जल के महत्त्व का पर्व निर्जला एकादशी
बारह हिन्दी मासों में कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की कुल मिलाकर चौबीस एकादशी आती हैं | अधिक मास होने पर इनकी संख्या छब्बीस भी हो जाती है | हिन्दू सम्प्रदाय में एकादशी व्रत का बहुत महत्त्व माना गया है | इनमें ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है | इस उपवास में जल भी ग्रहण न करने का संकल्प लिया जाता है इसीलिए इसे निर्जला एकादशी कहते हैं | पद्म पुराण में प्रसंग आता है कि महर्षि वेदव्यास ने जब पाँचों पाण्डवों को चतुर्विध पुरुषार्थ – धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष – का फल देने वाले एकादशी व्रत का संकल्प कराया तो भीम ने कहा “पितामह, आप पक्ष में एक बार भोजन त्यागने की बात कहते हैं, किन्तु मैं तो एक दिन क्या, एक समय भी भोजन किये बिना नहीं रह सकता | मेरे उदर में स्थित “वृकाग्नि” को शान्त रखने के लिए मुझे दिन में कई बार भोजन करना पड़ता है | तो मैं भला ये व्रत कैसे कर पाऊँगा ? और यदि यह व्रत नहीं करूँगा तो इसके पुण्य से वंचित रह जाऊँगा |”
पितामह महाबुद्धे कथयामि तवाग्रतः, एकभक्ते न शक्नोमि उपवासे कुतः प्रभो
वृको हि नाम यो वह्नि: स सदा जठरे मम, अतिबेलं यदाSश्नामि तदा समुपशाम्यति
नैकं शक्नोम्यहं कर्तुमुपवासं महामुने || – पद्मपुराण उत्तरखण्ड 52 / 16-18
तब मुनि वेदव्यास ने भीम का मनोबल बढ़ाते हुए उन्हें समझाया कि “हे कुन्ती पुत्र ! धर्म की यही विशेषता होती है कि वह केवल सबका धारण ही नहीं करता अपितु व्रत-उपवास के नियमों को सबके द्वारा सरलता से पालन करने योग्य भी बनाता है | तुम केवल एक ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में जब सूर्य वृषभ अथवा मिथुन राशिगत हो उस समय की एकादशी का व्रत पालन करो और वह भी निर्जल | केवल इसी व्रत के पालन से तुम्हें समस्त एकादशी के व्रत का फल प्राप्त हो जाएगा |”
वृषस्थे मिथुनस्थे वा यदा चैकादाशी भवेत्, ज्येष्ठमासे प्रयत्नेन सोपोष्योदकवर्जिता – पद्मपुराण 52 / 20
इस वर्ष मंगलवार 30 मई को दिन में एक बजकर नौ मिनट के लगभग सिंह लग्न, वणिज करण और सिद्धि योग में एकादशी तिथि का आगमन होगा, जो 31 मई को दिन में 1:46 तक रहेगी | उदया तिथि होने के कारण 31 मई को ही ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी का निर्जल व्रत रखा जाएगा |
गायत्री जयन्ती भी इसी दिन है | गायत्री मन्त्र में चारों वेदों का सार निहित होने के कारण भगवती गायत्री को वेदों की जननी “वेदमाता” भी कहा जाता है | मान्यता है कि ब्रह्मा के सभी असाधारण तथा दृश्य धर्म-गुण-भाव-लक्षणों का प्रत्यक्ष स्वरूप माता गायत्री हैं – इसीलिए जो व्यक्ति गायत्री मन्त्र के पुरुश्चरण कर लेता है उसे सभी मन्त्र सरलता से सिद्ध हो जाते हैं | यह भी माना जाता है कि गायत्री भगवती सरस्वती, देवी पार्वती और देवी लक्ष्मी का एक मिश्रित मूर्त रूप है | त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी इनकी उपासना करते हैं | कुछ स्थानों पर श्रावण मास की पूर्णिमा को भी गायत्री जयन्ती मनाई जाती है और यह प्रायः उपाकर्म के साथ आती है | पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना आरम्भ की तब गायत्री मन्त्र का प्राकट्य हुआ | उन्होंने ही सर्वप्रथम गायत्री का आह्वान किया और अपने मुख से गायत्री मन्त्र की व्याख्या की – जिनसे बाद में चारों वेदों की उत्पत्ति हुई | गायत्री मन्त्र का जाप जिस भी उद्देश्य से किया जाता है वह कार्य निश्चित रूप से पूर्ण होता है | इसके विषय में भी एक कथा उपलब्ध होती है, जिसके अनुसार ब्रह्मा जी को एक यज्ञ में प्रवृत्त होना था, किन्तु उनकी पत्नी सावित्री वहाँ उपस्थित नहीं थीं | कोई भी यज्ञ अथवा धार्मिक कृत्य तब तक सफल नहीं होता जब तक पति-पत्नी साथ मिलकर उसे न करें | तब ब्रह्मा जी ने गायत्री से विवाह कर लिया और इस प्रकार उनका यज्ञ सफल हुआ | यही कारण है कि गायत्री मन्त्र के जाप को समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाला मन्त्र माना जाता है |
पद्म पुराण में वर्णित भीमसेन के वृत्तान्त के ही कारण इस एकादशी को भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है | इसी अध्याय में आगे कहा गया है –
ज्येष्ठे मासि तु वै भीम ! या शुक्लैकादशी शुभा
निर्जला समुपोष्यात्र जल्कुम्भान्सशर्कारान् |
प्रदाय विप्रमुखेभ्यो मोदते विष्णुसन्निधौ
ततः कुम्भा: प्रदातव्या ब्राह्मणानां च भक्तित: || – पद्मपुराण 52 / 61,62
अर्थात निर्जला एकादशी के दिन जल और शर्करा से युक्त घट का दान करने से भगवान विष्णु का सान्निध्य प्राप्त होता है | इसी प्रकार के अन्य पौराणिक उपाख्यानों के कारण हिन्दू समाज में मान्यता आज तक भी विद्यमान है कि यदि हम “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” का जाप करते हुए निर्जला एकादशी के व्रत का पालन करेंगे और गऊ, वस्त्र, छत्र, फल, मीठा शरबत तथा कलश इत्यादि का दान करेंगे तो हमें भगवान विष्णु का सान्निध्य प्राप्त होगा | हर गली मोहल्ले के चोराहे पर, घरों के दरवाजों पर, सोसायटीज़ के गेट्स पर इस दिन लोग तरह तरह के शर्बतों से भरे बर्तन रख कर या तरबूज़ आदि लेकर हर राहगीर की प्यास बुझाते मिल जाएँगे |
ज्येष्ठ मास की तपती दोपहर में शीतलता प्रदान करने वाली वस्तुएँ दान करना वास्तव में एक स्वस्थ प्रथा है | लेकिन क्या इसका पालन केवल एक ही दिन होना चाहिए – वह भी इस भावना से कि ऐसा करके हमें पुण्य प्राप्त होगा ? क्या ही अच्छा हो यदि ये समस्त कार्य हम धर्म के भय या मोक्ष अथवा ईश्वर प्राप्ति के लालच से न करके मानवता के नाते करें… क्योंकि हर जीव ईश्वर का ही तो प्रतिरूप है… जब भी ऐसा हो जाएगा तो “निर्जला एकादशी” केवल एक दिन का पर्व भर बनकर नहीं रह जाएगी… हर दिन हर दीन हीन को गर्मी से राहत दिलाने के लिए शीतल पेय दान के रूप में उपलब्ध हो सकेगा…
प्राचीन काल में तो ज्येष्ठ मास की तपती दोपहरी में भी अधिकाँश लोग पैदल अथवा खुली बैलगाड़ियों, ऊँट आदि के माध्यम से यात्रा किया करते थे | थक जाने पर मार्ग में खड़े घने वृक्षों की छाया में कुछ पल विश्राम कर लिया करते थे | साथ में मिट्टी के घड़ों में जल लेकर चलते थे | वह भी गर्मी में समाप्त हो जाता था | ऐसे में जहाँ रुके वहाँ आस पास कहीं जलाशय हुआ तो वहाँ पुनः घड़ों में जल भर लिए और हाथ मुँह धोकर साथ लाए फल आदि ग्रहण कर लिए और फिर आगे अपने गन्तव्य की ओर बढ़ चले | उन राहगीरों की सहायता के लिए मार्ग में स्थित ग्रामवासी भी दौड़े चले आते थे जल से पूर्ण पात्र और फलादि लेकर ताकि उन राहगीरों की भूख प्यास बुझा सकें | और ऐसा मात्र एकादशी के दिन ही नहीं होता था, दिन प्रतिदिन का यही नियम था |
निर्जला एकादशी के दिन निर्जल व्रत रखने के पीछे एक यह भी कारण हो सकता है कि इस दिन गर्मी अपने चरम पर होती है जिसके कारण जल का महत्त्व और भी बढ़ जाता है | सम्भवतः इसीलिए जन साधारण को जल का महत्त्व समझाने के लिए तथा उसके प्रति जन मानस में सम्मान का भाव बनाए रखने के लिए हमारे मनीषियों ने यह विधान बनाया हो कि इस दिन जो व्यक्ति स्वयं निर्जल रहकर दूसरों को जल का दान करेगा वह पुण्य का भागी होगा | क्योंकि धर्म के साथ जिस भाव को जोड़ दिया जाता है जन साधारण पूर्ण निष्ठा के साथ उसका पालन करता है | आज इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि नदियों का जलस्तर धीरे धीरे घट रहा है | इसके बाद भी हम लोग जल का अपव्यय करते हैं | आवश्यक कार्यों के लिए तथा पीने के लिए जल का प्रयोग आवश्यक है | किन्तु हम लोग अपनी असावधानियों के चलते नलकों को खुला छोड़कर न जाने कितना पानी व्यर्थ बहा देते हैं | यदि हम निर्जला एकादशी के दिन जल को संरक्षित करने का संकल्प ले लें, और वर्षा के जल को भी संग्रहण करने का प्रयास करने लग जाएँ तो यह भी निर्जला एकादशी के व्रत की ही भाँति पुण्य प्रदान करने वाला कार्य होगा, क्योंकि ऐसा करके भविष्य में होने वाले जल के अभाव से बहुत सीमा तक मुक्ति प्राप्त की जा सकती है… सभी स्वस्थ रहें यही ईश्वर से प्रार्थना है…