देव प्रबोधिनी एकादशी और तुलसी विवाह

देव प्रबोधिनी एकादशी और तुलसी विवाह

देव प्रबोधिनी एकादशी और तुलसी विवाह

हिन्दू धर्म में एकादशी तिथि का विशेष महत्त्व है | पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशी होती है, और अधिमास हो जाने पर ये छब्बीस हो जाती हैं | इनमें से आषाढ़ शुक्ल एकादशी को जब सूर्य मिथुन राशि में संचार करता है तब उसे देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है | इस एकादशी को पद्मनाभा भी कहा जाता है | तथा उसके लगभग चार माह बाद सूर्य के तुला राशि में आ जाने पर आने वाली कार्तिक शुक्ल एकादशी देव प्रबोधिनी या देवोत्थान एकादशी के नाम से जानी जाती है | इस समय सूर्य तुला राशि में ही चल रहा है तथा आज से छह दिनों के बाद रविवार 14 नवम्बर को सूर्योदय से पूर्व 5:49 के लगभग वणिज करण और हर्षण योग तथा तुला लग्न में एकादशी तिथि का आगमन हो रहा है, जो 15 नवम्बर को सूर्योदय से पूर्व 6:39 पर समाप्त हो जाएगी और उसके बाद द्वादशी तिथि आ जाएगी जो सोलह नवम्बर को प्रातः आठ बजकर एक मिनट के लगभग समाप्त होगी | अतः स्मार्तों का देव प्रबोधिनी एकादशी का व्रत चौदह नवम्बर को ही रखा जाएगा | वैष्णवों के लिए क्योंकि द्वादशी में व्रत का पारायण करना श्रेष्ठ माना जाता है इसलिए वे लोग पन्द्रह नवम्बर को व्रत रखकर सोलह नवम्बर को प्रातः सूर्योदय के समय 6:44 से 8:01 के मध्य व्रत का पारायण करेंगे | सोलह नवम्बर को ही प्रदोष व्रत भी है |

इसी दिन तुलसी विवाह का कार्यक्रम भी आरम्भ हो जाएगा जो कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा यानी बारह नवम्बर को सम्पन्न होगा | आँवला, वट वृक्ष, पीपल के वृक्ष तथा

तुलसी विवाह
तुलसी विवाह

तुलसी आदि की पूजा केवल धार्मिक रीति रिवाज़ भर ही नहीं हैं अपितु इनके माध्यम से प्रकृति के प्रति सम्मान और प्रेम की भावना में वृद्धि के निमित्त इन पर्वों का आयोजन वैदिक सभ्यता का प्रमुख अंग रहा है | वृक्षों की पूजा अर्चना करने के बाद अथवा तुलसी विवाह के जैसे धार्मिक व्यवहार करने के बाद वृक्षों को किसी भी प्रकार कष्ट पहुँचाने का कोई प्रयास भी नहीं कर सकेगा – मूलभूत भावना यही थी इन पर्वों के आयोजन के पीछे |

भारतीय संस्कृति में व्रत उपवासादि का विधान पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर मौसम और प्रकृति को ध्यान में रखकर किया गया है | चातुर्मास अर्थात आषाढ़ शुक्ल एकादशी से लेकर श्रावण, भाद्रपद, आश्विन तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार महीने वर्षा के माने जाते हैं | भारत कृषि प्रधान देश है इसलिए वर्षा के ये चार महीने कृषि के लिए बहुत उत्तम माने गए हैं | किसान विवाह आदि समस्त सामाजिक उत्तरदायित्वों से मुक्त रहकर इस अवधि में पूर्ण मनोयोग से कृषि कार्य कर सकता था | आवागमन के साधन भी उन दिनों इतने अच्छे नहीं थे | साथ ही चौमासे के कारण सूर्य चन्द्र से प्राप्त होने वाली ऊर्जा भी मन्द हो जाने से जीवों की पाचक अग्नि भी मन्द पड़ जाती है | अस्तु, इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए जो व्यक्ति इन चार महीनों में जहाँ होता था वहीं रहकर अध्ययन अध्यापन करते हुए आध्यात्मिक उन्नति का प्रयास करता था तथा खान पान पर नियन्त्रण रखता था ताकि पाचन तन्त्र उचित रूप से कार्य कर सके | और वर्षा ऋतु बीत जाते ही देव प्रबोधिनी एकादशी से समस्त कार्य पूर्ववत आरम्भ हो जाते थे |

सुप्तेत्वयिजगन्नाथ जगत्सुप्तंभवेदिदम् ।

विबुद्धेत्वयिबुध्येतजगत्सर्वचराचरम् ॥

हे जगन्नाथ ! आपके सो जाने पर यह सारा जगत सो जाता है तथा आपके जागने पर समस्त चराचर पुनः जागृत हो जाता है तथा फिर से इसके समस्त कर्म पूर्ववत आरम्भ हो जाते हैं…

इस दिन केरल में गुरुवयूर मन्दिर में इस दिन विशेष अर्चना की जाती है तथा इसे गुरुवयूर एकादशी के नाम से ही जाना जाता है | कुछ स्थानों पर इसे योगेश्वर अथवा रुक्मिणी द्वादशी भी कहा जाता है और विष्णु भगवान् के कृष्ण रूप की उपासना उनकी पटरानी रुक्मिणी देवी के साथ की जाती है | ऐसा इसलिए क्योंकि रुक्मिणी वास्तव में प्रेम-भक्ति और समर्पण का एक अद्भुत सामन्जस्य थीं | कृष्ण को देखना तो दूर उनसे मिली तक नहीं थीं, केवल उनके विषय में सुन भर रखा था और इतने से ही उनके लिए मन में प्रेम बसा लिया, और प्रेम भी इतना प्रगाढ़ कि उनके प्रति मन ही मन पूर्ण रूप से समर्पित हो गईं – पूर्ण रूप से प्रेम मिश्रित भक्ति भाव का समर्पण था यह | सम्भवतः इसीलिए कुछ स्थानों पर भगवान् श्री कृष्ण के साथ उनकी पट्टमहिषी रुक्मिणी की पूजा भी की जाती है |

कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक की पाँच तिथियाँ भीष्म पंचक के नाम से भी जानी जाती हैं | मान्यता है कि जब महाभारत युद्ध के बाद पाण्डवों की जीत हो गयी, तब श्रीकृष्ण पाण्डवों को भीष्म पितामह के पास ले गये और उनसे अनुरोध किया कि वह पाण्डवों को ज्ञान प्रदान करें | शर शैया पर लेटे हुए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे भीष्म ने कृष्ण के अनुरोध पर कृष्ण सहित पाण्डवों को राज धर्म, वर्ण धर्म एवं मोक्ष धर्म का ज्ञान दिया | भीष्म द्वारा ज्ञान देने का क्रम एकादशी से लेकर पूर्णिमा तिथि तक पाँच तक चलता रहा | भीष्म जब ज्ञान दे चुके तब श्रीकृष्ण ने कहा कि “आपने जिन पाँच दिनों में ज्ञान दिया है ये दिन आज से सबके लिए मंगलकारी रहेंगे तथा इन्हें ‘भीष्म पंचक’ के नाम से जाना जाएगा |” इन्हें “पंच भिखा” भी कहा जाता है |

अस्तु, देव प्रबोधिनी एकादशी तथा तुलसी विवाह के महत्त्व के समझते हुए हम सभी के मनों में प्रकृति के प्रति सम्मान के भाव में वृद्धि हो इसी भावना के साथ सभी को इन दोनों पर्वों की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ…