व्रत और उपवास
साम्वत्सरिक नवरात्र आरम्भ हो चुके हैं और लगभग प्रत्येक हिन्दू परिवार में श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ और व्रत का पालन किया जा रहा है | यहाँ सबसे पहले आवश्यकता है व्रत और उपवास के विषय में समझने की |
व्रत शब्द का प्रचलित अर्थ है एक प्रकार का धार्मिक उपवास – Fasting – जो किसी कामना की पूर्ति के लिए भी किया जा सकता है, परम्परा का पालन करने हेतु भी किया सकता है और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी किया जा सकता है | कामना के लिए जब उपवास किया जाता है तो वह कामना भौतिक भी हो सकती है, धार्मिक भी और आध्यात्मिक भी | कुछ लोग अपने मार्ग में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए व्रत रखते हैं, कुछ रोग से मुक्ति अर्थात स्वास्थ्य के लिए, कुछ लक्ष्य प्राप्ति के लिए, कुछ आत्मज्ञान की प्राप्ति तथा आत्मोत्थान के लिए, तो कुछ केवल इसलिए कि पीढ़ियों से उनके परिवार में उस व्रत की परम्परा चली आ रही है और उन्हें उस परम्परा का निर्वाह करना है ताकि उनकी सन्तान भी वह सब सीख कर आगे उस परम्परा का निर्वाह करती रहे | हमारी एक मित्र हैं जो कहती हैं कि यदि मैं ये सारे व्रत नहीं रखूँगी तो कल मेरे बच्चे भला कैसे रखेंगे ? उन्हें भी तो कुछ अपने संस्कारों का, रीति रिवाजों का ज्ञान होना चाहिए…
रीति रिवाजों का ज्ञान तो फिर भी ठीक है, लेकिन संस्कार ? ये बात हमारे पल्ले नहीं पड़ती | संस्कार तो सन्तान को हमारे आदर्शों से प्राप्त होते हैं | व्रत उपवास का संस्कार से कुछ लेना देना है ऐसा कम से कम हमें नहीं लगता | यदि हमारे आचरण में सत्यता, करुणा, अहिंसा जैसे गुण हैं तो हमारी सन्तान में निश्चित रूप से वे गुण आएँगे ही आएँगे | यदि हमारे स्वयं के आचरण में ये समस्त गुण नहीं हैं तो हम चाहें कितने भी व्रत उपवास कर लें – न स्वयं को उनसे कोई लाभ पहुँच सकता है और न ही हमारी सन्तान संस्कारवान बन सकती है |
वास्तव में वृ में क्त प्रत्यय लगाकर व्रत शब्द निष्पन्न हुआ है – जिसका अर्थ होता है वरण करना – चयन करना – संकल्प लेना | इस प्रकार व्रत का अर्थ हुआ आत्मज्ञान तथा आत्मोन्नति के प्रयास में सत्य तथा कायिक-वाचिक-मानसिक अहिंसा तथा अन्य अनेकों सद्गुणों का पालन करना | इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हम भूखे रहकर अपने शरीर को कष्ट पहुँचाएँ | हाँ संकल्प दृढ़ होना चाहिए | हम अपने अज्ञान को दूर करने का व्रत लेते हैं वह वास्तव में सराहनीय है | हम व्रत लेते हैं कि किसी को कष्ट नहीं पहुँचाएँगे, सत्य और अहिंसा का पालन करेंगे, प्राणिमात्र के प्रति करुणाशील रहेंगे – सराहनीय है | किन्तु आज धर्म के साथ व्रत को सन्नद्ध करके अनेक प्रकार के रीति रिवाज़ अर्थात Rituals व्रत का अंग बन चुके हैं |
सत्य तो यह है कि संसार का प्रत्येक प्राणी अपने अनुकूल सुख की प्राप्ति और अपने प्रतिकूल दु:ख की निवृत्ति चाहता है | मानव की इस परिस्थिति को अवगत कर त्रिकालज्ञ और परहित में रत ऋषि मुनियों ने वेद पुराणों तथा स्मृति आदि ग्रन्थों को आत्मसात करके सुख की प्राप्ति तथा दुःख से निवृत्ति के लिए अनेक उपाय बताए हैं | उन्हीं उपायों में से व्रत और उपवास मानव को सुगम्य प्रतीत होते हैं | व्रतों का विधान करने वाले ग्रन्थों में व्रत के अनेक अंग प्राप्त होते हैं, उपवास उन्हीं अंगों में से एक अंग है | व्रत वास्तव में संकल्प को कहते हैं और संकल्प किसी भी कार्य के निमित्त हो सकता है | किन्तु इसे केवल धर्म तक ही सीमित कर दिया गया है | आज संसार के हर धर्म में किसी न किसी रूप में व्रत और उपवास का पालन किया जाता है | माना जाता है कि व्रत के आचरण से पापों का नाश, पुण्य का उदय, शरीर और मन की शुद्धि, मनोरथ की प्राप्ति और शान्ति तथा परम पुरुषार्थ की सिद्धि होती है। सर्वप्रथम अग्नि उपासना का व्रत वेदों में उपलब्ध होता है जिसके लिए विधि विधान पूर्वक अग्नि का परिग्रह आवश्यक है | उसके बाद ही व्रती को यज्ञ का अधिकार प्राप्त होता है |
धार्मिक दृष्टि से देखें तो नित्य, नैमित्तिक और काम्य तीन प्रकार के व्रत होते हैं जिन्हें कर्म की संज्ञा दी गई है | जिन व्रतों का आचरण दिन प्रतिदिन के जीवन में सदा आवश्यक है जैसे शरीर शुद्धि, सत्य, इन्द्रिय निग्रह, क्षमा, अपरिग्रह इत्यादि वे नित्य व्रत कहलाते हैं | किसी निमित्त के उपस्थित हो जाने पर किये जाने वाले व्रत जैसे प्रदोष, एकादशी, पूर्णिमा इत्यादि के व्रत नैमित्तिक व्रत हैं | तथा किसी कामना से किये गए व्रत काम्य व्रत हैं – जैसे सन्तान प्राप्ति के लिए लोग व्रत रखते हैं |
धार्मिक एवम् आध्यात्मिक साधना में प्रागैतिहासिक काल से ही उपवास का प्रचलन रहा है – भले ही वह पूर्ण हो अथवा आंशिक | उपवास का शाब्दिक अर्थ है उप + वास अर्थात निकट बैठना – अपनी आत्मा के केन्द्र में स्थित हो जाना | जैसे उपनिषद | उपनिषद का अर्थ है समीप बैठकर कहना और सुनना – शिष्य ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु के निकट बैठता था और उस समय जो ज्ञान उसे प्राप्त हुआ वह उपनिषद कहलाया | इसी प्रकार उपवास का अर्थ भी है निकट उपस्थित होना | क्योंकि आत्मज्ञान का जिज्ञासु यदि स्वयं के केन्द्र में स्थित होगा तो उसके लिए प्रगति का मार्ग सरल हो जाएगा, सम्भव है इसीलिए उपवास में भोजन न करने का विधान रहा होगा ताकि अन्न ग्रहण करने से जो शरीर में आलस्य आदि आ जाता है उससे मुक्त रहा जा सके और आत्मज्ञान के मार्ग में कोई व्यवधान न आने पाए | आज भी उपवास की मूलभूत भावना तो यही है कि किसी भी प्रकार से भोजन आदि की चिन्ता किये बिना केवल आत्म भाव में स्थिर रहने का प्रयास किया जाए | और जब इस प्रकार आत्मस्थ होने का दृढ़ संकल्प लेते हैं तो किसी भी प्रकार की क्षुधा पिपासा स्वयं ही शान्त हो जाती है | किन्तु हमने उसे भी अपनी सुविधा के अनुसार ढाल लिया है | आज व्रत में संकल्प लेते हैं उपवास करने का – भोजन न करने का, किन्तु कुछ विशेष प्रकार के भोज्य पदार्थों के सेवन की अनुमति होती है | इसका परिणाम होता है कि उन्हीं भोज्य पदार्थों को किस प्रकार अपने स्वाद के अनुसार बना लिया जाए – व्रती का सारा समय इसी विचार तथा प्रक्रिया में बीत जाता है | जैसे नवरात्रों को ही ले लीजिये, लगभग हर घर में कुट्टू सिंघाड़े और चौलाई इत्यादि के भाँति भाँति के पकवान बनाकर उनका भोग लगाया जा रहा होगा |
वास्तव में हम “उपवास” नहीं करते, हम व्रत ले लेते हैं – संकल्प धारण कर लेते हैं कि आज अमुक पदार्थ का सेवन नहीं करेंगे और इतने बजे तक कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे | इस प्रकार का आंशिक उपवास भी लाभप्रद है | किन्तु इसका लाभ तभी प्राप्त हो सकेगा जब हम उस समय में भोजन तथा समय के विषय में ध्यान न देकर अपना समय स्वाध्याय अथवा अपने गुणों को उन्नत करने में व्यतीत करें | अन्यथा “आत्मस्थ” होने का अवसर ही कैसे मिल सकेगा ?
साथ ही एक बात नहीं भूलनी चाहिए, उपवास एक ओर जहाँ आत्मस्थ होने का – स्वयं के अनुशीलन तथा अन्वेषण का मार्ग है, वहीं हमारे स्वास्थ्य के लिए भी यह अत्यन्त उपयोगी है | आज बहुत सारे लोग Intermittent Fasting अर्थात आन्तरालिक उपवास की बात करते हैं और उसके द्वारा जन साधारण को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने का प्रयास करते हैं – जो स्वयं में एक बहुत अच्छा और सार्थक प्रयास है – किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे परिवारों में तो सहस्रों वर्षों से ऋषि मुनियों द्वारा प्रणीत उपवास की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती थी | आज हम उसे ही भुला बैठे हैं | उपवास से हमारे शरीर के विषैले पदार्थ स्वयं ही नष्ट होने आरम्भ हो जाते हैं और शरीर एक नवीन ऊर्जा से ओत प्रोत हो जाता है | शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपवास का अत्यन्त महत्त्व हमारे शास्त्रकारों ने माना है | एक दिन का भी उपवास यदि सप्ताह में, पन्द्रह दिन में, एक माह में अथवा अपनी शारीरिक और मानसिक अवस्था को ध्यान में रखते हुए किया जाए तो समूचे पाचन तन्त्र पर इसका अनुकूल प्रभाव होता है | सम्भवतः इसलिए भी हमारे ऋषि मुनियों ने उपवास को मनुष्यों की धार्मिक भावना के साथ जोड़ा होगा |
सभी व्रतोपवास के लिए भोजन सम्बन्धी जो नियम पौराणिक उपाख्यानों में उपलब्ध होते हैं वे ऋतुओं को ध्यान में रखकर ही बनाए गए थे | उनके पीछे उद्देश्य यही था कि किस ऋतु में किस प्रकार के भोजन से किस प्रकार की शारीरिक समस्याएँ हो सकती हैं तो उन पदार्थों का कुछ समय के लिए त्याग कर दिया जाए | साथ ही पूरे दिन के लिए सभी प्रकार के भोजन का त्याग करके उपवास करने को सबसे उत्तम उपवास माना गया और उसके पारायण के समय ऋतुओं के अनुकूल ही सात्त्विक भोज्य पदार्थों के सेवन का नियम रखा गया | शरीर स्वस्थ रहेगा तो व्रत यानी संकल्पों का पालन भी व्यक्ति पूर्ण निष्ठा के साथ कर सकता है – फिर चाहे वे संकल्प किसी प्रकार के भौतिक लक्ष्य की प्राप्त के लिए हों अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मज्ञान और आत्मोत्थान की दिशा में प्रगति के लिए…
तो यदि वास्तव में व्रतोपवास का पालन करना है तो आत्मस्थ होने का संकल्प सबसे पहले लेना होगा – वह भी अपनी शारीरिक तथा मानसिक अवस्था और मौसम को देखते हुए… वही सच्चा उपवास होगा… शेष तो सब भौतिक आडम्बर मात्र हैं…