पृथिवी दिवस
नमस्कार मित्रों ! आज थोड़ी सी बात पृथिवी दिवस की हो जाए – यानी जिसे हम सभी प्रत्येक वर्ष बाईस अप्रैल को Earth Day के नाम से मनाते हैं एक आन्दोलन के रूप में | इस वर्ष भी Earth Day के अवसर पर बहुत से कार्यक्रमों का आयोजन विश्व भर में किया गया – कहीं पर्यावरण के सम्बन्ध में सेमिनार्स या वेबिनार्स – कहीं पृथिवी तथा पर्यावरण की सुरक्षा के सम्बन्ध में वर्कशॉप्स – कहीं भाषणों का तो कहीं काव्य सन्ध्याओं का आयोजन – तो कहीं वृक्षारोपण के कार्यक्रम… और इन सबका उद्देश्य एक ही था कि जन साधारण अपने पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक रहे… अपनी धरती माँ की रक्षा के प्रति जागरूक रहे… इत्यादि इत्यादि…
इन्हीं सन्दर्भों में कुछ बातें करने का मन हुआ तो इस लेख को लिखने का मोह संवरण नहीं कर पाए | हमारे भारत जैसे महान देश में वैदिक काल से ही हर दिन माँ वसुधा के लिए समर्पित होता है | हर दिन Earth Day होता है | किसी भी वैदिक, पौराणिक साहित्य को उठा कर देख लीजिये – आप पाएँगे कि हमारे दिन प्रतिदिन की गतिविधियों में – दिन प्रतिदिन के कार्य कलापों में – प्रकृति का कितना अधिक योगदान है | जो व्यावहारिक रूप से स्पष्ट दीख पड़ता भी है | वैदिक मान्यताओं के अनुसार पृथिवी की माता के रूप में उपासना की जाती है – भू देवी के रूप में उपासना की जाती है – सम्मान किया जाता है | प्रातःकाल जब प्रथम चरण पृथिवी पर रखते हैं तो उसकी प्रार्थना करते हुए उससे क्षमा याचना भी करते हैं…
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले | विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्वमे ||
अर्थात, समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनों वाली एवं भगवान विष्णु की पत्नी हे भू देवी, हम आपको नमस्कार करते हैं, हमारे पाद अर्थात पैरों से आपका हम स्पर्श कर रहे हैं इसके लिए हमें क्षमा करें | साथ ही जितने भी यज्ञ यागादि सम्पन्न किये जाते हैं उनमें सर्वप्रथम पृथिवी का ही आह्वाहन स्थापन किया जाता है…
“ॐ पृथिवी त्वया धृता लोका, देवि त्वं विष्णुना धृता |
त्वं च धारय मां भद्रे, पवित्रं कुरु चासनम् ||”
अर्थात, हे माता पृथ्वी ! तुमने समस्त संसार को धारण किया हुआ है और भगवान विष्णु ने आप को धारण किया हुआ है | हे देवी ! तुम मुझे भी धारण करो एवं मेरे द्वारा प्रदत्त आसन पर विराजमान होकर उसे पवित्र करो… इतनी उदात्त भावनाएँ क्या किसी अन्य संस्कृति में परिलक्षित होती हैं ?
तत्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि, सोSमस्मि तथा वसुधैव कुटुम्बकम् जैसे महान और उदार विचार देने वाले हमारे विद्वान् मनीषियों ने पृथिवी की कल्पना एक विशाल ग्राम के रूप में की है – जिसमें अनेक प्रकार के जड़ चेतन जीव निवास करते हैं और सभी का अपना महत्त्व है | क्योंकि इस समस्त चराचर जगत में – इसके सभी जड़ चेतन में – परमात्मतत्व का निवास है और समस्त विश्व एक बहुत विशाल परिवार ही है | प्रकृति की उपासना हम किसी भय के कारण नहीं करते – इसलिए नहीं करते कि यदि प्रकृति हमारे विरुद्ध हो गई तो हमें कितनी अधिक हानि पहुँचा सकती है – यद्यपि ऐसा सम्भव है | किन्तु हम प्रकृति की उपासना – उसके जीवों की उपासना इस भाव से करते हैं क्योंकि हम इसमें निवास कर रहे प्रत्येक जीवन में उसी परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करते हैं – फिर चाहे वह कोई व्यक्ति हो, कोई अन्य पशु पक्षी हो, प्रस्तरखण्ड हो, पर्वत हों, वन हों, वृक्ष हों, नदी तालाब समुद्र मेघ कुछ भी हो – हम हर किसी में परमात्मा का वास मानते हैं और इसीलिए सबको अपने जैसा ही प्राणवान भी मानते हैं |
यजुर्वेद में पृथिवी को ऊर्जा अर्थात उर्वरक शक्तियों को प्रदान करने वाली तथा समस्त प्रकार की सम्पत्ति को प्रदान करने वाली वित्तायनी कहकर प्रार्थना की गई है कि वह प्राणिमात्र की समस्त प्रकार की दीनता हीनता से रक्षा करे…
“तप्तायनी मेसि वित्तायनी मेस्यनतान्मा नाथितादवतान्मा व्यथितात् |” (यजुर्वेद 5/9)
अथर्ववेद में तो पूरा एक सूक्त ही भूमि सूक्त के नाम से पृथिवी के लिए समर्पित है, जिसमें मानव जीवन के लिए पृथिवी तत्व का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है और बताया गया है कि यही पृथिवी तत्व शेष चार तत्वों – वायु, जल, अग्नि और आकाश – को सम्मिलित तथा सन्तुलित रखते हुए निरन्तर क्रियाशील रहकर समस्त जड़ चेतन को जीवनी शक्ति प्रदान करती रहती है…
“विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतों निवेशनी |
वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निमिन्द्रऋषभा द्रविणो नौ दधातु ||” (अथर्ववेद 12/16)
सबका भरण पोषण करने वाली विश्वम्भरा, अन्न औषधि आदि के रूप में समस्त वसुओं को धारण करने वाली वसुधानी अर्थात वसुधा, समस्त चराचर की प्रतिष्ठा अर्थात आधार, समस्त हितकारी स्वर्णादिक पदार्थों तथा वनस्पतियों को अपने वक्ष में धारण करने वाली हिरण्यवक्षा, वैश्वानर अर्थात समस्त जनों के कल्याणार्थ अग्नि को धारण करने वाली भू देवी हमारे लिए धन तथा स्वास्थ्य प्रदान करे |
साथ ही मानव को चेताया भी गया है कि पृथिवी का अकारण दोहन प्राणिमात्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है… और इसीलिए प्रार्थना भी की गई है कि…
“यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु | मां ते मर्म विमृग्वरी या ते हृदयमर्पितम् ||” (अथर्ववेद 12/1/35) हे माता, हम जो तुम्हें हानि पहुँचा रहे हैं उसकी क्षतिपूर्ति भी शीघ्र ही हो जाए |
आज जितना अधिक दोहन पृथिवी का हो रहा है – अमर्यादित खनन हो रहा है कहीं किसी अनुसन्धान के नाम पर तो कहीं अन्य किसी प्रकार के मनुष्य के लोभी स्वभाव के कारण उसी सबका परिणाम है कि धरा के गर्भ में दरारें पड़ने के समाचार हमें जब तब प्राप्त होते रहते हैं | अपने लोभ के कारण हम इतना भी ध्यान नहीं रखते कि पृथिवी ही आत्मा से परमात्मा के मिलन का प्रमुख स्थान है…
क्या ही अच्छा हो आज मनुष्य पुनः उसी वैदिक मार्ग का अनुसरण आरम्भ कर दे जहाँ न केवल पृथिवी माता का अपितु समस्त चराचर का सम्मान किया जाता था पूर्ण श्रद्धा भाव से तथा समस्त चराचर में अपनी ही आत्मा का निवास माना जाता था…