प्रणमामि सदाशिवलिंगम्

प्रणमामि सदाशिवलिंगम्

प्रणमामि सदाशिवलिंगम्

कल प्रदोष व्रत है – शिव परिवार की उपासना का व्रत – शिवलिंग के अभिषेक का दिन – इस अवसर पर आज बात करते हैं शिवलिंग के विषय में – जिसके सन्दर्भ में अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ समाज के मन में हैं | बहुत लोग हैं जो शिवलिंग के विषय में अपशब्द भी बोल देते हैं | हमारी एक मित्र ने हमें बताया कि जब वो छोटी थीं तो सोचती थीं कि यदि शिवलिंग केवल पुरुष और प्रकृति के जननांगों का ही प्रतिनिधित्व करता है तो हम इसकी पूजा किसलिए करते हैं | वास्तव में देवाधिदेव भगवान शिव शब्दों की सीमा से परे हैं – अनादि हैं – अनन्त हैं – उनके विषय में कुछ भी लिख पाने की सामर्थ्य किसी भी मानव की वाणी में नहीं – केवल योगीजन ही अपने अनुभवों के आधार पर कुछ बोल सकते हैं | फिर भी, जितना कुछ पौराणिक सन्दर्भों से जाना, विद्वज्जनों से सुना, अपने व्यक्तिगत अनुभवों से समझा और अपनी स्थूल बुद्धि और मन से जो कुछ भी प्राप्त किया और मनन किया उसी के आधार कुछ लिखने का अपराध कर रहे हैं जिसके लिए आदिदेव भगवान शंकर क्षमा करें…

हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में द्वादश ज्योतिर्लिंग स्थापित हैं | ऐतिहासिक दृष्टि से यदि देखें तो शिवलिंग की उपासना अत्यन्त प्राचीन काल से होती आ रही है – इसका प्रमाण है कि सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में कुछ स्थलों पर पकी मिट्टी के शिवलिंग उपलब्ध हुए थे | इस प्रकार हम मान सकते हैं कि 3500 वर्ष ईसा पूर्व से 2300 वर्ष ईसा पूर्व के समय में भी शिवलिंग की पूजा अर्चना का विधान था |

अथर्ववेद के स्तोत्र में अनादि और अनन्त स्तम्भ का विवरण उपलब्ध होता है | जिनके अनुसार वे स्तम्भ साक्षात ब्रह्म हैं | यहाँ ब्रह्म से अभिप्राय ब्रह्मा से नहीं अपितु पराशिव से है | शिवलिंग उन्हीं का प्रतीक हैं | शैव परम्परा के अनुसार भगवान शिव के तीन पूर्ण रूप बताए गए हैं – पराशिव, परा शक्ति और परमेश्वर – जो इसी शिवलिंग में समाहित हैं | शिवलिंग का ऊपरी भाग प्रतिनिधित्व करता है पराशिव का तथा निचला भाग अर्थात पीठ या वेदी या योनि प्रतिनिधित्व करता है परा शक्ति का | परा शिव समस्त विशेषताओं से परे एक परम वास्तविकता हैं – निराकार, शाश्वत और असीम हैं | पराशक्ति परिपूर्णता में शिव सर्वव्यापी शुद्ध चेतना शक्ति हैं इसलिए इनका आकार है |

लिंग पुराण में अथर्ववेद की मान्यता को कथाओं के रूप में और भी अधिक विस्तार दे दिया गया | अथर्ववेद में ऋषि कहते हैं यस्य त्रयस्त्रिंशद्देवा अङ्गे सर्वे समाहिताः | स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः || “स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम् | स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश ||” अथर्ववेद काण्ड 10/सूक्त 07/श्लोक 13, 35 – अर्थात, जिसके अंगों में सभी तैंतीस देव समाहित हैं, जिसने द्यावा पृथिवी, समस्त दिशाओं प्रदिशाओं को धारण किया हुआ है तथा जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है उस स्तम्भ के विषय में मुझे कौन बता सकता है |

शिव पुराण में भी अग्नि स्तम्भ के रूप में शिवलिंग की उत्पत्ति का वर्णन उपलब्ध होता है | लिंगोद्भव कथा के अनुसार भगवान शिव ने स्वयं को अनादि और अनन्त स्तम्भ के रूप में स्थापित करके ब्रह्मा और विष्णु से कहा कि वे उस स्तम्भ का ऊपर और नीचे का भाग ढूँढ़ कर बताएँ | किन्तु दोनों में से कोई भी उस अग्नि स्तम्भ के वे भाग नहीं खोज सका और इस प्रकार शिव सबसे श्रेष्ठ सिद्ध हुए | पुराणों में अनेक प्रकार से शिवलिंग के महत्त्व को वर्णित किया गया है – जैसे शिवलिंग का अण्डाकार भाग प्रतीक है ब्रह्माण्ड का – अण्डे सो ब्रह्माण्डे,  और जिस पीठ पर वह अवस्थित है वह प्रतीक है ब्रह्माण्ड को पोषण प्रदान करने वाली सर्वोच्च शक्ति का (लिंग पुराण), अनन्त आकाश शिवलिंग है और धरती उसका आधार है तथा काल के अन्त में समस्त ब्रह्माण्ड और समस्त देव शिवलिंग में ही विलीन हो जाएँगे (स्कन्द पुराण) इत्यादि इत्यादि…

शिवलिंग की पूजा जिसने कर ली उसने समस्त ब्रह्माण्ड की पूजा कर ली, क्योंकि जगत का मूल तो शिव ही हैं | लिंग शब्द में लि वर्ण प्रतीक है शक्ति का तथा ग प्रतीक है चैतन्य का – अर्थात लिंग वह चेतना शक्ति है जिससे समस्त चराचर की रचना होती है और सृष्टि के अन्त में जो उसी के साथ एकरूप हो जाती है | शाब्दिक अर्थ लिंग का होता है चिह्न अथवा प्रतीक | भगवान शिव प्रतीक हैं सृजन के, आत्मा के | यही कारण है कि ब्रह्माण्ड की समस्त ऊर्जा का वास शिवलिंग में ही माना जाता है | कह सकते हैं कि शिव का निराकार स्वरूप शिवलिंग है |

इसी काल रूपी परब्रह्म परा शिव सदाशिव ने परा शक्ति के साथ मिलकर काशी नामक शिवलोक का निर्माण किया | प्रलय काल में भी दोनों ने काशी का त्याग नहीं किया | फिर अपनी संकल्प शक्ति से अपने वामांग से व्यापकत्व के गुण से युक्त पुरुष की उत्पत्ति की – उसके व्यापकत्व के गुण के कारण ही उसका नाम रखा विष्णु – विश् धातु से निष्पन्न – जिसका अर्थ होता है वह विभु जो सर्वत्र व्याप्त है – व्याप्ति अर्थ के वाचक नुक् प्रत्ययान्त विष् धातु से निष्पन्न होता है विष्णु शब्द – और उस पर संसार की वृद्धि तथा पालन पोषण का उत्तरदायित्व प्रदान किया – सभी का भली भाँति पोषण करने के लिए सभी के निकट प्रवेश आवश्यक है | उसके बाद अपने दाहिने अंग से ब्रह्मा को उत्पन्न किया और तुरन्त उसे विष्णु की नाभि के कमल में डाल दिया तथा वहाँ से उसे निकालने के कारण वही हिरण्यगर्भ ब्रह्मा कहलाया | हिरण्यगर्भ को सृष्टि की वंश वृद्धि का कार्य सौंपा गया | वैदिक विचारधारा में हिरण्यगर्भ को ही सृष्टि का आरम्भिक स्रोत माना जाता है | इसका शाब्दिक अर्थ है – प्रदीप्त गर्भ (अथवा अण्ड अथवा उत्पत्ति-स्थान) | सर्वप्रथम ऋग्वेद में ही इस सन्दर्भ में मन्त्र उपलब्ध होता है –

हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् |

स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम || ऋग्वेद 10/121/1

अर्थात, समस्त सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार जो ये दृश्य जगत है तथा जिसने पृथिवी तथा सूर्य तारों आदि का सृजन किया अथवा उन्हें धारण किया उस देव को हम हविष्य प्रदान करते हैं |

ज्योतिर्लिंग अर्थात शिवलिंग में जगत का निर्माण करने वाले ब्रह्मा, पालन करने वाले विष्णु तथा संहार करने वाले रूद्र तीनों का आवास है और उस कालरूपी परब्रह्म सदाशिव का मूलाधार है वह पीठ जो योनि के आकार की है तथा जो प्रतीक है शक्ति की | इस प्रकार लिंग शब्द निराकार को आकार प्रदान करने की शक्ति का प्रतीक है | जब एक लिंग को योनि अर्थात पीठ पर स्थापित किया जाता है तो यह शिव और शक्ति की युति का प्रतिनिधित्व करता है – जहाँ से सृष्टि की रचना आरम्भ होती है | इस प्रकार लिंग तथा उसकी पीठ प्रतीक हुई सार्वभौमिक सृजन का | इसमें सबसे नीचे जो वेदी अथवा योनि वाला स्थल है जो शक्ति का प्रतीक है, उसके ऊपर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, उनके ऊपर सृष्टि के पालक विष्णु तथा सबसे ऊपर जिनमें यह समस्त चराचर जगत लीन हो जाता है – लय हो जाता है – उन शिव का स्थान है | इस प्रकार पीठ पर स्थापित शिवलिंग द्योतक है इस तथ्य का कि अपने तीनों रूपों (त्रिदेव) में शक्ति के साथ युत होकर अनादि और अनन्त शिव ही सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और विनाश करते हैं | शिव वास्तव में असीम है, शून्य है, निराकार भी हैं और साकार भी हैं | शिवलिंग वातावरण सहित घूमती हुई पृथ्वी तथा समस्त अनन्त ब्रह्माण्ड (क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है) की धुरी है | शिवलिंग का अर्थ है अनन्त अर्थात जिसका न कोई आदि है न अन्त | वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त संसार इसी शिवलिंग में मिल जाता है और फिर संसार इसी शिवलिंग से सृजन होता है | इसलिए विश्व की सम्पूर्ण ऊर्जा का प्रतीक शिवलिंग को माना गया है | लिंग शिव का ही निराकार रूप है जिसका नीचे का भाग प्रतीक है शक्ति का – शक्ति – जो है स्त्रीरूपा – और ऊपर का भाग है पुरुष का |

ये तो वे तथ्य हैं पौराणिक और धार्मिक दृष्टियों से मान्य हैं | यदि हम व्यावहारिक दृष्टि से भी देखें तो सृष्टि की रचना में प्रकृति और पुरुष का बराबर का योगदान होता है और दोनों के ही संसर्ग से इस सृष्टि की रचना होती है – जो आदि शिव और शक्ति के त्रिदेव रूप में ब्रह्म और भगवती का रूप है | सृष्टि की रचना हो जाने के बाद उसका पालन पोषण करने वाला रूप भगवान विष्णु और लक्ष्मी का है | और अन्त में यह भासित जगत शिव में ही एकरूप हुआ उन्हीं में लय हो जाता है – यह शिव का रूप है |

दार्शनिक दृष्टि से शरीर के तीन भेद बताए गए हैं – प्रथम स्थूल शरीर – अर्थात मन, बुद्धि, अहंकार, पञ्च कर्मेंदियाँ और पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ – इन सबसे मिलकर जो निर्मित हुआ है वह स्थूल शरीर कहलाता है | द्वितीय सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर – मन, बुद्धि, पञ्च कर्मेन्द्रियों और पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के साथ साथ पञ्च तन्मात्राओं (पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जब पाँचों तत्वों के संसर्ग में आती हैं तो उनसे जो अनुभव प्राप्त होते हैं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) इन 17 तत्वों का समूह होता है – सप्तदशः प्रजापति: | यह सूक्ष्म शरीर कभी मरता नहीं – स्थूल शरीर की मृत्यु होती है | स्थूल शरीर की मृत्यु के उपरान्त आत्मा को आवृत्त रखने वाला शरीर जो पाँचों प्राणों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों सूक्ष्म भूतों, मन और बुद्धि से युक्त होता है तथा स्थूल अन्नमय कोश से रहित होता है वह सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर है | कारण उत्पन्न होने पर ही स्थूल शरीर का जन्म होता है – वही कारण शरीर कहलाता है | कारण के बिना शरीर की उत्पत्ति नहीं होती – अर्थात जिन कर्मों को पूर्ण करने के लिए जीव संसार में आता है वे कर्म कारण शरीर कहलाते हैं | लिंग का अर्थ प्रमाण भी होता है | मन, बुद्धि, पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच वायु से आत्मा की सत्ता का प्रमाण प्राप्त होता है – वह भासित होती है | इस प्रकार लिंग पूजा परमात्मा के प्रमाणस्वरूप सूक्ष्म शरीर का पूजन भी है |

सांसारिक दृष्टि से यदि देखें तो शिवलिंग के अभिषेक में जिन वस्तुओं का प्रयोग होता है उनका भी अपना महत्त्व है | सर्वप्रथम शिवलिंग का जल से अभिषेक किया जाता है | मान्यता है कि समुद्र मन्थन के समय प्राप्त विष का पान करने के कारण उनके शरीर में अत्यन्त दाह उत्पन्न हो गया था जिसे शान्त करने के लिए उन पर जल की वर्षा की गई थी – उसी के प्रतीक स्वरूप शिवलिंग का जला दुग्ध तथा चन्दनादि से अभिषेक करने की प्रथा है | इनका गुण होता है सत्व | उसके बाद बिल्व पत्र चढ़ाए जाते हैं – जो प्रतीक हैं भगवान शिव के तीनों नेत्रों का | भगवान शिव के शरीर का ताप शान्त करने के लिए उन्हें भाँग धतूरे और बिल्वादि का सेवन कराया गया | जो राजसी गुणों से युक्त हैं | रचनाधर्मिता के लिए रजस भी आवश्यक है | समस्त प्रकृति रजस्वला होती है इसीलिए नवीन संरचना करने में सक्षम होती है | कर्पूर की सुगन्धि वातावरण को पवित्र बनाने के साथ ही रचनाधर्मिता में वृद्धि भी करती है | मृत व्यक्ति को अग्नि को सौंप देने का बाद बची हुई भस्म में उसके जीवन का कोई कण शेष नहीं रहता – उसके सुख दुःख, उसके गुणावगुण सभी भस्म हो जाते हैं – जो प्रतीक हैं सृष्टि की लय का | इस प्रकार यदि दूसरे शब्दों में कहें तो सात्विक भाव से जब पुरुष और शक्ति का मिलन होगा तो उससे उत्पन्न सृष्टि में सत्व भाव की प्रधानता होगी | पालन पोषण हेतु सुख सुविधाएँ आदि जुटाने के लिए सत्व और रजस दोनों गुणों की आवश्यकता होती है | और जब सृष्टि के सभी कर्मफल पूर्ण हो जाते हैं तो उसका लय होने के समय तमस विद्यमान रहता है |

अर्थात तीनों गुणों, सभी भावों और समस्त सीमाओं से परे आदिदेव शिव अपने त्रिरूपों तथा शक्ति – जो त्रिदेवों में भगवती, लक्ष्मी तथा पार्वती के रूप में विद्यमान है – के साथ युत होकर सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार करते हैं – और इसी का प्रतिनिधित्व करता है परम ऊर्जा से युक्त शिवलिंग | प्रकृति पुरुष का यह मिलन किसी भी रूप में सांसारिक मिलन नहीं है अपितु आध्यात्मिक मिलन है – जिसे योगियों द्वारा कठिन तपश्चर्या के बाद अनुभव किया जाता है | यह लिंग काम को भस्म करने वाला, निर्मल, रावण के दर्प का नाश करने वाला, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने वाला, अष्टदल के ऊपर विराजमान है…

लिंगाष्टकम् स्तोत्रम्

ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिंगम् निर्मलभासित शोभित लिंगम् |

जन्मजदुःखविनाशकलिंगम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ||1||

देवमुनिप्रवरार्चितलिंगम् कामदहन करुणाकर लिंगम् |

रावणदर्पविनाशन लिंगम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ||2||

सर्वसुगन्धिसुलेपित लिंगम् बुद्धिविवर्धनकारण लिंगम् |

सिद्धसुरासुरवन्दित लिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ||3||

कनकमहामणिभूषित लिंगम् फणिपतिवेष्टित शोभित लिंगम् |

दक्षसुयज्ञविनाशनलिंगम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ||4||

कुंकुमचन्दनलेपित लिंगम् पंकजहारसुशोभित लिंगम्  |

सञ्चितपापविनाशन लिंगम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ||5||

देवगणार्चित सेवित लिंगम् भावैर्भक्तिभिरेव च लिंगम् |

दिनकरकोटिप्रभाकर लिंगम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ||6||

अष्टदलोपरिवेष्टित लिंगम् सर्वसमुद्भव कारण लिंगम् |

अष्टदरिद्र विनाशित लिंगम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ||7||

सुरगुरु सुरवर पूजित लिंगम् सुरवन पुष्प सदार्चित लिंगम् |

परात्परं परमात्मक लिंगम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ||8||

लिंगाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ  |

शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ||