होलिका दहन की शुभकामनाएँ
आज होलिका दहन की सभी को शुभकामनाएँ… पूर्णिमा तिथि का आरम्भ आज दिन में 1:31 पर होगा, जो कल यानी 18 मार्च को दिन में 12:47 तक रहेगी | पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 17 मार्च को विष्टि करण और शूल योग में होगा | भद्रा काल में यद्यपि होलिका दहन निषिद्ध माना जाता है, किन्तु फिर भी यदि अर्द्ध रात्रि के बाद भी भद्रा रहे और दूसरे दिन दोपहर तक ही प्रतिपदा तिथि आ जाए तो पूर्णिमा तिथि रहते हुए भद्रा पुच्छ काल में ही होलिका दहन कर दिया जाता है – भद्रा मुख में नहीं किया जाता – निशीथोत्तरं भद्रासमाप्तौ भद्रामुखं त्यक्त्वा भद्रायामेव | भद्रा को भगवान सूर्य की पुत्री तथा शनि की बहन माना गया तथा अत्यन्त उग्र स्वभाव माना गया है | रात्रि 9:06 से 10:16 तक भद्रा का पुच्छ काल है | भद्रा की समाप्ति अर्द्धरात्रि में एक बजकर बारह मिनट पर होगी | इसलिए भद्रा काल में ही रात्रि नौ बजकर छह मिनट से दस बजकर सोलह मिनट तक तुला लग्न में – जिस अवधि में भद्रा का पुच्छ काल रहेगा – होलिका दहन किया जाएगा, और उसके बाद रंगों की बरसात के साथ ही फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा से होलाष्टक समाप्त हो जाएँगे | यद्यपि होलिका दहन के लिए कुछ लोग वैकल्पिक मुहूर्त का भी अनुसरण करते हैं – उनके अनुसार यदि मध्यरात्रि के बाद भी भद्रा रहे तो भद्रा समाप्ति की प्रतीक्षा करनी चाहिए और उसी के बाद होलिका दहन किया जाना चाहिए | तो जो लोग वैकल्पिक मुहूर्त का अनुसरण करना चाहते हैं उनके लिए भद्रा समाप्ति के बाद 17 मार्च को अर्द्धरात्र्योत्तर एक बजकर बारह मिनट से सूर्योदय के समय छह बजकर अट्ठाईस मिनट तक होलिका दहन का मुहूर्त है |
होलिका दहन की बात करें तो कुछ दशकों पूर्व तक फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को – होलाष्टक के आरम्भ होने पर – होलिका दहन के स्थान को गंगाजल से पवित्र करके वहाँ दो दण्ड स्थापित किये जाते हैं, जिन्हें होलिका और प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है | फिर उनके मध्य में उपले (गोबर के कंडे), घास फूस और लकड़ी आदि का ढेर लगा दिया जाता है | इसके बाद होलिका दहन तक हर दिन इस ढेर में वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियाँ और घास फूस आदि डालते रहते हैं और अन्त में होलिका दहन के दिन इसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है | ऐसा करने का कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि होलिका दहन के अवसर तक वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियों और घास फूस का इतना बड़ा ढेर इकट्ठा हो जाए कि होलिका दहन के लिए वृक्षों की कटाई न करनी पड़े | हाँ शरारत के लिए किसी दोस्त के घर का मूढा कुर्सी या चारपाई बाहर चबूतरे या छत पर रह गया तो उसे होली की भेंट चढ़ाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी | और ये कार्य लड़कियाँ नहीं करती थीं | विशेष रूप से हर लड़का हर दूसरे लड़के के घर के दरवाज़े और फर्नीचर पर अपना मालिकाना हक समझता था और होलिका माता को अर्पण कर देना अपना परम कर्त्तव्य तथा पुण्य कर्म समझता था | उन दिनों होली भी बहुत ऊँची बनाई जाती थी | पर इस तरह की शैतानियों पर कभी आपस में तनातनी नहीं हुआ करती थी – नक़ली गुस्सा बच्चों पर उतार कर खो जाते थे सब होली की मस्ती में | घर घर में कुँआरी लड़कियाँ गाय वाले घरों से गोबर मँगाकर लाती थीं और उससे बुरकल्ले बनाया करती थीं – घर में काम आने वाले जितने भी सामान होते हैं सबकी आकृतियाँ बुरकल्लों में बनाई जाती थी – इसका कारण भी सम्भवतः यही रहा होगा कि परिवार के बच्चों को कुछ तो ज्ञान हो घर में काम आने वाली वस्तुओं का | उन बुरकल्लों के सूखने पर उन्हें बाण में पिरोकर मालाएँ बनाई जाती थीं जो होली पर चढ़ाई जाती थीं – यों कहिये होलिका को दहन करने से पूर्व उसके गले में डाली जाती थीं |
रात को होलिका दहन के मुहूर्त पर यज्ञ की आहुतियों के द्वारा होलिका की अग्नि प्रज्वलित की जाती थी और उसके बाद गन्ने के किनारों पर जौ की बालियाँ लपेट कर घर के पुरुष यज्ञ की सामग्री के द्वारा प्रज्वलित होलिका की परिक्रमा करते हुए आहुति देते थे और होलिका की अग्नि में भुने हुए इस गन्ने को प्रसादस्वरूप वितरित किये जाते थे और उसी के साथ आरम्भ हो जाता था एक दूसरे पर रंग मलने का कार्यक्रम… यज्ञ की आहुतियों में जिन सामग्रियों का प्रयोग होता है उनके महत्त्व के विषय में हम सभी परिचित हैं…
बहरहाल, आज एक प्रश्न हमारे मन में घुमड़ता रहता है कि क्या वास्तव में हम होलिका का दहन कर रहे हैं या केवल मात्र “होली” जला रहे हैं…?
कैसी आज जली ये होली…
नहीं होलिका दहन हुआ, सद्भावों का प्रहलाद जला है |
हिरणाकुश हँस रहा ठठाकर, कैसी आज जली ये होली…
रक्त पीत यह शिखा अग्नि की, लपक लपक कर नृत्य दिखाती |
महिष मर्दिनी ज्यों क्रोधित हो, आएँ पहन रक्ताम्बर चोली ||
कैसी आज जली ये होली…
पुष्प प्रेम का सूख चुका है, श्रद्धा तरु निष्पत्र हो गए |
हुआ मरुस्थल स्नेह सरोवर, और कंटक हैं डाली डाली ||
कैसी आज जली ये होली…
है गुलाल में रंग विषैला, अभ्रक की भी चमक खो गई |
रंग नहीं, ये पिचकारी भी फेंक रही बारूदी गोली ||
कैसी आज जली ये होली…
आज हुलास विलास नहीं, आतंक और भय ही छाया है
सबही का मन मुरझाया है, देख देख नित रक्तिम होली ||
कैसी आज जली ये होली…
मशरूमों से कितने दल और कितने नेता उगते रहते
लेकिन अपनी अपनी ढफली पर गाते सब अपनी होली ||
आयोगों का गठन हैं करते, मन संगठित नहीं कर पाते
किसके हाथों में अब देखें, स्नेह प्रेम की अक्षत रोली ||
आज जल रहा है नीलाम्बर, धधक रहे हैं भारी भूधर
और अग्नि से अंक मिलन हित आती है मानव की टोली ||
सृजन तत्व ने बन संहारी महाप्रलय की की तैयारी
आज मृत्यु है फाग खेलती, ले प्राणों की कुमकुम रोली ||
आज बहुत सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया है पर्वों का… उसका कारण यही जान पड़ता है कि परिवार सिमट गए हैं और हर कोई अपने अपने कार्यों में इतना अधिक व्यस्त हो गया है कि दो दिन का समय भी निकाल पाना बहुत से लोगों के लिए असम्भव सा हो गया है… बहरहाल, जो भी हो, क्यों न आज होलिका दहन की अग्नि प्रज्वलित करते समय हम सभी संकल्प लें कि इस यज्ञाग्नि में असत्य, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, छल, कपट, अहंकार जैसे समस्त दुर्भावों की होलिका का दहन करेंगे ताकि सद्भावों के प्रह्लाद को जीवनदान प्राप्त हो… इन्हीं भावनाओं के सभी को होली के इस रंगोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ… होलिका दहन सभी के लिए मंगलमय हो…