सूर्य को अर्घ्य प्रदान करना
“ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् |” यजु. 36/3
हम सब उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को अपनी अन्तरात्मा में धारण करें, और वह ब्रह्म हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे |
सूर्यदेव का समस्त प्राणियों पर, वनस्पतियों पर अर्थात समस्त प्रकृति पर – जड़ चेतन पर – कितना प्रभाव है – इसका वर्णन गायत्री मन्त्र में देखा जा सकता है | इस मन्त्र में भू: शब्द का प्रयोग पदार्थ और ऊर्जा के अर्थ में हुआ है – जो सूर्य का गुण है, भुवः शब्द का प्रयोग अन्तरिक्ष के अर्थ में, तथा स्वः शब्द आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है | शुद्ध स्वरूप चेतन ब्रह्म भर्ग कहलाता है | इस प्रकार इस मन्त्र का अर्थ होता है – पदार्थ और ऊर्जा (भू:), अन्तरिक्ष (भुवः), और आत्मा (स्वः) में विचरण करने वाला सर्वशक्तिमान ईश्वर (ॐ) है | उस प्रेरक (सवितु:), पूज्यतम (वरेण्यं), शुद्ध स्वरूप (भर्ग:) देव का (देवस्य) हमारा मन अथवा बुद्धि धारण करे (धीमहि) | वह परमात्मतत्व (यः) हमारी (नः) बुद्धि (धियः) को अच्छे कार्यों में प्रवृत्त करे (प्रचोदयात्) |
सूर्य समस्त चराचर जगत का प्राण है यह हम सभी जानते हैं | पृथिवी का सारा कार्य सूर्य से प्राप्त ऊर्जा से ही चलता है और सूर्य की किरणों से प्राप्त आकर्षण से ही जीवमात्र पृथिवी पर विद्यमान रह पाता है | गायत्री मन्त्र का मूल सम्बन्ध सविता अर्थात सूर्य से है | गायत्री छन्द होने के कारण इस मन्त्र का नाम गायत्री हुआ | इसका छन्द गायत्री है, ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं | इस मन्त्र में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है, जिसके कारण प्राणों का प्रादुर्भाव होता है, पाँचों तत्व और समस्त इन्द्रियाँ सक्रिय हो जाती हैं और लोक में अन्धकार का विनाश हो प्रकाश का उदय होता है | जीवन की चहल पहल आरम्भ हो जाती है | नई नई वनस्पतियाँ अँकुरित होती हैं | एक ओर जहाँ सूर्य से ऊर्जा प्राप्त होती है वहीं दूसरी ओर उसकी सूक्ष्म शक्ति प्राणियों को उत्पन्न करने तथा उनका पोषण करने के लिये जीवनी शक्ति का कार्य करती है | सूर्य ही ऐसा महाप्राण है जो जड़ जगत में परमाणु और चेतन जगत में चेतना बनकर प्रवाहित होता है और उसके माध्यम से प्रस्फुटित होने वाला महाप्राण ईश्वर का वह अंश है जो इस समस्त सृष्टि का संचालन करता है | इसका सूक्ष्म प्रभाव शरीर के साथ साथ मन और बुद्धि को भी प्रभावित करता है | यही कारण है कि गायत्री मन्त्र द्वारा बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना सूर्य से की जाती है | अर्थात् सूर्य की उपासना से हम अपने भीतर के कलुष को दूर कर दिव्य आलोक का प्रस्तार कर सकते हैं | इस प्रकार सूर्य की उपासना से अन्धकार रूपी विकार तिरोहित हो जाता है और स्थूल शरीर को ओज, सूक्ष्म शरीर को तेज तथा कारण शरीर को वर्चस्व प्राप्त होता है | सूर्य के इसी प्रभाव से प्रभावित होकर सूर्य की उपासना ऋषि मुनियों ने आरम्भ की और आज विविध अवसरों पर विविध रूपों में सूर्योपासना की जाती है | और इसी कारण से प्रतिदिन सूर्योदय काल में सूर्य को अर्घ्य देने की प्रथा है | बहुत से लोग इसे केवल एक दकियानूसी विचार मानते हैं | किन्तु हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे ऋषि मुनियों ने सहस्रों वर्ष पूर्व अपने गहन अध्ययन और अनुभवों के आधार पर समाज कल्याण की भावना से इन क्रियाओं और परम्पराओं का प्रतिपादन किया था |
उत्तम स्वास्थ्य के लिए जितनी आवश्यकता शुद्ध वायु की होती है उतनी ही प्रकाश और ऊर्जा की भी होती है | ऊर्जा सूर्य से प्राप्त होती है | इसीलिए सूर्य को अर्घ्य प्रदान करने की क्रिया को धर्म से जोड़ दिया गया | क्योंकि लगभग हर व्यक्ति की ही धर्म में ऐसी आस्था होती है कि जिस भी प्रथा को धर्म से जोड़ दिया जाता है उसका पालन लोग पूर्ण आस्था के साथ करते हैं |
पारम्परिक रूप से भगवान भास्कर को अँजुलि में जल भरकर अर्पित किया जाता है | इसके लिए सूर्योदय के समय अथवा सान्ध्योपासना कर्म तथा पूजा अर्चना आदि के

समय हथेलियों को परस्पर जोड़कर उनकी अँजुलि बनाते हैं और उसमें जल भरकर सूर्य को अर्घ्य प्रदान करते हैं | वेदों में सूर्य को नेत्र कहा गया है | अँजुलि में भरे जल में प्रथमतः सूर्य किरणों की ऊर्जा उसमें समाहित हो जाती है और वही जल जब हम अँजुलि को झुकाकर अर्घ्य के रूप में समर्पित करते हैं तो उससे नि:सृत ऊर्जा द्विगुणित होकर हमारे शरीर के पाँचों तत्वों को पुनः ऊर्जावान बना देती है |
सूर्योदय से कुछ पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में नींद से जागकर स्नानादि से निवृत्त होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके अँजुलि बनाकर खड़े हो जाते हैं और किसी प्रवाहित जल से अँजुलि में जल भरकर सूर्य को अर्घ्य प्रदान करते हैं | यदि स्वतः प्रवाहित जल कहीं नहीं उपलब्ध है – विशेष रूप से महानगरीय संस्कृतियों में – वहाँ एक हाथ की अँजुलि की मुद्रा बनाकर दूसरे हाथ से उसमें मन्त्रोच्चार पूर्वक जल छोड़ते जाते हैं जो स्वतः प्रवाहित होता हुआ स्वयं मृत्तिका की वायु के माध्यम से सूर्य तक पहुँचता रहता है | अँजुलि मुद्रा से एक लाभ तो यह होता है कि हम समस्त प्रकृति की समर्पण भाव से प्रार्थना करते हुए उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए अपनी हथेलियों को अपने हृदय के केन्द्र में रखते हैं | क्योंकि यह मुद्रा समर्पण की – देने की मुद्रा है – जिसके कारण व्यक्ति के अहं का भी स्वतः नाश हो जाता है |
साथ ही, हमारे हाथों की पाँचों अँगुलियाँ पञ्च तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनसे यह शरीर निर्मित है | अँगुष्ठ अग्नि तत्व, तर्जनी वायु तत्व, मध्यमा आकाश, अनामिका पृथिवी तथा कनिष्ठिका जल तत्व का प्रतिनिधित्व करती है | इस प्रकार जब हम अँजुलि में भरकर कुछ भी समर्पित करते हैं तो वह ऊर्जा शरीर के पाँचों तत्वों को प्राप्त होती है | और सूर्य तो है ही ऊर्जा का – प्रकाश का – जीवनी शक्ति का प्रतिनिधि | इस प्रकार अँजुलि से अर्घ्य प्रदान करते हैं तो हम अपने शरीर के साथ साथ समूची पञ्च तत्वात्मिका प्रकृति को भी सूर्य की ऊर्जा प्रदान करते हैं जिसके कारण सूर्य को प्रदत्त उस जल का समुचित उपयोग करके प्रकृति जीवमात्र को पुष्ट बनाती रहती है | इसके अतिरिक्त अँगुलियों से चेतना का भी सम्बन्ध होता है – अँगुष्ठ के माध्यम से सार्वभौम चेतना और तर्जनी के माध्यम से व्यक्तिगत चेतना को इंगित किया जाता है | अँजुलि से अर्घ्य देते समय उससे प्राप्त ऊर्जा से हम सार्वभौम और व्यक्तिगत चेतना को भी जागृत करने का प्रयास करते हैं |
कालान्तर में धातुनिर्मित पात्रों की वृद्धि होती चली गई | परिवार जलाशयों से दूर जाकर बसना आरम्भ होते गए जिसके कारण अँजुलि में स्वतः प्रवाहित जल भरकर अर्घ्य प्रदान करना असम्भव होता गया | बहुत से लोगों को तो सूर्याभिमुख बाल्कनी अथवा छज्जा भी उपलब्ध नहीं होता | तब ताँबे के बर्तन का प्रचलन हुआ और टोंटी वाले पात्र से जल देना आरम्भ हुआ | उस पात्र को भी अँजुलि में भरकर उसकी टोंटी से धीरे धीरे स्वतः प्रवाहित जलधारा के समान जल समर्पित किया जाता है |
सूर्योदय के समय सूर्य को जल समर्पित करना सबसे स्वस्थ प्रक्रिया है क्योंकि उस समय उदित होते सूर्य की किरणें मनुष्य के लिए स्वास्थ्यवर्धक होती हैं | जैसे जैसे सूर्य ऊपर आता जाता है उसकी किरणों में परा बैंगनी यानी अल्ट्रा वायलेट प्रभाव बढ़ जाता है जो स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं माना जाता | सभी जानते हैं सूर्य की किरणें विटामिन डी का प्रमुख स्रोत हैं जो हमारी अस्थियों के लिए उपयोगी है | नेत्र ज्योति में वृद्धि होती है | अर्घ्य देते समय हृदय स्थल सूर्य की ओर होने से हृदय को ऊर्जा प्राप्त होती है और हृदय रोगों की सम्भावना कम हो जाती है | स्नान के पश्चात सूर्य को अर्घ्य प्रदान किया जाता है – इसका वैज्ञानिक कारण यही है कि स्नान से शरीर का मैल दूर होकर रोमछिद्र खुल जाते हैं और प्रातःकालीन सूर्य की किरणें रोमछिद्रों द्वारा ग्रहण कर ली जाती हैं जिनके कारण त्वचा सम्बन्धी रोगों में भी कमी आ सकती है | सूर्य की किरणों में सातों रंगों का समावेश माना जाता है | इन इन्द्रधनुषी किरणों में अद्भुत रोगनाशक क्षमता होती है |
साथ ही जब हम सूर्य को ही नहीं किसी भी देवी देवता अथवा प्राणी को भी जल देते हैं तो हमारा ध्यान वहीं केन्द्रित हो जाता है और कुछ समय के लिए सभी चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है | इस प्रकार अर्घ्य प्रदान करना मानसिक शान्ति के लिए भी उपयोगी है | कुछ दिनों के लिए सूर्य को अर्घ्य प्रदान करने का नियम बनाइये – देखिये कितनी अधिक शान्ति का अनुभव आप करने लगेंगे | यदि प्रातःकाल किन्हीं कारणों से जल नहीं दे पाते हैं तो सूर्यास्त से कुछ पूर्व भी यह कार्य किया जा सकता है | बिहार में होने वाली छठ पूजा इसी का प्रतीक है जिसमें उदित होते और अस्ताचलगामी सूर्य दोनों को अर्घ्य प्रदान किया जाता है |
एक और विशेष तथ्य है कि जब हम सूर्य को अथवा किसी भी स्थान पर अर्घ्य प्रदान करते हैं तो वह मिट्टी में मिला हुआ जल पुनः वाष्पीकृत होकर वर्षा के रूप में धरा को प्राप्त होता रहता है और हमारी वसुधा उस जल के अमृत से पुनः पुनः वसुमती बनती रहती है |
एक और विशेष बात, सूर्य को अर्घ्य देना हो या किसी अन्य प्रकार की पूजा अर्चना यज्ञ यागादि हों – सभी में प्राकृतिक धातुओं से निर्मित पात्रों का उपयोग किया जाता है – जैसे स्वर्ण, चाँदी, ताम्बा, पीतल, मिट्टी इत्यादि – मानव निर्मित धातुओं जैसे स्टील, लोहा, एल्यूमिनियम आदि का प्रयोग नहीं किया जाता है | इसका प्रमुख कारण यह भी है कि समय के साथ इनमें जंग लग जाती है अथवा किसी अन्य प्रकार से ये ख़राब हो जाती हैं | यही कारण है कि भोजन आदि के लिए भी इन धातुओं को उपयोगी नहीं माना जाता | इसलिए किसी भी प्रकार की पूजा अर्चना करनी हो तो प्राकृतिक धातुओं से निर्मित पात्र ही उपयोग में लाएँ | इसी प्रकार से यज्ञ के लिए भी लोहे के यज्ञ कुण्ड उपयोग में नहीं लाने चाहियें | अच्छा तो यही रहेगा कि ज़मीन पर कुछ ईंटों के ऊपर मिट्टी रेत आदि बिछाकर एक वेदी बनाएँ और उस पर यज्ञ कुण्ड बनाएँ |
साथ ही यदि किसी ऐसे स्थान पर हैं जहाँ स्टील अथवा प्लास्टिक के पात्र ही उपलब्ध हैं तो इस स्थिति में स्नान के समय नल के नीचे खड़े होकर गीले शरीर से ही पूर्व की ओर मुख करके अँजुलि में जल भरकर सूर्यदेव के मन्त्र बोलते हुए अर्घ्य प्रदान कर सकते हैं | याद रखिये, आपका शरीर प्राकृतिक पञ्चतत्वों से निर्मित है अतः अँजुलि से अधिक उपयुक्त पात्र कोई अन्य हो ही नहीं सकता अर्घ्य प्रदान करने के लिए…