अन्तस् में प्रवाहित नदी

अन्तस् में प्रवाहित नदी

अन्तस् में प्रवाहित नदी 

(प्रस्तुत लेख कुछ वर्ष पूर्व कुम्भ के अवसर पर अमर उजाला में प्रकाशित हुआ था…)

प्रयाग में त्रिवेणी संगम पर गंगा और यमुना का मिलन तो दीखता है लेकिन सरस्वती अदृश्य है | कुम्भ पर्व के अवसर पर प्रस्तुत है वैदिक काल से आराध्य इस नदी के लुप्त होने और बने रहने का मर्म…

कुम्भ पर्व हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है | हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में हर बारहवें वर्ष इस पर्व का आयोजन किया जाता है | हरिद्वार और प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के मध्य छः वर्ष के अन्तराल पर एक अर्धकुम्भ भी होता है | माना जाता है कि पवित्र गंगा और यमुना के मिलन स्थल पर आर्यों ने प्रयाग तीर्थ की स्थापना की थी | साथ ही माना जाता है कि यहाँ सरस्वती नदी भी गुप्त रूप में गंगा और यमुना से मिलती है | संगम तट पर, जहाँ कुम्भ मेले के आयोजन होता है वहीं भारद्वाज ऋषि का प्राचीन आश्रम भी है | इसे विष्णु नगरी भी कहा जाता है और महाभारत के अनुसार माना जाता है कि सृष्टि की रचना के पश्चात यहीं पर ब्रह्मा ने प्रथम यज्ञ भी किया था | कुम्भ पर्व का आयोजन समुद्र मन्थन की पौराणिक कथा से सम्बद्ध है, जब देव दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से अमृत कुम्भ प्राप्त हुआ था | अमृत कुम्भ दानव भी हड़प कर जाना चाहते थे | बारह दिनों तक दैत्य और दानवों में उस कलश के लिये युद्ध होता रहा | इस युद्ध के कारण कलश से अमृत की कुछ बूँदें पृथिवी पर प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में छलक गईं | उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से अमृत की रक्षा की, सूर्य ने घट को स्फुटित होने से अर्थात फूटने से बचाया, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से बचाया और शनि ने इन्द्र के भय से घट की रक्षा की | अन्त में भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर यथाधिकार सबके मध्य उस अमृत का बँटवारा किया तब युद्ध शान्त हुआ | जिस समय में चन्द्र, सूर्य और गुरु ने कलश की रक्षा की थी उस समय की राशियों पर रक्षा करने वाले सूर्य चन्द्र आदि ग्रह जब जब आते हैं तो उस योग में कुम्भ का आयोजन होता है | अर्थात जिस वर्ष जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और गुरु का संयोग होता है उसी वर्ष उसी योग में जहाँ जहाँ अमृत की बूँदें गिरी थीं वहाँ वहाँ कुम्भ पर्व होता है | ब्रह्म पुराण और विष्णु पुराणों के अनुसार इस महाकुम्भ में स्नान करना करोड़ों अश्वमेध यज्ञ जैसा फल देता है | ऋग्वेद में भी इसका महत्व प्रतिपादित किया गया है |

सरस्वती (सरस वती) नदी के सन्दर्भ में अनेक प्रकार की खोजें खोज निरन्तर चलती ही रहती हैं | प्रस्तुत लेख की लेखिका न तो कोई पुरातत्व या भूगर्भ वैज्ञानिक है, न ही वेद शास्त्रों में पारंगत है, तथापि जो कुछ पढ़ा और समझा उसी के आधार पर कुछ लिखने का प्रयास किया है | मान्यता है कि इलाहाबाद में त्रिवेणी में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियाँ मिलती हैं | महाभारत में प्राप्त वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी हरियाणा में यमुना नगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा नीचे आदि बदरी नामक स्थान से निकलती थी | आदि बदरी एक प्राचीन तीर्थ है, जिसके विषय में कहा जाता है कि सतयुग, त्रेता और द्वापर में भगवान विष्णु यहीं निवास करते थे और इसे ही सरस्वती नदी का उद्गम स्थल माना जाता है | बाद में कलियुग में भगवान विष्णु उत्तराँचल के बद्रीनाथ धाम चले गए | भगवान विष्णु के सात मुख्य मन्दिरों में – जिन्हें सप्त बदरी भी कहा जाता है – आदि बदरी का महत्व इसलिये भी है कि माना जाता है यहीं महर्षि व्यास ने श्रीमद्भागवत की रचना की थी | जहाँ आदि बदरी मन्दिर, शिव मन्दिर, मन्त्रा देवी के मन्दिर के साथ साथ सरस्वती नदी का एक कुण्ड भी है | वेदों में सरस्वती का उल्लेख ज्ञान और वाणी की देवी तथा जल के समान पवित्रता के रूप में आता है साथ ही ऋग्वेद में कहा गया है कि सरस्वती ऐसी नदी है जो पर्वतों से निकलकर पूर्ण शुद्धता के साथ असीमित दूरी तक जाती है | वैदिक और महाभारतकालीन वर्णन के अनुसार इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त और कुरुक्षेत्र थे | भारतीय पुरातत्व परिषद् के अनुसार सरस्वती का उद्गम उत्तराँचल में रूपण नाम के ग्लेशियर से होता था, जिसे सरस्वती ग्लेशियर भी कहा जाता है | नैतवार में आकर यह हिमनद जल में परिवर्तित हो जाता था और फिर आदि बदरी से होती हुई यह सरस्वती नदी आगे चली जाती थी | वैदिक काल में सरस्वती नदी सबसे विशाल नदी थी | सरस्वती – जिसका कि शाब्दिक अर्थ है अनेक सरोवरों से युक्त, अर्थात् छोटी बड़ी कई नदियाँ इस नदी में आकर मिलती थीं | ऋग्वेद के नदी सूक्त में एक मन्त्र (10/75) में सरस्वती नदी को यमुना के पूर्व और सतलुज के पश्चिम में प्रवाहित बताया गया है | वहाँ वर्णन मिलता है इमे में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरुद्वधे वितस्त्यार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया |” साथ ही इसे नदीतमा अर्थात् सब नदियों में श्रेष्ठ नदी की उपाधि दी गई है | ऋग्वेद के ही 7/9/52 में इसे दूध और घी से परिपूर्ण बताया गया है तथा 7/36/6 में इसे सप्तसिन्धु नदियों की जननी बताया गया है | यजुर्वेद की वाजसेनीय संहिता के 34/11 में उल्लेख है कि पाँच नदियाँ सरस्वती नदी में आकर मिलती थीं | ये पाँच नदियाँ सम्भवतः सतलुज, रावी, व्यास, चेनाव और यमुना ही रही होंगी | श्रीमद्भागवत में यमुना और दृषद्वती के साथ सरस्वती का उल्लेख है मन्दाकिनीयमुनासरस्वतीदृषद्वती गोमतीसरयु (5/19/98) वाल्मीकि रामायण में अयोध्याकाण्ड के 71वें सर्ग में भरत जब कैकेय देश से अयोध्या आते हैं तो सरस्वती, यमुना और गंगा नदियों को पार करते हैं सरस्वती च गंगा च युग्मेंन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानाम् भारुंडम् प्राविशद्वनम् |” अर्थात्, पश्चिमवाहिनी सरस्वती तथा गंगा की धारा विशेष के संगम से होते हुए उन्होंने वीरमत्स्य देश के उत्तरवर्ती देशों में पदार्पण किया और वहाँ से आगे बढ़कर भारुण्डवन में चले गए | कैकेय अविभाजित पंजाब के उत्तर पश्चिम में व्यास और सरस्वती धारा पर स्थित था |

महाभारत के अनुशासन पर्व में भी सरस्वती नदी के “विनाशन” नामक स्थान पर विलुप्त होने का वर्णन मिलता है साथ ही प्लक्षवती, वेदवती आदि कई अन्य नाम भी प्राप्त होते हैं | हिरणवती वितस्ता च तथा प्लक्षवती नदी, वेदस्मृतिर्वेदवती मालवाथाश्ववत्यपि ||” शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में 35वें अध्याय से 54वें अध्याय तक बलराम की तीर्थयात्रा के सन्दर्भ में सरस्वती नदी के तटवर्ती तीर्थों का विस्तार से उल्लेख मिलता है ततो मन्युपरीतात्मा जगाम यदुनन्दनः, तीर्थयात्राम् हलधर: सरस्वत्यां महायशा: |” – मन ही मन कुपित और खिन्न महायशस्वी बलराम सरस्वती के तट पर तीर्थ यात्रा के लिये चल पड़े (गदा पर्व 35/13) इसी प्रकार इन 20 अध्यायों में केवल सरस्वती नदी तथा उसके तटवर्ती तीर्थों का ही उल्लेख है प्रतिस्रोत: सरस्वत्या गच्छध्वं शीघ्रगामिन: (35/19) तीर्थयात्रां ययौ राजन् कुरूणां वैशसे तदा, सरस्वतीं प्रतिस्रोत: समन्तादभिजग्मिवान |” – कुरुक्षेत्र में ही तीर्थयात्रा करते हुए सरस्वती के दोनों तटों पर पहुँचे (35/21) और जब जनमेजय पूछते हैं सारस्वतानां तीर्थानां गुणोपात्त वदस्व मे (35/38) – मुझे सरस्वती के तट पर स्थित तीर्थों के गुण और प्रभाव आदि के विषय में बताइये तब वैशम्पायन विस्तार से प्रभास तीर्थ, चमसोद्भेद, उदपान तीर्थ, विनशन तीर्थ आदि सरस्वती नदी के तट पर बसे अनेकों तीर्थों की चर्चा करते हैं – “ततस्तु चमसोद्भेदमच्युतस्वगमद् बली, चमसोद्भेद इत्येवं यं जना: कथयन्त्युत |” (35/87) और इसी विनशन तीर्थ में सरस्वती के विलुप्त होने की चर्चा भी करते हैं ततो विनशनं राजन् जगामाथ हलायुध:, शूद्राभीरान् प्रति द्वेषाद् यत्र नष्टा सरस्वती – बलराम विनशन तीर्थ पहुँचे जहाँ दो वर्गों के परस्पर द्वेष के कारण सरस्वती अदृश्य हो गई है (37/1) किन्तु पुनः आगे जाकर चमसोद्भेद में प्रकट हो गई थीं – चमसेऽथ शिवोद्भेदे नागोद्भेदे च दृश्यते, स्नात्वा तु चमसोद्भेदे अग्निष्टोमफलं लभेत |” इसी स्थान पर अगस्त्य और लोपामुद्रा का विवाह सम्पन्न हुआ था | महात्मा गर्ग ने इसी नदी के तट पर गर्गस्रोत नामक तीर्थ में तपस्या करके काल का ज्ञान, गति, ग्रहों नक्षत्रों के परिवर्तन, दारुण उत्पात तथा शुभ लक्षण आदि ज्योतिषीय ज्ञान प्राप्त किया था (37/14-16) सरस्वती के तटवर्ती क्षेत्र बहुत हरे भरे फल पुष्पादि के वृक्षों से युक्त थे तथा वहाँ की धरती सोना उगलती थी | दूध दही की नदियाँ बहती थीं | पुष्कर, ब्रह्म सरोवर आदि समस्त तीर्थों तक जाकर वहाँ तपस्या कर रहे ऋषि मुनियों को अपने जल से आप्लावित कर सरस्वती वापस पश्चिम की ओर लौट गई थीं ततो निवृत्य राजेन्द्र तेषामर्थे सरस्वती, भूय: प्रतीच्यभिमुखी प्रसुस्राव सरिद्वरा (38/55) और ये सभी स्थल हरियाणा, राजस्थान और उसके आस पास के भू भाग पर ही स्थित हैं | कालिदास महाभारत का युद्धक्षेत्र ब्रह्मावर्त क्षेत्र में सरस्वती के किनारे स्थित कुरुक्षेत्र को बताते हैं ब्रह्मावर्तं जन्पद्माथाच्छायया गाहमान: क्षेत्रं क्षत्रप्रधानपिशुन कौरवं तद्भजेथा: | राजन्यानां शितशरशतैर्यत्र गाण्डीवधन्वा धारापातैस्त्वमपि कमलान्यभ्यवर्षन्मुखानि ||” – उसके बाद ब्रह्मावर्त जनपद के ऊपर अपनी परछाईं डालते हुए क्षत्रियों के विनाश की सूचक कुरुक्षेत्र की उस भूमि में जाना जहाँ गाण्डीवधारी अर्जुन ने अपने तीखे बाणों की वर्षा से राजाओं के मुखों पर ऐसी झड़ी लगा दी थी जैसी कि तुम जल की मूसलाधार वर्षा कमलों के ऊपर करते हो | (मेघदूत)

वैदिक काल में दृषद्वती नदी का वर्णन भी मिलता है, जो सरस्वती की सहायक नदी थी और हरियाणा तथा राजस्थान से ही होकर बहती थी | जिसका इतिहास 4000 वर्ष पूर्व का माना जाता है | सरस्वती नदी के तट पर बसी सभ्यता को हड़प्पा या सिन्धु-सरस्वती सभ्यता कहा जाता है | यदि इसे वैदिक ऋचाओं से अलग करके देखा जाएगा तो सरस्वती नदी मात्र एक नदी बनकर ही रह जाएगी, सभ्यता समाप्त हो जाएगी | हड़प्पा सभ्यता की जो 2600 बस्तियाँ प्रकाश में आई हैं उनमें से सिन्धु तट पर मात्र 265 बस्तियाँ ही हैं, शेष सभी सरस्वती नदी के तट पर उपलब्ध हुई हैं | अब जो नई नई शोध सामने आ रही हैं उनसे पता चलता है कि सरस्वती नदी का सिन्धु सभ्यता के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान रहा है | वैज्ञानिक और भूगर्भीय खोजों से पता चला है कि किसी समय इस क्षेत्र में भीषण भूकम्प आए जिनके कारण पहाड़ ऊपर उठ गए और सरस्वती नदी का जल स्तर पीछे जाते जाते अन्त में नदी विलुप्त हो गई | भूकम्प के समय जब ज़मीन ऊपर उठी तो सरस्वती का कुछ पानी यमुना में भी जा मिला और यमुना के जल के साथ साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा | केवल इसीलिये प्रयाग में तीनों नदियों का संगम माना जाता है | जबकि यथार्थ में वहाँ केवल यमुना और गंगा ही प्रवाहित होती हैं | महाभारत में भी कहा गया है गंगायमुनयोस्तीर्थे तथा कालंजरे गिरौ, दशाश्वमेधानाप्नोति तत्र मासं कृतोदक: (अनुशासनपर्व 25/35) – गंगा यमुना के संगम तीर्थ में तथा कालंजर तीर्थ में एक मास तक स्नान और तर्पण करने से दस अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है | तथा दशतीर्थसहस्राणि तिस्त्र: कोट्यस्तथा परा:, समागच्छन्ति माध्यां तु प्रयागे भरतर्षभ || माघमासं प्रयागे तु नियत: संशितव्रत:, स्नात्वा तु भरतश्रेष्ठ निर्मल: स्वर्गमाप्नुयात् ||” (25/36,37) – माघ मास की अमावस्या को प्रयागराज में तीन करोड़ दस हज़ार अन्य तीर्थों का समागम होता है, जो नियमपूर्वक माघ माह में प्रयाग में स्नान करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो स्वर्ग में जाता है | सम्भवतः इसीलिये माघ माह की अमावस्या, जिसे मौनी अमावस्या भी कहते हैं, के दिन कुम्भ पर्व का सबसे बड़ा स्नान होता है |

अन्त में, सरस्वती कभी प्रयाग तक पहुँच ही नहीं पाई | गंगा-यमुना के संगम स्थल को पुराणों में तीर्थराज कहा गया है | इस संगम के विषय में ऋग्वेद में कहा गया है कि जहाँ कृष्ण और श्वेत जल वाली दो सरिताओं का संगम है वहाँ स्नान करने से मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है | इस प्रकार वैदिक, पौराणिक और भूगर्भ वैज्ञानिक समस्त मान्यताएँ सरस्वती को प्रयाग नहीं पहुँचाती हैं | यह नदी पहाड़ों से निकलती थी और मैदानों से होती हुई अरब सागर में जाकर विलीन हो जाती थी | उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत कुछ सूख चुकी थी, किन्तु फिर भी बरसात में इसमें काफ़ी पानी चढ़ आया करता था | भूगर्भीय उथल पुथल के कारण इसका पानी गंगा में चला गया | भूकम्प आने के कारण ज़मीन के ऊपर उठने से इसका पानी यमुना में भी गिर गया | और इस प्रकार यह नदी तो विलीन हो गई पर इसका जल गंगा और यमुना के साथ एकरूप हो गया | इसीलिये प्रयाग में तीनों नदियों का संगम माना जाता है | जबकि यथार्थ में वहाँ केवल यमुना और गंगा ही प्रवाहित होती हैं | सरस्वती नदी अपने स्थूल रूप में कभी प्रयाग तक पहुँच ही नहीं पाई | भौगोलिक दृष्टि से वह प्रतीक रूप में ही पहुँची | उस संगम पर बारह वर्ष में मनाए जाने वाले कुम्भ पर या प्रतिवर्ष माघस्नान अथवा कल्पवास अथवा संगम स्नान में जिस सरस्वती नदी का आह्वान किया जाता है वह लोक श्रद्धा में ही बसी हुई है | वहाँ उसका निवास किसी भी स्थूल उपस्थिति से जीवन्त और महत्वपूर्ण है |