प्रकृति का पर्व फूलदेई
आज बैठे बैठे एक आँचलिक त्यौहार की स्मृति हो आई | गढ़वाल में बहुत समय तक हमारा कार्यक्षेत्र रहा है | तो वहाँ रहते हुए एक अत्यन्त ही हर्षोल्लासपूर्ण पर्व में सम्मिलित होने का अवसर अनेक बार प्राप्त हुआ – यह पर्व है इक्कीस दिनों तक मनाया जाने वाला फूलदेई का त्यौहार – जिसे गढ़वाल के पृथक पृथक क्षेत्रों में पृथक नामों से जाना जाता है – कुछ स्थानों पर इसे फूल संग्राद अथवा फूल संक्रान्ति के नाम से, कहीं फूलदेई के नाम से और कहीं गोगा के नाम से जाना जाता है | आज इसी त्यौहार के विषय में बात करते हैं |
यह पर्व चैत्र मास की संक्रान्ति को मनाया जाता है – जिसे मीन संक्रान्ति भी कहा जाता है और पर्वतीय क्षेत्रों में इसे फूल संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है और जो इस वर्ष चौदह मार्च को होगा | वास्तव में तो यह पर्व वसन्त ऋतु के आगमन का उल्लासपूर्वक स्वागत करने तथा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने का पर्व होता है | इस ऋतु में साड़ी प्रकृति पीली फ्यूली, लाल बुरांश और बासिंगा, रंग बिरंगे कचनार, पीली सरसों और लाल सफ़ेद पलाश जैसे जंगली रंग बिरंगे पुष्पों से स्वयं को सुसज्जित कर चुकी होती है और किसी अत्यन्त रूपवती नायिका सी प्रतीत होती है | आडू, खुबानी जैसे फलों से वृक्षों की डालियाँ भी अपना श्रृंगार कर चुकी होती हैं | चारों ओर छाई हरियाली से प्रकृति के यौवन में चार चाँद लग जाते हैं | ऐसे में जन जीवन आनन्द में झूम झूम उठता है और उल्लास में भर नृत्य कर उठता है | इस वर्ष सोमवार चौदह मार्च को अर्द्धरात्र्योत्तर सूर्य का मीन राशि में संक्रमण होगा और इसी दिन यह पर्व मनाया जाएगा |
बच्चे इक्कीस दिनों तक सभी पुष्पों को इकट्ठा करके उन्हें रिंगाल – एक प्रकार का सरकंडा या बाँस – जिससे कलम, पेन्सिल, तरह की टोकरियाँ, अनाज साफ़ करने वाला सूप, घर की छत, और रोटी रखने की छापरी आदि अनेक प्रकार की वस्तुओं का निर्माण किया जाता है – और जो गढ़वाल में बहुतायत से उत्पन्न होता है और जिसे पर्यावरण की दृष्टि से बहुत उपयोगी भी माना जाता है – की टोकरियों में सजाकर पानी की गगरियों के ऊपर रखते रहते हैं ताकि वे मुरझाएँ नहीं | त्यौहार के दिन गृहणियाँ गाय के गोबर से घर की देहरी को लीप देती हैं | बच्चों की टोलियाँ गाँव के हर घर में जाती हैं और हर घर के द्वार पर जाकर इन पुष्पों को बिखराती हैं और उस घर की समृद्धि के लिए प्रार्थना करती हैं | गृहणियाँ बच्चों की टोकरी में उपहार स्वरूप गुड़ चावल दाल आदि डालती हैं | साथ में समवेत स्वर में कुछ लोक गीत भी गाती जाती हैं…
फूलदेई, छम्मा देई, जतुकै देला, उतुकै सही, दैणी द्वार, भर भकार, यो देई कैं बारम्बार नमस्कार – यानी, ईश्वर घर की देहरी पर बिखरे इन पुष्पों से सबकी रक्षा करें और घर मैं अन्न का भण्डार सदैव भरा पूरा रखें |
चला फुलारी फूलों को, सौदा-सौदा फूल बिरौला, भौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां, म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लायाँ – इत्यादि… इत्यादि…
इस अवसर पर पाण्डवों की हिमालय यात्रा तथा पर्वतीय वीरों की शौर्य गाथाओं से सम्बन्धित चैती गीत भी गाए जाते हैं | कुछ अन्य गीत भी बच्चे गाते चलते हैं जिन्हें देखकर और सुनकर वास्तव में आनन्द में मन और तन दोनों ही झूम उठते हैं…
इस त्यौहार में समाज की उन्नति और सम्पन्नता के लिए ईश्वर से प्रार्थना की जाती है | इस पर्व के विषय में कुछ लोक कथाएँ भी प्रचलित हैं, जिनमें से एक कथा है कि पर्वतीय वन प्रान्त में फ्यूली नामक एक वनकन्या रहा करती थी जो जंगल में रहा करती थी | वन के वृक्षों, पशु पक्षियों केक साथ उसकी मित्रता थी और पूर्ण रूप से प्राकृतिक वातावरण में उसका पालन पोषण हुआ था | एक दिन एक राजकुमार उधर से निकला और उस वन कन्या के रूप के प्रति आकर्षित होकर उससे प्रेम कर बैठा | दोनों ने विवाह रचा लिया और राजकुमार उस कन्या को लेकर अपने राज्य में लौट आया | लेकिन वनकन्या के जाने के बाद वन की सारी वनस्पतियाँ मुरझाने लगीं, नदियों का जल सूखने लगा और हर ओर एक प्रकार की नीरवता विद्यमान हो गई | उधर वनों के प्राकृतिक वातावरण में पली बढ़ी वनकन्या के मन को भी राजमहलों की सुख सुविधाएँ नहीं भाईं और वह बीमार पड़ गई | उसने राजकुमार से बहुत प्रार्थना की कि उसे उसके गाँव वापस भेज दे लेकिन वह उसके प्रेम इतना अधिक आसक्त था कि उसे अपने से दूर भेजने को तैयार नहीं हुआ और एक दिन उसकी मृत्यु हो गई | अन्तिम समय में उसने राजकुमार से प्रार्थना की कि उसके शव को पर्वत की उसी चोटी पर दफनाया जाए जहाँ से राजकुमार उसे लेकर आया था | कहते हैं कि जिस स्थान पर उसे दफनाया गया था वहाँ कुछ महीनों के बाद सारे पहाड़ फिर से हरे भरे होने लगे | उस वनकन्या के नाम फ्यूली था जो वहाँ उत्पन्न होने वाले एक बहुत ही आकर्षक पुष्प का नाम है | इसी की स्मृति में फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है |
एक अन्य कथा भी है कि भगवान शिव ने एक बार इतनी कठोर तपस्या की कि न जाने कितनी ऋतुएँ उस अवधि में आईं और चली गईं किन्तु भोलेनाथ की तपस्या भंग नहीं हुई | तब पार्वती जी ने सभी गणों को पीत वस्त्र पुष्पों से सुसज्जित करके उन्हें अबोध बच्चों जैसा बना दिया और क्यारियों से सुगन्धित पुष्प चुनकर उन्हें भगवान शंकर को समर्पित करने के लिए कहा | बच्चों जैसा इसलिए बनाया कि यदि कोई बड़ा व्यक्ति ऐसा करता तो शिव के क्रोध की ज्वाला में भस्म हो सकता था | भगवान शिव की तन्द्रा भंग हुई तो उनका क्रोध तो स्वाभाविक ही था, किन्तु शिव गणों को बच्चों के रूप में उपस्थित देख क्रोध शान्त हो गया | सारी कथा जानकार स्वयं भगवान शिव से सबके साथ मिलकर इस पर्व का आरम्भ किया |
बहरहाल, कथाएँ और मान्यताएँ जितनी भी हों, सत्य तो यही है कि फूलदेई पर्व के माध्यम से प्रकृति से प्रेम करने की – उसका सम्मान करने की और उसकी रक्षा करने की शिक्षा दी जाती है… साथ ही, इस प्रकार की लोक संस्कृति व लोक परम्पराओं के निर्वहन के द्वारा जन साधारण – विशेष रूप से बच्चों को अपनी संस्कृति और सभ्यता का ज्ञान प्राप्त होता है तथा वे इस सबका सम्मान करना सीखते हैं… अस्तु, सभी को प्रकृति के पर्व फूलदेई की बहुत सारी शुभकामनाएँ… इस भावना के साथ हम सभी अपने अपने संस्कारों के साथ ही अपनी प्रकृति का भी सम्मान करना सीखें… उससे प्रेम करना सीखें… क्योंकि प्रकृति है तो जीवन है…