प्रकृति का पर्व वसन्तोत्सव
माघ शुक्ल पञ्चमी अर्थात वसन्त पञ्चमी का वासन्ती पर्व… जब माघ मास लगभग समाप्त होने को होता है तब ठण्ड की विदाई के साथ जब वसन्त ऋतु का आगमन होता है, उस समय मानों ऋतुराज के स्वागत हेतु समस्त धरा अपने हरे घाघरे के साथ सरसों का पीला उत्तरीय और पलाश के पीत पुष्पों की चूनर ओढ़ लेती है | पलाश, जिसे टेसू भी कहा जाता है | और वृक्षों की टहनियों रूपी अपने हाथों में ढाक के श्वेत पुष्पों के चन्दन से ऋतुराज के माथे पर तिलक लगाकर लाल पुष्पों के दीपों से कामदेव के प्रिय मित्र का आरता उतारती है | वास्तव में अत्यन्त मनोहारी दृश्य होता है यह |
इस वर्ष कल यानी शनिवार पाँच फरवरी को सूर्योदय से पूर्व 3:47 पर मकर लग्न, लग्न में बुध-शनि-सूर्य की युति, बव करण तथा सिद्ध योग में माघ शुक्ल पञ्चमी आरम्भ होगी जो छह फरवरी को सूर्योदय से पूर्व 3:46 तक रहेगी | इस दिन सूर्योदय सात बजकर सात मिनट पर है अतः सरस्वती पूजन का मुहूर्त प्रातः सात बजकर सात मिनट से दिन में बारह बजकर पैंतीस मिनट तक रहेगा |
कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् और ऋतुसंहार तथा बाणभट्ट के कादम्बरी और हर्ष चरित जैसे अमर ग्रन्थों में वसन्त ऋतु का तथा प्रेम के इस मधुर पर्व का इतना सुरुचिपूर्ण वर्णन उपलब्ध होता है कि जहाँ या तो प्रेमीजन जीवन भर साथ रहने का संकल्प लेते दिखाई देते हैं या फिर बिरहीजन अपने प्रिय के शीघ्र मिलन की कामना करते दिखाई देते हैं… संस्कृत ग्रन्थों में तो वसन्तोत्सव को मदनोत्सव ही कहा गया है जबकि वसन्त के श्रृंगार टेसू के पुष्पों से सजे वसन्त की मादकता देखकर तथा होली की मस्ती और फाग के गीतों की धुन पर हर मन मचल उठता था… इस मदनोत्सव में नर नारी एकत्र होकर चुन चुन कर पीले पुष्पों के हार बनाकर एक दूसरे को पहनाते और एक दूसरे पर अबीर कुमकुम की बौछार करते हुए वसन्त की मादकता में डूबकर कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा करते थे… यह पर्व Valentine’s Day की तरह केवल एक दिन के लिए ही प्रेमीजनों के दिलों की धड़कने बढ़ाकर शान्त नहीं हो जाता था, अपितु वसन्त पञ्चमी से लेकर होली तक सारा समय प्रेम के लिए समर्पित होता था…
कालिदास को तो वसन्त ऋतु में पवन के झोंकों से हिलती हुई पलाश की टहनियाँ वन में धधक उठी दावानल की लपटों जैसी प्रतीत होती हैं और इनसे घिरी हुई धरा ऐसी प्रतीत होती है मानो रक्तिम वस्त्रों में लिपटी कोई वधूटी हो | साथ ही उन्हें वसन्त ऋतु सबसे अधिक चारुतर प्रतीत होती है, तभी तो ऋतुसंहार में बोल उठते हैं…
द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदम स्त्रिय: सकामा: पवन: सुगन्धि: |
सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:, सर्व प्रिये चारुतरं वसन्ते ||
वापीजलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम् |
चूतद्रुमाणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसंत: ||
ऐसी मनभावन ऋतु आई
वृक्षों की हर डाली डाली पुष्पित है / प्रमुदित है मन में…
प्रफुल्लित हैं पद्म हर एक जलाशय में
और प्रवाहित है सुगन्धित पवन हर दिशा दिशा में…
दिवस सुरम्य / सुखकर सन्ध्या
ऐसा चारुतर है वसन्त / तभी तो प्रिय है सभी को…
हर ओर एक आकर्षण / एक सम्मोहन
पहले से भी कहीं अधिक…
जलाशयों के ठहरे हुए जल को / मणिखचित मेखलाओं को / कंगनों को
चन्द्रमा की चन्द्रिका को / सुकुमारियों की सुकुमारता को
और पुष्पाभूषणों से आभूषित आम्रवृक्षों को
दिया है दान सौन्दर्य का / सौभाग्य का
इसी वसन्त ने तो…
तभी तो है इतना मोहक और आकर्षक…
यही कालिदास विक्रमोर्वशीयं में दक्षिण दिशा से प्रवाहित होती पवन को वसन्त का सबसे प्रिय मित्र बताते हुए कहते हैं…
वासार्थं हर संभृतं सुरभिणा पौष्पं रजो वीरुधां
किं कार्यं भवतो हृतेन दयितास्नेहस्वहस्तेन में |
जानीते हि मनोविनोदनशतैरेवंविधैर्धारितं
कामार्तं जनमज्जनां प्रति भवानालक्षितप्रार्थनः ||
स्वयं को करना चाहते हो सुवासित सुगन्धि से
तो क्यों नहीं उठा ले जाते वसन्त ऋतु में
वृक्षों की डालियों पर प्रफुल्लित पुष्पों का पराग…?
मेरी प्रियतमा के हाथ का लिखा हुआ ये पत्र
भला किस काम का तुम्हारे…?
तुम तो स्वयं प्रेम कर चुके हो अंजना से
तुम्हें क्या पता नहीं…?
मन के भावों को आनन्दित करते हैं यही प्रेम पत्र तो…
देते हैं जीवनदान प्रेमियों को…
ऐसी राग रंग रचाती ऋतु को ऋतुओं का राजा भला क्यों न कहा जाएगा…? वसन्त – जिस ऋतु में चिर सुषमा की वंशी सदा गुंजायमान रहती हो… अपार यौवन… अपार सुख… अपार विलास के देवता कामदेव का पुत्र… तभी तो आधार है नव सृजन का… शस्य श्यामला वसुन्धरा में स्वर्णिम सौन्दर्य… जहाँ भगवान भास्कर की रश्मियाँ पञ्चम का सुर आलापती कोयल तथा घनी अमराइयों में मँडराते भ्रमरों के गान पर थिरक उठती हों… संस्कृत साहित्य ही नहीं वरन रीतिकालीन हिन्दी काव्य से लेकर आज तक के सभी रचनाकारों को वसन्त प्रभावित किये बिना नहीं रहता… किसी को वसन्त के आते ही पुष्पों का खिल जाना – भ्रमरों का गान – कोयल की कुहुक सब कुछ प्राणिमात्र के लिए सुख तथा स्वास्थ्यकर लगता है – तो किसी को वसन्त की वासन्ती आभा विरह वेदना को और अधिक बढ़ाती जान पड़ती है… तभी तो कहते हैं इसे ऋतुओं का राजा…
आज भी बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और उत्तराँचल सहित देश के अनेक अंचलों में पीतवस्त्रों और पीतपुष्पों में सजे नर-नारी बाल-वृद्ध एक साथ मिलकर माँ वाणी के वन्दन के साथ साथ प्रेम के इस देवता की भी उल्लासपूर्वक अर्चना करते हैं…
इस पर्व के दौरान पीले वस्त्र धारण करने के एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि पीत वर्ण का सम्बन्ध जहाँ एक ओर सूर्य से माना जाता है, वहीं भगवान् विष्णु और माँ वाणी से सम्बद्ध माना जाता है | साथ ही पीला रंग सौभाग्य का प्रतीक भी माना जाता है तथा मन को स्थिरता प्रदान करने वाला, शान्ति प्रदान करने वाला माना जाता है | पीला रंग विचारों में सकारात्मकता, आशा तथा ताज़गी का प्रतीक माना जाने के कारण व्यक्ति को उसके व्यवसाय में उन्नति का सूचक भी माना जाता है | इन्हीं कारणों से भगवान् विष्णु और भगवती सरस्वती को पीले पुष्प अर्पित किये जाते हैं |
साथ ही यह तिथि प्रत्येक कार्य के लिए शुभ मानी जाती है इसलिए इसे अबूझ मुहूर्त भी कहा जाता है – अर्थात जब कोई भी शुभ मुहूर्त न मिल रहा हो तो इसके लिए मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहीं – बिना मुहूर्त देखे ही इस दिन समस्त शुभ तथा मांगलिक कार्य किये जा सकते हैं | कितना विचित्र संयोग है कि इस दिन एक ओर जहाँ ज्ञान विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती को श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं वहीं दूसरी ओर प्रेम के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति को भी स्नेह सुमनों के हार से आभूषित किया जाता है… क्योंकि वसन्त कामदेव की ही तो सन्तान है…
सर्दियों की विदाई के साथ ही प्रकृति स्वयं अपने समस्त बन्धन खोलकर – अपनी समस्त सीमाएँ तोड़कर –प्रेम के मद में ऐसी मस्त हो जाती है कि मानो ऋतुराज को रिझाने के लिए ही वासन्ती परिधान धारण कर नव प्रस्फुटित कलिकाओं से स्वयं को सुसज्जित कर लेती है… जिनका अनछुआ नवयौवन लख चारों ओर मंडराते भँवरे गुन गुन करते वसन्त का राग आलापने लगते हैं… आम बौरा जाते हैं… वसन्त के परम मित्र कामदेव अपने धनुष पर स्नेह प्रेम के पुष्पों का बाण चढ़ा देते हैं… और प्रकृति की इस रंग बिरंगी छटा को देखकर मगन हुई कोयल भी कुहू कुहू का गान सुनाती हर जड़ चेतन को प्रेम का नृत्य रचाने को विवश कर देती है… इसीलिए तो वसन्त को ऋतुओं का राजा कहा जाता है… वास्तव में बड़ी मदमस्त कर देने वाली होती है ये रुत… वृक्षों की शाख़ों पर चहचहाते पक्षियों का कलरव ऐसा लगता है मानों पर्वतराज की सभा में मुख्य नर्तकी के आने से पूर्व उसके सम्मान में वृन्दगान चल रहा हो…
वसन्त को भगवान् कृष्ण ने गीता में अपना ही एक रूप बताया है…
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् |
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ||गीता अध्याय 10 श्लोक 35||
अर्थात, गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम मैं ही हूँ, वैदिक छन्दों में गायत्री नामक महान छन्द मैं ही हूँ, बारह महीनों में मार्गशीर्ष नामक महीना तथा छः ऋतुओं में ऋतुराज वसन्त मैं ही हूँ ||
हमें अक्सर याद आ जाता है कोटद्वार में अपने कार्यकाल के दौरान सिद्धबली मन्दिर के बाहर मुंडेर पर बैठ जाया करते थे अकेले… अपने आपमें खोए से… नीचे कल कल छल छल बहती खोह का मधुर संगीत मन को मोह लिया करता था… मन्दिर के चारों तरफ़ और ऊपर नीचे देखते तो हरियाली की चादर ताने और रंग बिरंगे पुष्पों से ढकी ऊँची नीची पर्वत श्रृंखलाएँ ऐसी जान पड़तीं… मानों अपने तने हुए उभरे कुचों पर बहुरंगी कंचुकियाँ कसे… हरितवर्णी उत्तरीयों से अपनी कदलीजँघाओं को हल्के से आवृत किये… कोई काममुग्धा नर्तकी नायिका… प्रियतम को मौन निमन्त्रण दे रही हो… उसे अभी कहाँ होश पर्वतराज की सभा में जा नृत्य करने का… अभी तो कामक्रीड़ा के पश्चात् कुछ अलसाना है… और उसके पश्चात्… और अधिक पुष्पों की जननी बनना है… वसन्त के आगमन पर उसे स्वयं को पुष्पहारों से और भी अलंकृत करना है… ताकि पिछली रात के सारे चिह्न विलुप्त हो जाएँ… और ऋतुराज वसन्त के लिये वो पुनः अनछुई कली जैसी बन जाए… ऐसा मदमस्त होता है वसन्त का मौसम… ऋतुओं का राजा…
माना जाता है कि माघ माह की शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि से वसन्त का आरम्भ होता है | फाल्गुन और चैत्र मास वसन्त ऋतु के माने जाते हैं | चैत्र वर्ष का प्रथम मास है और फाल्गुन अन्तिम – कितना अद्भुत संयोग है कि वैदिक पञ्चांग के अनुसार वर्ष का आरम्भ और अन्त दोनों वसन्त की मादकता के साथ ही होते हैं |
वसन्त की उत्पत्ति के विषय में भी एक रोचक कथा है | तारकासुर नामक राक्षस का वध केवल शिव-पार्वती के पुत्र द्वारा ही सम्भव था | भोलेनाथ तो तपस्या में लीन बैठे थे तो उनका पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता था ? तब देवताओं ने कामदेव से उनकी तपस्या भंग करने के लिए सहायता माँगी | कामदेव जानते थे कि शंकर की तपस्या भंग करने का अर्थ है उनके कोप का भाजन बनना | किन्तु देवताओं का कार्य भी आवश्यक था | तब उन्होंने वसन्त को उत्पन्न किया और वसन्त ऋतु तथा कामदेव के बाणों से भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई | कामदेव को दण्ड स्वरूप भगवान शंकर ने भस्म कर दिया किन्तु फिर कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्हें छाया रूप में जीवित रहने का वरदान दे दिया | इसीलिए वसन्त को कामदेव का पुत्र भी कहा जाता है और मित्र भी | यह कथा वास्तव में प्रतीक इस तथ्य का कि वसन्त के आगमन पर जब भगवान भास्कर मुस्कुराते हुए रश्मिरथ पर सवार हो प्रकट होते हैं तो शीत का अन्धकार नष्ट हो जाता है | साथ ही पतझड़ के कारण जो प्रकृति का विकास एक प्रकार से बाधित सा हो जाता है वह पुनः आरम्भ हो जाता है | ऐसा प्रतीत होता है मानों रूप व सौन्दर्य के देवता कामदेव के घर में सन्तानोत्पत्ति का समाचार प्राप्त होते ही समूची प्रकृति आनन्द में झूम उठती है, वृक्ष उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, रंग बिरंगे पुष्प उसे वस्त्र पहनाते हैं, पवन झूला झुलाती है और कोयल पंचम की तान सुना उसका मन बहलाती है |
और संयोग देखिए कि वसन्त ही के दिन नूतन काव्य वधू का अपने गीतों के माध्यम से नूतन श्रृंगार रचने वाले प्रकृति नटी के चतुर चितेरे महाप्राण निराला का जन्मदिवस भी धूम धाम से मनाया जाता है…
वास्तव में वसन्त प्रकृति का – पीत वर्ण का – पर्व है – जब समस्त प्रकृति में नव जीवन का संचार होने लगता है – फसलें पकने लगती हैं – सरसों के खेत समूची धरा को पीली चादर से ढक देते हैं | कडाके की ठण्ड के बाद प्रकृति एक बार पुनः अपने मूल रूप में आ जाती है | इसी सबका स्वागत करने के लिए मन्दिरों को – घरों को पीत पुष्पों से आभूषित किया जाता है और पीली मिठाइयाँ बनाकर उनका प्रसाद ग्रहण किया जाता है | पीले वस्त्र धारण किये जाते हैं – अर्थात कण कण में प्रेम और समृद्धि का प्रतीक वासन्ती रंग घुला होता है |
धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व इस पर्व का यही है कि ज्ञान विज्ञान की देवी भगवती सरस्वती के साथ ही सूर्य, गंगा मैया तथा भू देवी की पूजा अर्चना के माध्यम से जन जन को सन्देश प्राप्त होता है कि जिस प्रकृति ने हमारे जीवन में इतने सारे रंग भरे हैं, हमें वृक्षों, वनस्पतियों, स्वच्छ वायु, जल, पशु पक्षियों आदि के रूप में जीवित रहने के समस्त साधन प्रदान किये हैं – उस पञ्चभूतात्मिका प्रकृति को धन्यवाद दें और उसका सम्मान करना सीखें |
तो, वसन्त के मनमोहक संगीत के साथ सभी मित्रों को सरस्वती पूजन, निराला जयन्ती तथा प्रेम के मधुमय वासन्ती पर्व वसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाएँ… इस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब ज्ञान प्राप्त करके समस्त भयों तथा सन्देहों से मोक्ष प्राप्त कर अपना लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ सकें… ताकि अपने लक्ष्य को प्राप्त करके उन्मुक्त भाव से प्रेम का राग आलाप सकें…