व्रत पर्व एवम् उत्सव संस्कृति के संरक्षक

व्रत पर्व एवम् उत्सव संस्कृति के संरक्षक

व्रत पर्व एवम् उत्सव संस्कृति के संरक्षक

नमस्कार मित्रों ! अभी दो तीन पूर्व एक वेबिनार में अपना लेख पढ़ने के लिए आमन्त्रित किया गया था – कार्याधिक्य के कारण जिसमें उपस्थित नहीं हो सके और आयोजकों से क्षमा माँग ली | किन्तु विषय वास्तव में मन को भा गया और उस पर लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पाए… जो प्रस्तुत है…

विषय था – सभी व्रतोत्सव पर्व संस्कृति के संरक्षक हैं… जो वास्तव में सत्य है | न केवल भारतीय संस्कृति में बल्कि प्रत्येक संस्कृति में पर्वों और उत्सवों का – मेलों आदि का विशेष महत्त्व होता है | भारतीय संस्कृति में इन पर्वों और उत्सवों एक साथ व्रत उपवास आदि को भी सम्मिलित करके हमारे मनीषियों ने मानव के सर्वांगीण विकास की दिशा में बहुत बड़ा योगदान दिया है | सभी व्रतोत्सव पर्व आदि किन्हीं विशिष्ट जीवन मूल्यों को ध्यान में रखकर – किन्हीं विशिष्ट विचारों को ध्यान में रखकर ही आयोजित किये जाते हैं | वास्तव में उत्सव पर्व त्यौहार व्रत आदि का अर्थ इनकी निरुक्ति में ही उपलब्ध हो जाता है | उत्सव शब्द की निष्पत्ति उत् उपसर्ग पूर्वक सु धातु में अप् प्रत्यय लगाकर हुई है | सु धातु जन्म देने, प्रेरित करने, परिशोधन करने, उत्तेजित करने आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होती है | इस प्रकार उत्सव शब्द का अर्थ हो गया किसी का जन्म, किसी उत्साह वर्धक कार्य के लिए प्रेरित करना, समस्त इन्द्रियों को संशोधित करना, उल्लास और उमंग के साथ समय व्यतीत करना, सुख, प्रसन्नता, आनन्द आदि | पर्व शब्द पर्व धातु में अच् प्रत्यय लगाकर बना है जिसका अर्थ होता है गाँठ युक्त, जुड़ा हुआ, भरा हुआ इत्यादि | स्त्री पुरुष जब तक विवाह बन्धन में नहीं बंध जाते तब तक अपूर्ण माने जाते हैं | विवाह बन्धन की गाँठ लग जाने पर दोनों साथ मिलकर द्वैत की गाँठ से जीवन मरण को मुक्त करके जीवन यात्रा को सरल और सुखपूर्ण बनाने का प्रयास करते हैं | व्रत शब्द वृ धातु में अतच प्रत्यय लगाकर बना है | जिसका अर्थ है वरण करना, स्वीकार करना, समर्पण करना | त्यौहार शब्द तिथिवार का अपभ्रंश रूप कहा जा सकता है | उत्सव, पर्व, व्रतादि कार्यों में तिथि और वार आदि का विशेष योगदान हुआ करता है |

तो ये तो थी उत्सव, पर्व, व्रत और त्यौहार शब्दों की उत्पत्ति किस प्रकार से हुई | अब इस सबमें सबसे पहले यदि हम ध्यान देंगे तो पाएँगे कि प्रायः सभी व्रतोत्सव और पर्व आदि ऋतुओं के परिवर्तन को ध्यान में रखकर आयोजित किये जाते हैं | भारतीय संस्कृति सदा से प्रकृति और पर्यावरण के प्रति जागरूक रही है | कृषि प्रधान देश होने के कारण हर ऋतु का मानव जीवन में अपना एक विशेष स्थान होता है जिसका हरेक मन उत्सव मनाता है | इन पर्वों को भी हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं – जैसे प्रथम वर्ग उन पर्वों और त्यौहारों का है जिनका उद्देश्य है भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों और मूलभूत विचारों की रक्षा करना तथा भारतीय जीवन दर्शन को किसी न किसी रूप में प्रतिपादित करना है – जैसे होली, दीपावली, वसन्त पञ्चमी, रक्षा बन्धन, संक्रान्ति और दशलाक्षण आदि इसी प्रकार के पर्व हैं | द्वितीय वर्ग उन पर्व और त्यौहारों का है जो किन्हीं महापुरुषों की जयन्ती के रूप में मनाए जाते हैं – जैसे – श्री कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, भीष्म पञ्चमी, हनुमान जयन्ती इत्यादि | इनमें होली, वसन्त, विजया दशमी, दीपावली आदि पर्व ऋतु परिवर्तन के भी पर्व हैं |

वसन्त पञ्चमी को तो एक प्रकार से भारतीय “वेलेंटाईन डे” ही कह सकते हैं – जब हर कोई वासन्ती रंग में रंगा प्रेम के रस में डूब डूब जाता है | हमें याद है किस प्रकार से वसन्त से कुछ दिन पूर्व से ही हलचल आरम्भ हो जाया करती थी और लगभग हर घर में नए सफ़ेद कपडे हर किसी के लिए बनवाए जाते थे और फिर उन्हें वासन्ती रंग में रंगा जाता था | अब देखिये, वासन्ती रंग का कपड़ा लेकर भी सिलवाया जा सकता था – क्या आवश्यकता थी सफ़ेद नए वस्त्रों को वासन्ती रंग में रंगने की ? केवल इसलिए कि पूर्ण उत्साह और उमंग के साथ स्वागत करना होता था ऋतुराज वसन्त की मादकता का | वसन्त ऋतु – जो समस्त प्रकृति के लिए मोहक ऋतु है और इस ऋतु में मनुष्य का स्वास्थ्य भी प्रायः ठीक ही रहता है |

इन सभी पर्वों में जो मुख्य तत्व है वो है व्यस्त जीवन की एकरसता से कुछ समय के लिए अवकाश प्राप्त करके उत्साह उमंग के रस में डूब जाना | होली को ही ले लीजिये | यह पर्व गेहूँ और चने की नवीन फसल के स्वागत का पर्व है, ग्रीष्म के आगमन का सूचक है | ऊँच नीच, अमीर गरीब, जाति वर्ण, शत्रु मित्र, सम्प्रदाय सबका भेद भुलाकर उत्साह के साथ हर कोई गले मिलकर टेसू के गुनगुने सुगन्धित रंगों और अबीर गुलाल की बौछार एक दूसरे पर करता है | कितना मस्ती भरा वातावरण होता है | पारस्परिक मन मुटाव और वैमनस्य को भुलाकर विशुद्ध प्रेम की गंगा बहा दी जाती है | होलिका दहन भी एक प्रकार का यज्ञ का ही रूप है जिसमें सभी नागरिक पारस्परिक भेद भाव को भुलाकर छोटे छोटे यज्ञों का आयोजन करते हैं और मिल बैठकर गीत संगीत का आनन्द लेते हैं | यज्ञों से वातावरण न केवल सुगन्धित होता है बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी यज्ञाग्नि उत्तम मानी जाती है | साथ ही होलिका दहन प्रतीक है इस तथ्य का कि यदि प्रगति पथ पर अग्रसर रहना है तो क्रोध, वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ इत्यादि सभी प्रकार के दुर्भावों की होलिका का दहन करना अत्यन्त आवश्यक है |

हरियाली तीज ऋतु पर्व है जब हम सावन की रुत का पूरी मस्ती में भरकर स्वागत करते हैं | साथ ही यह पर्व हमें पर्यावरण के प्रति भी सचेत करता है | इसी तरह लोहड़ी, बैसाखी, पोंगल, ओणम इत्यादि सभी ऋतु पर्व हैं – तो निर्जला एकादशी, वट सावित्री पूजा, तुलसी विवाह, आमलकी एकादशी – ऐसे बहुत से व्रतोत्सव हैं जो हमें पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक करते हैं | गुरु पूर्णिमा – जिसका आधार ही है गुरुजनों के प्रति सम्मान की – श्रद्धा की भावना रखना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है | जीवन में जो कुछ भी मनुष्य बनता है गुरुजनों द्वारा प्रदत्त शिक्षा दीक्षा और आशीर्वाद के ही परिणामस्वरूप बनता है, और व्यक्ति के प्रथम गुरु उसके माता पिता ही होते हैं | रक्षा बन्धन परस्पर सौहार्द का पर्व है | इसी पर्व को “बंग भंग” आन्दोलन का कवच बनाया था आचार्य रवीन्द्रनाथ टैगोर ने |

साम्वत्सरिक और शारदीय नवरात्र भी ऋतु परिवर्तन के पर्व हैं – किन्तु साथ ही माँ भगवती के नव रूपों की पूजा अर्चना करते हुए श्री दुर्गा सप्तशती के अनुष्ठान का आयोजन इन नौ दिनों की अवधि में किया जाता है | श्री दुर्गा सप्तशती में जो भगवती के महिषासुर तथा अन्य दैत्यों के साथ और उनके वध की कथा है वह वास्तव में प्रतीक है इस तथ्य का कि न जाने कितने प्रकार के द्वन्द्व मानव मन में निरन्तर चलते रहते हैं, न जाने कितने प्रकार के युद्ध प्रकृति अपने रक्षा में रात दिन लड़ती रहती है, न जाने कितने प्रकार के महिषासुर और रक्तबीज समाज में आए दिन पनपते रहते हैं – यदि इन दैत्यों के साथ युद्ध करके इनका विनाश नहीं किया गया तो प्रगति की यात्रा अवरुद्ध हो जाएगी | और ये युद्ध व्यक्ति को स्वयं ही लड़ने पड़ते हैं – स्वयं ही अपने भीतर दुर्गा और शिव का भाव लाना पड़ता है | और जब प्रगति की बात करते हैं तो केवल भौतिक प्रगति ही एकमात्र लक्ष्य नहीं होता – वह तो बहुत बाद में आता है – प्रमुख लक्ष्य तो होता है धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चतुर्विध उन्नति का | क्योंकि ये चारों ही परस्पर गुंथे हुए हैं – एक दूसरे के अनुगामी हैं – धर्म पालन करने के लिए अर्थ की भी आवश्यकता होती है – अर्थ प्राप्ति होने पर कामनाओं की पूर्ति भी सरलता से हो जाती है – और जब सभी कामनाएँ तृप्त हो जाती हैं तो मोक्ष के द्वार स्पष्ट हो जाते हैं | साथ ही, भारतीय वैदिक संस्कृति में नारी को शक्ति रूपा माना गया है – और क्यों न हो, जब सारी प्रकृति ही नारी रूपा है | नारी – जो कभी दुष्टों का दमन करने के लिए चण्डिका और कालरात्रि का रूप धारण करती है तो कभी ब्रह्मचारिणी और महागौरी के रूप में हर किसी पर ममत्व भी लुटाती है और कभी कात्यायनी के रूप में किसी भी प्रकार की अराजकता को समाप्त करने वाली सशक्त बिटिया भी बन जाती है |

दीपावली केवल दीपोत्सव अथवा लक्ष्मी पूजन तक ही सीमित नहीं है – वह है पाँच पर्वों की एक श्रृंखला – जिसमें मध्य में लक्ष्मी पूजन और दीपोत्सव आता है | उससे भी पूर्व शारदीय नवरात्रों के बाद आती है शरद पूर्णिमा – जिसे कोजागरी पूर्णिमा भी कहा जाता है – जो अपभ्रंश है “कः जाग्रते” अर्थात “कौन जाग रहा है” शब्द का | और जब जागृति की बात करते हैं तो उसका अभिप्राय वास्तव में ज्ञान की जागरूकता से होता है – पुराने पड़ चुके सड़े गले अन्धविश्वास से युक्त रीति रिवाज़ों को छोड़कर शरद पूर्णिमा के प्रमुदित चन्द्रमा की भाँति विकास की ओर ध्यान दिया जाए | उसके बाद करक चतुर्थी – जिसे करवा चौथ कहा जाता है – और फिर अहोई अष्टमी – इन दोनों ही व्रतों में जो कथाएँ कही सुनी जाती हैं उनका अभिप्राय यही है कि यदि हम अपने संस्कारों को भूल जाएँगे अथवा अकारण ही जीव हत्या जैसा जघन्य अपराध करेंगे तो विनाश निश्चित है | धन्वन्तरी त्रयोदशी दीपोत्सव की श्रृंखला का प्रथम पर्व होता है जिस दिन संसार के प्रथम चिकित्सक देवताओं के वैद्य – जिन्हें स्वयं देवता की पदवी प्राप्त हो गई थी – का जन्मदिन वैदिक काल से मनाया जाता है | किन्तु कष्ट का विषय है कि आज उसमें से “धन्वन्तरी” को लोग भुला चुके हैं और धन की पूजा करने लगे हैं | इसी श्रृंखला में दूसरा पर्व है नरक चतुर्दशी – कथाएँ बहुत सी हैं – एक कथा ये भी है कि भगवान श्री कृष्ण ने इसी दिन नरकासुर के बन्दीगृह से सोलह हज़ार कन्याओं को मुक्त कराया था और यह सोचकर कि समाज के लिए ये परित्यक्ता हो चुकी हैं तो ये कहाँ जाएँगी – उन्हें अपनी शरण में लिया था – एक आदर्श स्थापित किया था समाज के समक्ष | साथ ही यमराज और रन्तिदेव की कथा इस तथ्य का भी प्रतीक है कि अनजाने में भी यदि कोई भूल हो जाए तो उसका ज्ञान होने पर उसका प्रायश्चित अवश्य कर लेना चाहिए | तीसरा पर्व है दीपोत्सव – अज्ञान से ज्ञान की ज्योति की ओर अग्रसर होने का पर्व | गोवर्धन पूजा – अपने प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान करना सिखाता है | भाई दूज परस्पर मेल मिलाप का पर है |

ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं | वास्तव में अनगिनती उत्सव पर्व और त्यौहार संसार की हर संस्कृति में मनाए जाते हैं जिनका अलग अलग विवेचन करना बहुत विशाल कार्य है | हम तो बस इतना ही जानते हैं कि यह समूची प्रकृति ही नियमों से बंधी हुई है | उन्हीं नियमों पर समस्त संसार टिका हुआ है | लेकिन नियमों से बंधी हुई इस प्रकृति की सुषमा जड़ नहीं है – जीवन्तता से भरपूर है | वैदिक मनीषी जानते थे कि यदि मनुष्य ने इन नियमों का पालन करना छोड़ दिया तो प्रकृति निश्चित रूप से उन्हें दण्ड देगी | इसीलिए उन्होंने न केवल प्रातःकाल से शयन काल तक के दैनिक कृत्यों को – बल्कि सभी सामाजिक कृत्यों को भी धर्म का आवरण पहना दिया – क्योंकि जिसे धर्म के साथ जोड़ दिया जाता है उस विचार का – उस प्रक्रिया का पालन मनुष्य निश्चित रूप से करता है | इन सबकी मूलभूत भावना यही है कि मानवमात्र में आत्म तत्व के प्रति जागृति उत्पन्न हो, प्राणिमात्र में सद्भावना हो – जो कि सनातन संस्कृति का नारा भी है – प्राणियों में सद्भाव हो – प्राणियों में – यानी केवल मनुष्य ही नहीं – जीवमात्र के प्रति सद्भावना का विकास मनुष्यों के मनों में हो, संगठन की भावना में वृद्धि हो – क्योंकि सभी पर्व परस्पर मिल जुल कर मनाए जाते हैं, हमारी लोक संस्कृतियाँ जीवित रहें – क्योंकि किसी भी समाज के विकास में लोक संस्कृतियों का विशेष योगदान रहता है, आत्मिक शक्ति का विकास हो – उदाहरण के लिए उपवास के द्वारा इन्द्रियों को कुछ समय के लिए अवकाश प्राप्त होने के साथ ही उनका परिमार्जन भी होता है जिसके कारण आत्मिक शक्ति का विकास होता है और व्रत अर्थात संकल्प शक्ति को बल प्राप्त होता है, परोपकार की भावना का विकास हो – क्योंकि प्रत्येक पर्व में दान पुण्य आदि की व्यवस्था है, बड़े ऋतु परिवर्तन और फसल बोने तथा काटने के समय सामाजिक उत्सवों का आयोजन हो, बड़ों के प्रति सम्मान और छोटों के प्रति स्नेह की भावना का विकास हो, महापुरुषों के अनुकरणीय व्यक्तित्वों का स्मरण करते हुए सन्मार्ग पर अग्रसर रहें तथा प्रकृति – पर्यावरण तथा अपने प्राकृतिक संसाधनों के प्रति प्रेम, सम्मान और सुरक्षा की दिशा में जागरूक रहते हुए अग्रसर रहें |

भारत तो एक ऐसा देश है जहाँ शिशु के गर्भ में आने से भी पूर्व से लेकर उसका जन्म तथा उसके बाद बढ़ते बच्चे का हर एक पल न जाने कितने संस्कार लेकर आता है, विद्याध्ययन का आरम्भ तथा विवाह संस्कार आदि से लेकर मनुष्य की अन्तिम यात्रा तक को षोडश संस्कारों के अन्तर्गत पूर्ण सम्मान के साथ सम्पन्न किया जाता है, जहाँ पितृपक्ष को भी एक उत्सव के रूप में ही मनाया जाता है – क्योंकि भारतीय दर्शन की मान्यता यही है कि आत्मा का मरण कभी नहीं होता केवल नवीन शरीर प्राप्त करने के रूप में वस्त्र परिवर्तन होता है… इसलिए जितने भी व्रतोत्सव, पर्व और त्यौहार आदि हैं किसी भी समाज में वे सभी वास्तव में वहाँ की संस्कृति के संरक्षक हैं… चाहे वह विश्व का कोई भी देश हो… कोई भी समाज हो… क्योंकि आज समाज को यदि डॉक्टर इंजीनियर्स तथा दूसरे प्रोफेशनल्स की आवश्यकता है तो उससे भी पहले एक सुयोग्य नागरिक की भी आवश्यकता है…