहीं करूँगा तो लोक मर्यादा का उल्लंघन होगा |
संशय अभी ही दूर नहीं हुआ था | अतः बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होने की प्रक्रिया आरम्भ हुई | अर्थात् सूक्ष्म मनोविज्ञान | सर्वप्रथम अर्जुन को भगवान ने विराट स्वरूप के दर्शन कराए | युद्ध में मरने वाले लोगों का समूह दिखाया | ताकि अर्जुन सोचने को विवश हो जाएँ कि यह युद्ध तथा यह जनहानि अवश्यम्भावी है | अतः धर्म की रक्षा हेतु युद्ध के लिये तत्पर होना ही पड़ेगा | प्रश्न मात्र राज्य प्राप्ति का ही नहीं था | प्रश्न था कि कायरतापूर्वक अन्याय तथा अत्याचार होते देखते रहना क्या उचित है ? अर्जुन सोचने को विवश तो हुए, किन्तु ऊहापोह की स्थिति फिर भी बनी ही रही | अतः भगवान ने एक लीला रची | भगवान ने सोचा अभी पूरा झटका नहीं लगा है | अतः एक दिन जब अर्जुन का रथ लेकर कहीं दूर गए हुए थे तो उनके पीछे कौरवों ने चक्रव्यूह का निर्माण कर दिया | उनकी योजना युधिष्ठिर को बन्दी बनाने की थी | क्योंकि अर्जुन के अतिरिक्त उनके किसी भाई अथवा उनकी सेना के किसी व्यक्ति को चक्रव्यूह का भेदन नहीं आता था | अर्जुन के सोलह वर्ष के पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदन तो आता था, किन्तु उससे बाहर निकलना नहीं आता था | कारण था कि अभिमन्यु जब सुभद्रा के गर्भ में थे तब अर्जुन ने सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदन की विधि बताई थी, किन्तु सुनते सुनते सुभद्रा को नींद आ गई थी और उससे बाहर निकलने की विधि वे नहीं सुन पाई थीं | इसलिये अभिमन्यु बस चक्रव्यूह भेदना ही जानते थे | किन्तु उस समय उन्हें युद्ध में भेजने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था | अभिमन्यु बड़ी वीरता से लड़े | उनका सारथि मारा गया | रथ टूट गया | सारे अस्त्र समाप्त हो गए तो उन्होंने टूटे हुए रथ के पहिये को ही अपना अस्त्र बना लिया | किन्तु अंत में वह भी टूट गया और निहत्थे अभिमन्यु को कौरव सेना ने घेर कर मार डाला | सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि भीष्म और द्रोण जैसे गुरुजन – जिन पर अर्जुन को अगाध श्रद्धा थी और जिन्हें वे धर्म तथा मर्यादा के रक्षक समझते थे तथा जिनके कारण ही वे युद्ध से विमुख हो रहे थे – चुपचाप ये सब अनाचार होते देखते रहे थे | अंततः अर्जुन का इन दोनों गुरुजनों पर से भी विश्वास उठ गया और वे युद्ध के लिये तत्पर हो गए और उन्होंने सूर्यास्त से पूर्व ही चक्रव्यूह का निर्माण करने वाले जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा कर ली और कृष्ण की सहायता से उसमें वे सफल भी हुए |
इस प्रकार धीरे धीरे अर्जुन के मन का संशय तथा परिजनों की मृत्यु का भय दूर करके उन्हें युद्ध के लिये कटिबद्ध किया गया | जयद्रथ वध के समान ही महाभारत युद्ध में अनेक बार कृष्ण ने छल का सहारा लिया | जैसे “अश्वत्थामा मृतः” के शोर से शत्रुसेना में भगदड़ मचवा दी | भीष्म के सामने शिखण्डी को खड़ा कर दिया – इत्यादि इत्यादि…
कारण ? रोग को दूर करने के लिये कभी कभी कड़वी दवा भी देनी पड़ती है |