शमनं प्राप्नोत्त्यत्र तत्र श्मशानम्

शमनं प्राप्नोत्त्यत्र तत्र श्मशानम्

शमनं प्राप्नोत्त्यत्र तत्र श्मशानम्

अभी पिछले दिनों हमारी एक मित्र ने प्रश्न किया कि श्मशान शब्द का अर्थ क्या है और जहाँ दाह कर्म किया जाता है उस स्थान को श्मशान ही क्यों कहा जाता है | साथ ही यह भी कि योगी श्मशान की भस्म अपने शरीर पर क्यों मलते हैं | विषय बहुत लंबा है तथा अनेक दर्शनों के अनुसार अनेकों मान्यताएँ इस विषय में हैं… जो यहाँ हम प्रस्तुत नहीं करेंगे… साथ ही, हम इस विषय के विद्वान् तो नहीं हैं, किन्तु जैसा हमें समझ आ रहा है उसके अनुसार कुछ लिखने का प्रयास कर रहे हैं…

‘श्म’ का अर्थ है शव और ‘शान’ का अर्थ होता है शयन यानी सोने का स्थान | साथ ही शं – अर्थात शान्ति, मोक्ष, निवृत्ति, चित्त का एकाग्र भाव | तथा शान शब्द शयन का सूचक है | क्योंकि दाह स्थल में जीव के शरीर का अन्तिम संस्कार किया जाता है इसलिए सम्भव है इस स्थल को श्मशान नाम दिया गया हो – अर्थात वह स्थान जहाँ जीव का शरीर शान्तिपूर्वक चिर निद्रा में लीन हो सके उसे श्मशान कहा गया |

मृत्यु जीवन का चरम सत्य है | वास्तव में श्मशान में पहुँचकर ही जीवन के इस चरम सत्य के दर्शन होते हैं जहाँ चिता की अग्नि कभी शान्त नहीं होती – क्योंकि किसी न किसी शव का दाह संस्कार निरन्तर चल रहा होता है | वृद्धावस्था व्याधि इत्यादि से क्षीण हुए शरीर की आत्मा को स्फूर्तिवान जीवन में परिवर्तित करने वाला देव मृत्यु होता है | जीव के शरीर को जब यज्ञीय प्रक्रियाओं के द्वारा पञ्चतत्वों को समर्पित किया जाता है तब उन्हीं पञ्चतत्वों से युक्त होकर उसकी आत्मा पुनः नवीन शरीर रूपी वस्त्र धारण कर नवीन रूप में उत्पन्न होती है | इस प्रकार श्मशान अन्तिम शान्ति के साथ ही पुनर्जन्म की प्रक्रिया में भी सहायक होता है – शमनं प्राप्नोत्यत्र तत् श्मशानम्… सम्भव है इसीलिए ध्यान के द्वारा एकाग्र और शान्त हुए मन के अर्थ में भी श्मशान शब्द का प्रयोग किया जाता है… जहाँ सभी विचार शान्त हो जाते हैं… नष्ट हो जाते हैं…

हिन्दू मान्यता में अन्तिम संस्कार को सबसे अधिक पवित्र संस्कार माना जाता है | मान्यता है कि काशी का मणिकर्णिका घाट सबसे प्राचीन श्मशान घाट है जिसे भगवान विष्णु की प्रार्थना पर स्वयं भगवान शिव ने अनन्त शान्ति का वरदान प्रदान किया है | इसके विषय में अनेकों कथाएँ हैं जो इस लेख का विषय नहीं हैं |

अब प्रश्न यह है कि योगीजन श्मशान की भस्म अपने शरीर पर क्यों लगाते हैं ? तो इसके विषय में एक कथा को तर्क रूप में प्रस्तुत किया जाता है | अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जब शिव का अपमान हुआ तो सती उसे सहन नहीं कर पाईं और उन्होंने यज्ञाग्नि में ही आत्मदाह कर लिया | भगवान शिव को जब इसके विषय में पता चला तो उन्होंने यज्ञाग्नि में से सती का शरीर निकाल लिया और विलाप करते हुए सभी लोकों में विचरण करते रहे | तब विष्णु ने सती के सम्पूर्ण शरीर को भस्म में परिवर्तित कर दिया और उस भस्म को ही सती का शरीर मानकर शिव ने उसे अपने शरीर पर मल लिया | मान्यता है कि योगिराज शिव के इसी कार्य का अनुसरण करते हुए योगीजन श्मशान की भस्म अपने शरीर पर मलते हैं | और इसी कारण से भस्म भगवान शंकर को चढ़ाई भी जाती है |

शिव पुराण की एक अन्य कथा के अनुसार तीन असुरों ने तीन उड़ने वाले नगर बनाए और देवताओं मनुष्यों आदि को प्रताड़ित करके इन्हीं नगरों में चले जाते थे | ये तीनों नगर अलग अलग दिशाओं में उड़ते थे अतः इनको नष्ट करना तभी सम्भव था जब ये एक सीध में आ जाते और इन्हें एक ही बाण से नष्ट किया जाता, जो किसी के वश में नहीं था | तब भगवान शिव ने धरती को रथ बनाकर सूर्य और चन्द्र को उसमें पहियों की भाँति स्थापित किया | मन्दार पर्वत को धनुष बनाकर उस पर कालसर्प की प्रत्यंचा चढ़ाई | भगवान विष्णु स्वयं बाण बने | और इस प्रकार इन असुरों का पीछा करने लगे | कई युगों के बाद एक समय ऐसा आया जब ये तीनों नगर एक सीध में आ गए और तब इन नगरों को जलाकर भस्म करके उस भस्म को अपने शरीर पर भगवान शिव ने मल लिया | तभी से उन्हें त्रिपुरारी कहा जाने लगा | यदि वास्तविक रूप में देखें तो मनुष्य के काम क्रोध मोह ही ये तीनों पुर हैं जिन्हें भगवान शंकर की आराधना के द्वारा भस्म किया जा सकता है | योगीजन इसी के प्रतीक स्वरूप भी श्मशान की भस्म अपने अंगों पर लगाते हैं |

इसके अतिरिक्त भस्म अथवा राख प्रतीक है विरक्ति का | भगवान शिव परिवार सहित गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए भी सभी प्रकार के मोह माया से विलग हैं | भस्मांगराग इस तथ्य का भी द्योतक प्रतीत होता है |

भगवान शिव को सृष्टि का संहारक भी माना जाता है | आदिदेव सदाशिव के त्रिदेव के अपने ब्रह्मस्वरूप में सत्वगुण की प्रधानता वाले शिव सृष्टि की उत्पत्ति के कारक बनते हैं, विष्णु स्वरूप में रजोगुण की प्रधानता से युत होकर उसी सृष्टि का पालन करते हैं | वहीं प्रलय काल में अथवा सृष्टि के अन्त में तमोगुण की प्रधानता से युत हो सृष्टि को शिव रूप में लय भी कर लेते हैं | तमोगुण की प्रधानता से नकारात्मकता में वृद्धि होती है और नकारात्मकता अन्त में विध्वंस की ओर ही ले जाती है – जहाँ सब कुछ मात्र भस्मावशेष ही हो जाता है – अर्थात विध्वंस के बाद यदि कुछ बचता है तो वह होती है केवल राख | और आवश्यक नहीं कि यह विध्वंस केवल शरीरों का ही हो – कठिन तपस्या के द्वारा व्यक्ति के भीतर जितने भी अहंकार, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, सत्यासत्य इत्यादि जितने भी प्रकार के दुर्भाव हैं उन सभी का अन्त होकर यदि कुछ शेष रहता है तो वह होती है इन दुर्भावों की भस्म – राख | और उस अवस्था में जब अपनी आत्मा से युत हो मनुष्य योगी बन जाता है तब उसी भस्म को अपने शरीर पर मल लेता है ताकि उसे स्मरण रहे इस सत्य का कि ये सभी दुर्भाव अब भस्म हो चुके हैं और अब वह मोक्ष अथवा निर्वाण की दिशा में अग्रसर है | इसी कारण से योगीजन श्मशान की भस्म अपने शरीर पर मलते हैं ताकि उन्हें जीवन की नश्वरता का सदा स्मरण रहे | स्मरण रहे कि जिस शरीर पर हम गर्व करते हैं उसे अन्त में भस्मीरूप होकर पञ्चतत्वों में ही विलीन हो जाना है |

अस्तु, अनेकों कथाएँ – अनेकों मान्यताएँ – किन्तु सत्य यही है कि मृत्यु जीवन का चरम सत्य है जो जीवन के साथ साथ ही रहता है… और श्मशान उस चरम सत्य के साथ शान्तिपूर्वक चिर निद्रा में विलीन हो जाने का स्थल… तथा भस्म मानव के सभी दुर्भावों को नाश… जिसका लेप आदिदेव महादेव के उपासक योगी अपने शरीर पर लगाते हैं…