तेजोमयी जलधाराएँ
गंगा सप्तमी, गंगा दशहरा, निर्जला एकादशी ये सभी पर्व जल के महत्त्व के प्रति जागरूकता प्रसारित करने के लिए आरम्भ किये गए थे जो हमारे धार्मिक जीवन का एक आवश्यक अंग बन चुके हैं | गुरूवार नौ जून को गंगा दशहरा का पर्व है – जिसे गंगावतरण भी कहा जाता है, और दस व ग्यारह जून को क्रमशः स्मार्तों और वैष्णवों की निर्जला एकादशी है | जल जीवन की अनिवार्य आवश्यकता होने के साथ ही प्रगति का संवाहक भी है | वैदिक साहित्य में जितने अधिक मन्त्र और स्तुतियाँ किसी न किसी रूप में जल के लिए उपलब्ध होती हैं उतनी सम्भवतः किसी अन्य देवता के लिए नहीं उपलब्ध होतीं | जल के देवता मित्र और वरुण को भाई माना गया है तथा ये द्वादश आदित्यों (मित्रावरुणौ – देवमाता अदिति के पुत्र) में गिने जाते हैं |
व्यावहारिक दृष्टि से भी देखें तो जल का सबसे अधिक उपयोग होता है क्योंकि इसके द्वारा जीवन को ऊर्जा और गति प्राप्त होती है | यदि मनुष्य को पौष्टिक और कर्मठ बने रहना है तो उसे शुद्ध जल का अधिकाधिक सेवन करने की सलाह दी जाती है | क्योंकि जल का मुख्य गुण है नमी और शीतलता प्रदान करते हुए दोषों को समाप्त करना | जल ही विद्युत के रूप में प्रकाश देता है तो भाप बनकर पुनः पृथिवी को सिंचित करके प्राणिमात्र के लिए भोज्य पदार्थों, वनस्पतियों तथा औषधियों आदि की उत्पत्ति का कारण बनता है | जल तत्व के ही कारण मन भावमय है, वाणी सरस है तथा नेत्रों में आर्द्रता और तेज विद्यमान है | जीवन में जल के महत्त्व को देखते हुए ही संसार की अनेकों सभ्यताएँ जल के निकट ही विकसित हुईं | चाहे वह प्राचीन सिन्धु घाटी की सभ्यता हो, अथवा भारत में उत्तर में गंगा यमुना के अमृत से पोषण प्राप्त करते विशाल क्षेत्र हैं तो पंजाब को तो कहा ही जाता है पञ्च नदियों का प्रदेश | अन्य सभ्यताओं की यदि बात करें तो बेबीलोन यानि मेसोपोटामिया में दजला और फुरात नामक नदियाँ प्रवाहित हैं और इसके ही निकट मिस्र में नील नदी की घाटी में प्राचीन सभ्यताओं के स्मारक बहुलता से उपलब्ध होते हैं | यही स्थिति अधिकाँश सभ्यताओं की है |
अथर्ववेद में जल के गुणों का विस्तार से वर्णन मिलता है | यजुर्वेद में भी कहा गया है कि जल को दूषित करना तथा वनस्पतियों को हानि पहुँचाना जीवन के लिए हानिकारक है | ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में प्रार्थना है कि हमें शुद्ध जल तथा औषधियाँ उपलब्ध हों | वेदों में जल को “आप: देवता” कहा गया है और पूरे चार सूक्त इसी “आप: देवता” के लिए समर्पित हैं | अस्तु, गंगा दशहरा के पावन पर्व पर प्रस्तुत है इसी आपः सूक्त के कुछ अंश…
अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् || पृञ्चतीर्मधुना पयः ||
अमूया उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह || ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ||
अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः || सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः ||
अप्स्व अन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये || देवा भवत वाजिनः ||
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा ||
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः ||
आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वेSमम || ज्योक् च सूर्यं दृशे ||
इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि ||
यद्वाहमभिदु द्रोह यद्वा शेप उतानृतम् ||
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि ||
पयस्वानग्न आ गहि तंमा सं सृज वर्चसा || (प्रथम मण्डल सूक्त 23/16-23)
आपो यं वः प्रथमं देवयन्त इन्द्रानमूर्मिमकृण्वतेल: |
तं वो वयं शुचिमरिप्रमद्य घृतेप्रुषं मधुमन्तं वनेम ||
तमूर्मिमापो मधुमत्तमं वोSपां नपादवत्वा शुहेमा |
यस्मिन्निन्द्रो वसुभिर्मादयाते तमश्याम देवयन्तो वो अद्य ||
शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः |
ता इन्द्रस्य न मिनन्तिं व्रतानि सिन्धुभ्यो हण्यं घृतवज्जुहोत ||
याः सूर्यो रश्मिभिराततान याम्य इन्द्री अरदद् गातुभूर्मिम्।।
तो सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः || (सप्तम मण्डल सूक्त 47/1-4)
समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः |
इन्द्रो या वज्री वृषभोरराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
या आपो दिव्या उत वा स्त्रवन्ति रवनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः |
समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम् |
मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा या सूर्जं मदन्ति |
वैश्वानरो यास्वाग्निः प्रविष्टस्ता आपो दवीरिह मामवन्तु || (सप्तम मण्डल सूक्त 49/1-4)
इस सबका आशय यही है हमसे अज्ञानवश द्वेष, आक्रोश, असत्य आदि जो कुछ भी दुराचार हुए हों उन सबको आप हमसे दूर प्रवाहित कर दें | जल में प्रविष्ट होकर हमने जो स्नान किया है उसके कारण हम रस से आप्लावित हो गए हैं | ये जल हमें वर्चस्व प्रदान करें | हम इनका स्वागत करते हैं |