तिथि – पञ्चांग का दूसरा अवयव

तिथि – पञ्चांग का दूसरा अवयव

तिथि – पञ्चांग का दूसरा अवयव

नमस्कार मित्रों ! जैसा कि आपको विदित ही है, हमने पञ्चांग के पाँच अवयवों – दिन और तिथि, मास, नक्षत्र, करण और योग के विषय में श्रृंखला आरम्भ की थी – पर्वों के आने के कारण जिसे आगे नहीं बढ़ा पाए | जैसा कि पहले बताया, पञ्चांग का प्रथम अंग है दिन अथवा वार, जिसके विषय में हम पहले ही लिख चुके हैं | अब दूसरा अंग – तिथि…

जिस प्रकार अंग्रेज़ी महीनों की 28, 29, 30 अथवा 31 तारीख़ें होती हैं, उसी प्रकार भारतीय वैदिक ज्योतिष के अनुसार हिन्दू काल गणना के क्रम में एक माह में 30 तिथियाँ होती हैं जो दो पक्षों में बंटी होती हैं – शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष | चन्द्र मास शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर कृष्ण अमावस्या तक रहता है और इस प्रकार अमावस्या माह की अन्तिम तिथि हो जाती है – जिसे “नवीन चन्द्रोदय” अथवा New Moon Day भी कहा जाता है | माह की पन्द्रहवीं तिथि पूर्णिमा कहलाती है जिसे Full Moon Day भी कहते हैं | ये अमान्त चान्द्र मास कहलाता है | जो चान्द्र मास कृष्ण प्रतिपदा से आरम्भ होकर पूर्णिमा को समाप्त होता है वह “पूर्णिमान्त” चान्द्र मास कहलाता है | यहाँ अमावस्या माह की पन्द्रहवीं तिथि हो जाती है और पूर्णिमा तीसवीं अर्थात अन्तिम तिथि | अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र का भोग्यांश लगभग बराबर होता है | इस भोग्यांश के घटने बढ़ने से ही तिथि की गणना होती है | उदाहरण के लिए अभी चार नवम्बर यानी कार्तिक अमावस्या – दीपावली – का यदि पञ्चांग देखेंगे तो पाएँगे कि तिथि के आरम्भ के समय प्रातः 6:03:27 पर सूर्य और चन्द्र दोनों का भोग्यांश 38:56 है तथा मार्गशीर्ष अमावस्या यानी शुक्रवार तीन दिसम्बर को तिथि के आरम्भ के समय सायं 4:55:51 पर सूर्य और चन्द्र दोनों का भोग्यांश 21:03 होगा |

हमारे समस्त पर्व और त्यौहार तथा बहुत से रीति रिवाज़ इन्हीं तिथियों पर आधारित होते हैं | इसका कारण सम्भवतः यह है कि जिस तिथि का जो देवता है उस तिथि को उसी देवता की पूजा की जाए |

ये सभी तिथियाँ पाँच वर्गों में विभक्त हैं – नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा | जैसा कि इनके नामों से ही ध्वनित होता है – नन्दा अर्थात आनन्ददायक, भद्रा अर्थात शुभ – किसी भी नवीन कार्य के आरम्भ के लिए जो शुभ हो, जया अर्थात विजय प्रदान करने वाली, रिक्ता अर्थात शून्या – किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए जो शुभ न हो, तथा पूर्णा – सिद्धि प्रदान करने वाली | क्योंकि दोनों पक्षों में पन्द्रह पन्द्रह तिथियाँ हैं अतः इन पाँचों तिथियों के तीन चक्र प्रत्येक पक्ष में होते हैं, जो इस प्रकार हैं:-

प्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशी नन्दा तिथियाँ होती हैं | द्वितीया, सप्तमी तथा द्वादशी भद्रा कहलाती हैं | तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी जया तिथियाँ कही जाती हैं | चतुर्थी, नवमी तथा चतुर्दशी को रिक्ता तिथियाँ माना गया है | तथा पंचमी, दशमी, पूर्णिमा और अमावस्या को पूर्णा तिथियाँ कहा गया है | इनमें भी नवमी तिथि ऐसी तिथि मानी गई है जिसमें रिक्ता तिथि होते हुए भी कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है |

हमारे सभी व्रतोत्सव तिथियों के अनुसार ही होते हैं | इसका प्रमुख कारण यह है कि प्रत्येक व्रत अथवा पर्व में किसी विशेष देवी अथवा देवता की पूजा अर्चना की जाती है | जिस तिथि के जो अधिपति देवता होते हैं वह तिथि उन्हीं के लिए समर्पित होती है | प्रतिपदा को अग्नि आदि देवताओं की पूजा का विधान है | द्वितीया को प्रजापति का व्रत किया जाता है | तृतीया की अधिपति माता पार्वती को माना गया है | चतुर्थी समर्पित है विघ्न विनाशक भगवान गणपति के लिए | पंचमी नाग देवता के लिए समर्पित है | षष्ठी तिथि को स्वामी कार्तिकेय तथा कात्यायनी देवी की पूजा का विधान है | सप्तमी के देवता चित्रभानु नामक सूर्य माने गए हैं | माँ दुर्गा तथा रूद्र की पूजा अष्टमी को की जाती है | नवमी का देवता नागों के देवता गोगा को माना गया है | दशमी के देवता माने गए हैं यमराज | एकादशी भगवान विष्णु तथा विश्वेदेव के लिए समर्पित है | भगवान विष्णु के वामनावतार की पूजा द्वादशी तिथि को की जाती है | त्रयोदशी को औघड़दानी भगवान शिव की उनके परिवार सहित पूजा उपासना की जाती है | चतुर्दशी को कामदेव और भगवान शंकर की पूजा अर्चना का विधान है | अमावस्या को पितृगणों की पूजा का विधान है | और पूर्णिमा समर्पित है चन्द्रदेव को | इस प्रकार सभी तिथियाँ किसी न किसी देवता के लिए समर्पित हैं |

अन्त में बस इतना ही कि यदि कर्म करते हुए भी सफलता नहीं प्राप्त हो रही हो तो ज्योतिषी के पास दिशानिर्देश के लिए अवश्य जाइए, किन्तु अपने कर्म और प्रयासों के प्रति निष्ठावान रहे तथा जीव मात्र और प्रकृति के प्रति उदारता का भाव रखते हुए हम सभी पूर्ण निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य कर्मों को करते रहें ताकि प्रगतिशीलता बनी रहे…