रंगोत्सव और कुछ भूली बिसरी यादें
फागुन का है रंग चढ़ा लो देखो कैसा खिला खिला सा |
मस्त बहारों के आँगन में टेसू का रंग घुला घुला सा ||
राधा संग बरजोरी करते कान्हा, मन उल्लास भरा सा
कौन किसे समझाए, सब पर ही है कोई नशा चढ़ा सा ||
मित्रों, आज फाल्गुन शुक्ल एकादशी – रंग की एकादशी – जिसका आरम्भ हुआ था कल प्रातः 10:23 के लगभग और आज दिन में 12:06 तक रहेगी | तो, सभी के जीवन में सुख, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, स्वास्थ्य, प्रेम, उल्लास और हर्ष के इन्द्रधनुषी रंग बिखरते रहें, इसी भावना के साथ सभी को अबीर की चमक, गुलाल के रंग और पलाश पुष्प की भीनी भीनी सुगन्धि से युक्त रंग और सुगन्ध के पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएँ…
जब बड़े हो जाते हैं और उम्र के एक ख़ास पड़ाव पर पहुँच जाते हैं और माता पिता कहीं दूर आसमान में बैठे हमें आशीर्वाद दे रहे होते हैं तब सच में अपना बचपन और बचपन के हुडदंग बहुत याद हो आते हैं | और होली तो है ही हुडदंग का – मौज मस्ती का त्यौहार | याद आता है जब वसन्त पञ्चमी के लिए सफेद कपडे सिलवाकर उन्हें वासन्ती रंग में रंगाया जाता था | वासन्ती या पीले कपडे खरीद कर उन्हें भी सिलाया जा सकता था – लेकिन जो आनन्द और उत्सव का वातावरण उन वस्त्रों की रंगाई के साथ आरम्भ होता था वो फिर “धुलेण्डी” के बाद ही शान्त होता था | इसी दौरान आता था महाशिवरात्रि का पावन पर्व जिसमें मन्दिरों में धूम मची रहती थी | कुछ कर्मकाण्ड जानने वाले परिवारों में रात्रिपर्यन्त चार प्रहर का भगवान शंकर का अभिषेक सम्पन्न किया जाता था | हमारे माँ और पिताजी भी रात भर पूजा अनुष्ठानादि किया करते थे | और हम बच्चे – क्या मज़ाल कोई भी सो जाए – रात भर की वो सारी पूजा जो देखनी होती थी | आस पास के गाँवों में इस दिन भी रंग खेला जाता था – और क्यों न हो – शिव और शक्ति के मिलन का पर्व जो है शिवरात्रि… कह सकते हैं कि मदनोत्सव से शिवरात्रि तक वसन्तोत्सव यानी होली का पर्व अपने बालरूप में होता था…
उसके बाद आती थी फाल्गुन शुक्ल पञ्चमी – जहाँ होली का उत्सव बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश करता था – और उसके बाद फाल्गुन शुक्ल एकादशी – जिसे आमलकी एकादशी और रंग की एकादशी के नाम से भी जाना जाता है | इस दिन आँवले के वृक्ष की पूजा अर्चना के साथ ही रंगों का पर्व होली अपने यौवन में पहुँचने की तैयारी में होता है | मथुरा वृन्दावन में जहाँ वसन्त पञ्चमी को पहला रंग खेला जाता है – माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण इसी दिन से अपने भक्तों और सखाओं के साथ होली खेलना आरम्भ करते हैं – और होलाष्टक यानी फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से तो होली का उत्सव पूर्ण उत्साह के साथ आरम्भ हो जाता है – वहीं काशी विश्वनाथ मन्दिर में फाल्गुन शुक्ल एकादशी से इस उत्सव का आरम्भ माना जाता है | होलाष्टक के विषय में जहाँ मान्यता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को भगवान कृष्ण प्रथम बार राधा जी के परिवार से मिलने बरसाने गए थे तो वहाँ लड्डू बाँटे गए थे, वहीं काशी विश्वनाथ में रंग की एकादशी के विषय में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने माता पार्वती को अपने घर लिवा लाने के लिए – यानी उनका गौना करा लाने के लिए पर्वतराज हिमालय की नगरी की ओर प्रस्थान किया था और रंग की एकादशी के दिन वहाँ पहुँचकर माता पार्वती के साथ होली खेली थी |
होलाष्टक के विषय में बहुत सी कथाएँ और मान्यताएँ और कथाएँ जन साधारण के

मध्य प्रचलित हैं कि इस दिन से कोई भी मांगलिक कार्य सम्पन्न नहीं किया जाता | किन्तु मान्यताएँ कुछ भी हों, कथाएँ कितनी भी हों, सत्य बस यही है कि होली का उत्साहपूर्ण रंगपर्व ऐसे समय आरम्भ होता है जब सर्दी धीरे धीरे पीछे खिसक रही होती है और गर्मी चुपके से अपने पैर आगे बढ़ाने की ताक में होती है | साथ में वसन्त की खुमारी हर किसी के सर चढ़ी होती है | फिर भला हर कोई मस्ती में भर झूम क्यों न उठेगा | कोई विरह वियोगी ही होगा जो ऐसे मदमस्त कर देने वाले मौसम में भी एक कोने में सूना सूखा और चुपचाप खड़ा रह जाएगा | भला किसी को होश रहेगा विवाह आदि कार्यों में व्यस्त होने का… हर मन केवल और केवल इन्द्रधनुषी रंगों में भीज भीज जाना चाहेगा…
और रंग की एकादशी से तो सारे स्कूल कालेजों और शायद दफ़्तरों की भी होली की छुट्टियाँ ही हो जाया करती थीं | फिर तो हर रोज़ बस होली का हुडदंग मचा करता था | रंग की एकादशी को हर कोई स्कूल कॉलेज ज़रूर जाता था – अपने दोस्तों और अध्यापकों के साथ होली खेले बिना भला कैसा रहा जा सकता था ? और अध्यापक भी बड़े जोश के साथ अपने छात्र छात्राओं के साथ उस दिन होली खेलते थे |
आज के दिन वास्तव में अपना बचपन याद आता है, जब स्कूल में पहुँचकर ख़ासतौर से टीचर्स की कुर्सी के ऊपर वाले पंखे पर गुलाल रख दिया करते थे और टीचर के बैठते ही पंखा चला दिया करते थे… कुछ टीचर्स तो मज़ा लेते था, पर कुछेक ऐसे भी थे जो नक़ली गुस्सा भी दिखा देते थे… और फिर हम बच्चे आगे वो पीछे… सच बड़ा मज़ा आता था… बाद में पिताजी को सब पता चलता था तो वो भी साथ में हँसते थे और उन अध्यापकों से सुनते थे “पंडत जी, बिगाड़ लो बिटिया को, पछताओगे एक दिन…” और हम सब उनकी शक्लें देखकर फिर भी हँसते रहते थे…. उन अध्यापकों को भी मज़ा आता था इस छेड़ में…..
इतनी सब बातें होते हुए भी इतना ज़रूर था कि उस समय अध्यापक और शिष्यों के मध्य बड़े मधुर सम्बन्ध हुआ करते थे – शिष्यों के मन में जहाँ अध्यापकों के प्रति सम्मान का भाव होता था वहीं अध्यापकों के मन में भी शिष्यों के प्रति अपनी सन्तान जैसा स्नेह हुआ करता था – और ये दोनों बातें मिलकर एक विचित्र सा मधुर सम्बन्ध दोनों के बीच बना दिया करते थे….
उसके बाद छोटी होली और फिर रंग की होली | होली – जिसे वसन्त पूर्णिमा भी कहा जाता है | और रंग की होली या फाग जिसे “धूलहांडी” – हमारे तरफ की बोली में जिसे “धुलेण्डी” या बड़ी होली बोलते हैं – और इन दो दिनों तक इस त्यौहार पर पूरी जवानी छाई रहती थी…
आज की महानगरीय सभ्यता ने बहुत कुछ तो फीका कर दिया है | हमें याद आती है अपने पैतृक नगर नजीबाबाद की | हमारे शहर में मालिनी नदी के पार छोटी सी काछियों की बस्ती थी जिसे कछियाना भी कहते थे | ये लोग मूल रूप से सब्ज़ियाँ उगाने का कार्य करते हैं | वसन्त पञ्चमी से इन लोगों का लोकगीतों का आरम्भ होता था जो शिवरात्रि तक आते आते शिव पार्वती के विवाह के गीतों से होता हुआ पञ्चमी तिथि से होली के रंगभरे गीतों में ढल जाया करता था | फाल्गुन शुक्ल पञ्चमी से रात को भोजन आदि से निवृत्त होकर बस्ती के सारे स्त्री पुरुष चौपाल में इकट्ठा हो जाते थे | रात को सारंगी और बाँसुरी से काफी पीलू के सुर उभरने शुरू होते, धीरे धीरे खड़ताल खड़कनी शुरू होती, चिमटे चिमटने शुरू होते, मँजीरे झनकने की आवाज़ें कानों में आतीं और साथ में धुनुकनी शुरू होतीं ढोलकें धमार, चौताल, ध्रुपद या कहरवा की लय पर – फिर धीरे धीरे कंठस्वर उनमें मिलते जाते और आधी रात के भी बाद तक काफी, बिरहा, चैती, फाग, धमार, ध्रुपद, रसिया और उलटबांसियों के साथ ही स्वांग का जो दौर चलता तो अपने अपने घरों में बिस्तरों में दुबके लोग भी अपना सुर मिला देते | हमारे पिताजी को अक्सर वे लोग साथ में ले जाया करते थे और पिताजी की लाडली होने के कारण उनके साथ किसी भी कार्यक्रम में जाने का अवसर हम हाथ से नहीं जाने देते थे | तो जब हम बाप बेटी घर वापस लौटते थे तो वही सब गुनगुनाते और उसकी विषय में चर्चा करते कब में घर की सीढ़ियाँ चढ़ जाते थे हमें कुछ होश ही नहीं रहता था | और ऐसा नहीं था कि उस चौपाल में गाने बजाने वाले लोग शास्त्रीय कलाकार होते थे | सीधे सादे ग्रामीण किसान होते थे, पर होली की मस्ती जो कुछ उनसे प्रदर्शन करा देती थी वह लाजवाब होता था और इस तरह फ़जां में घुल मिल जाता था कि रात भर ठीक से नींद पूरी न होने पर भी किसी को कोई शिकायत नहीं होती थी, उल्टे फिर से उसी रंग और रसभरी रात का इंतज़ार होता था | तो ऐसा असर होता है इस पर्व में | हमारा घर क्योंकि मालिनी नदी के बिलकुल निकट था तो हम उस फाग का पूरा आनन्द लिया करते थे |
होली से दस पन्द्रह दिन पहले से माँ पकवान बनाने शुरू कर देती थी – साथ में पिताजी भी लग जाया करते थे – और फिर चलती थी दोनों की मीठी नोक झोंक | उन दिनों बाज़ार के पकवानों का चलन नहीं था | उधर होलिका दहन के स्थल पर जो अष्टमी के दिन होलिका और प्रहलाद के प्रतीक स्वरूप दो दण्ड स्थापित किये गए थे अब उनके चारों ओर वृक्षों से गिरे हुए सूखे पत्तों, टहनियों, लकड़ियों आदि के ढेर तथा बुरकल्लों की मालाओं आदि को इकट्ठा किया जाने का कार्यक्रम शुरू हो

जाता था | घर घर में कुँआरी लड़कियाँ गाय वाले घरों गोबर मँगाकर लाती थीं और उससे बुरकल्ले बनाया करती थीं – घर में काम आने वाले जितने भी सामान होते हैं सबकी आकृतियाँ बुरकल्लों में बनाई जाती थी और सूखने पर उन्हें बाण में पिरोकर मालाएँ बनाई जाती थीं जो होली पर चढ़ाई जाती थीं – यों कहिये होलिका को दहन करने से पूर्व उसके गले में डाली जाती थीं | होलिका धन के स्थल पर लकड़ी इकट्ठा करते समय ध्यान ये रखा जाता था कि अनावश्यक रूप से किसी पेड़ को न काटा जाए – जितनी भी लकडियाँ अपने आप गिरि हुई होती थीं वो सब वहाँ रखा जाता था | हाँ शरारत के लिए किसी दोस्त के घर का मूढा कुर्सी या चारपाई बाहर चबूतरे या छत पर रह गया तो उसे होली की भेंट चढ़ाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी | और ये कार्य लड़कियाँ नहीं करती थीं | विशेष रूप से हर लड़का हर दूसरे लड़के के घर के दरवाज़े और फर्नीचर पर अपना मालिकाना हक समझता था और होलिका माता को अर्पण कर देना अपना परम कर्त्तव्य तथा पुण्य कर्म समझता था | उन दिनों होली भी बहुत ऊँची बनाई जाती थी | पर इस तरह की शैतानियों पर कभी आपस में तनातनी नहीं हुआ करती थी – नक़ली गुस्सा बच्चों पर उतार कर खो जाते थे सब होली की मस्ती में….
और इसी गहमागहमी में आ जाता था होलिका दहन का पावन मुहूर्त | पिताजी के साथ होली पर जाते थे और गन्ने के किनारों पर जौ की बालियाँ लपेट कर घर के पुरुष यज्ञ की सामग्री के द्वारा प्रज्वलित होलिका की परिक्रमा करते हुए आहुति देते थे और होलिका की अग्नि में भुने हुए इस गन्ने को प्रसादस्वरूप वितरित करते थे | होलिका दहन के बाद घर वापस आते थे और घर पर शुरू होती थी संगीत और काव्य गोष्ठियाँ जो सुबह छः बजे तक चलती थीं और शहर के जितने भी संगीत कलाकार और कविगण थे और संगीत और कविता प्रेमी थे सबका जमावड़ा घर में हुआ करता था | रात भर फाग – काफी – धमार – चैती का रंग छाया रहता था और साथ में चलते थे माँ के हाथों के बनाए हुए पकवानों और चाय के दौर… सुबह सब अपने अपने घरों को लौटकर नित्य कर्मों से निवृत्त हो निकल पड़ते थे होली का हुडदंग मचाने | उधर होली पर रात भर टेसू के फूल पकाए जाते थे जो सुबह होते ही शहर के प्रतिष्ठित परिवारों में बांटने के साथ साथ होली के जुलूस में काम आते थे | गाड़ियों पर टेसू के फूलों के रंग से भरे ड्रम लादकर होली के जुलूस निकलते थे बाजे गाजे के साथ, ड्रमों में लगे होते थे लम्बे लम्बे पाइप और गाड़ियों सवार लोग ज़मीन से लेकर छतों तक रंगों की बौछार करते रहते थे… भीनी भीनी टेसू के रंग की खुशबू से वास्तव में तन मन में एक मस्ती का नशा सा छा जाया करता था…
दोपहर तक रंग खेलने के बाद सब घरों को वापस लौटकर नहा धोकर तैयार हो जाते थे कि इस बीच होली पर बनाया सूजी का गरमा गरम हलवा शहर भर में बँटना शुरू हो जाता था प्रसाद के रूप में… हाँ एक प्रथा और थी, होलिका दहन के अगले दिन यानी फाग के दिन होली की आग लाकर उससे लोग अपने घरों के चूल्हे जलाते थे… इन सारी प्रथाओं का कोई वैज्ञानिक या धार्मिक या आध्यात्मिक या किसी और तरह का महत्त्व भले न हो, पर आपसी भाईचारा बढ़ाने का उपाय ज़रूर होती थीं ये सारी प्रथाएँ…. बहरहाल, आज जब होली से दस पन्द्रह दिन पहले से सोसाइटी में बच्चे पानी के गुब्बारे फेंकते हैं आते जातों पर तो वो दिन बरबस याद हो आते हैं…
आज जब हर तरफ एक अजीब सी अफरातफरी का माहौल बना हुआ है, एक दूसरे पर जैसे किसी को भरोसा ही नहीं रहा गया है, ऐसे में याद आते हैं वे दिन… याद आते हैं वे लोग… उन्हीं दिनों और उन्हीं लोगों का स्मरण करते हुए, सभी को रंग की एकादशी के साथ ही अग्रिम रूप से होली की रंग भरी… उमंग भरी… हुडदंग भरी… गुझिया और टेसू के फूलों के रंगों के साथ हार्दिक शुभकामनाएँ…