चिकित्सा का अधिकारी

चिकित्सा का अधिकारी

चिकित्सा का अधिकारी

आज Doctor’s Day यानी चिकित्सक दिवस मनाया जा रहा है | हम काफी समय से महिलाओं की एक ऐसी संस्था से महासचिव के रूप में जुड़े हुए हैं जो महिलाओं को उनके स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने का प्रयास कर रही है – स्वास्थ्य यानी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य | इसके लिये हम जगह जगह हेल्थ चैकअप कैम्प्स लगाते रहे हैं | योग और ध्यान की विविध पद्धतियों के विषय में चर्चा करते रहे हैं और आज भी करते हैं | एक बात जो विशेष रूप से देखने को मिली वो यह कि कई महिलाओं को जब किसी दवा अथवा परहेज़ अथवा सन्तुलित आहार अथवा व्यायाम आदि के विषय में बताया जाता है तो डॉ के सामने तो उसका अनुमोदन कर देती हैं किन्तु व्यक्तिगत रूप से उसका अनुसरण करने में असमर्थ रहती हैं | कारण बस यही कि अपनी जीवन शैली में किसी प्रकार का भी परिवर्तन – भले ही वह उनके तथा उनके परिवार के स्वास्थ्य के लिये हो – उन्हें अत्यन्त कष्टप्रद लगता है | और मरीज़ की इसी लापरवाही के चलते अथवा किसी भी अन्य कारण से यदि इलाज़ के दौरान मरीज़ के साथ कुछ अनहोनी घट जाए तो उसके लिए डॉक्टर को अपराधी घोषित करने में हमें तनिक भी हिचकिचाहट नहीं होती |

कई बार तो यह बात इतनी अधिक बढ़ जाती ही कि दूसरों को जीवन का दान देने का “प्रयास” करने वाला डॉक्टर स्वयं अपना ही जीवन समाप्त कर लेता है – जैसा कि कुछ माह पूर्व जयपुर की एक महिला चिकित्सक के साथ हुआ कि उन्होंने आत्महत्या कर ली | यहाँ हम यही कहना चाहेंगे कि डॉक्टर भगवान नहीं होते – औषध विज्ञान का अध्ययन करके आए हुए आम जनों जैसे ही लोग होते हैं – जो पूरा पूरा प्रयास करते हैं अपने मरीज़ को स्वास्थ्य लाभ कराने का | फिर भी यदि कोई अनहोनी घट जाए तो न्यायालय का द्वार खटखटाना चाहिए न कि डॉक्टर को मानसिक और भावनात्मक रूप से इतना अधिक प्रताड़ित किया जाना चाहिए कि वह अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर ले |

यहाँ हम बात कर रहे हैं चिकित्सा का अधिकारी वास्तव में कौन होता है | अपने बचपन का एक क़िस्सा याद आ जाता है | हमारे चाचा डाक्टर थे | अपने बचपन में जब कभी उन्हें मरीज़ों पर बिगड़ते हुए देखते थे तो सोचते थे कि चाचा ऐसा क्यों करते हैं ? उदाहरण के लिये कभी कोई मरीज़ कहता “अजी डागदर साब मन्ने तो अग्गरवाल डागदर कू दिखाया हा, वो कै रिया हा अक यो दवा तो फलाँ बीमारी की है | अजी तमने ठीक से देक्खा भी हा अक नईं ?” या ऐसा ही कुछ भी बेवक़ूफ़ी भरा सवाल |

चाचा उन पर गुस्सा करते और कहते कि मुझ पर विश्वास है तो आओ मेरे पास, नहीं तो शहर में डाक्टरों की कमी नहीं है | बड़े होने पर समझ आया कि चाचा का ऐसा करना उचित था |

हमारी अपनी एक परिचित महिला हैं जिन्हें बचपन से ही बार बार हाथ धोने की तथा छुआ छूत की भयंकर बीमारी है जिसके कारण और भी बहुत सी विकृतियाँ उनके स्वभाव में आ गई हैं | लेकिन हर मनश्चिकित्सक को परम मूर्ख समझती हैं इसलिये किसी मनोरोग विशेषज्ञ से परामर्श करना नहीं चाहती, और रोग बढ़ता जा रहा है |

हमारे पति डॉ. दिनेश शर्मा आयुर्वेदाचार्य और वास्तुविद हैं | हमारे एक मित्र एक बार अपनी पत्नी को लेकर उनके पास आए किसी रोग के इलाज़ के लिये जो दो बार आने के बाद ही घर बैठ गईं | क्योंकि डॉ. साहब ने तो व्रत रखने के लिये मना किया था, और उन्हें तो सप्ताह में कम से कम तीन दिन व्रत रखना ही है किसी न किसी देवी देवता को प्रसन्न करने के लिए |

इस प्रकार की बातों से यही समझ आता है कि यदि डाक्टर पर, उसकी दी हुई दवा पर विश्वास ही नहीं होगा, या उसके बताए अनुसार दवा और पथ्य नहीं लिया जाएगा तो मरीज़ को आराम कैसे होगा ? रोग से मुक्ति पाने की सबसे पहली शर्त है कि जिस डाक्टर वैद्य हक़ीम के पास जाएँ उसके इलाज़ पर पूर्ण आस्था हो तथा उसके हाथों आत्मसमर्पण की भावना मन में हो, ताकि वह आपका जो भी इलाज़ करे या जिन नियमों का पालन आपसे करने को कहे वह आप पूर्ण मनोयोग से कर सकें, तभी वह भी पूर्ण मनोयोग से इलाज़ कर सकेगा | यही कारण है कि जो लोग स्वयं को किसी डाक्टर से कम नहीं समझते प्रायः डाक्टर लोग भी उन्हें मूर्ख समझकर उनसे ठीक से बात करना पसन्द नहीं करते | प्रस्तुत लेख में चर्चा का विषय यही है कि विक्षिप्त की चिकित्सा तो की जा सकती है, पर मूर्ख का क्या इलाज़ हो ?

कोई भी डॉक्टर अथवा वैद्य उस मूर्ख का इलाज़ नहीं कर सकता जो वैद्य को ही मूर्ख मान बैठे | विक्षिप्त की चिकित्सा तो की जा सकती है, क्योंकि उसे स्वयं यह भान नहीं होता कि उसे क्या करना है क्या नहीं अतः वह निष्कर्मण्य होकर बैठ रहता है | दुर्योधन मूढ़ था | इसीलिये जब कृष्ण सन्धिप्रस्ताव लेकर पहुँचे तो उस प्रस्ताव को स्वीकार करना तो दूर, उनका अपमान करके और यह कहकर कि युद्ध के बिना तो सूई की नोक बराबर ज़मीन भी मैं नहीं दूँगा, उन्हें वापस लौटा दिया | वह स्वयं को अजेय समझता था | ऐसे सर्वशक्तिमान को भला कोई क्या समझाता ? “प्रकृतेः गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु, तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् |” – प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में आसक्त होते हैं | उन अज्ञानी पुरुषों को ज्ञानी पुरुष क्या कहा सकते हैं ?

दूसरी ओर अर्जुन थे | वे किंकर्तव्यविमूढ़ अवश्य थे पर मूर्ख नहीं थे | उनको मार्गदर्शन कराकर उनकी विक्षिप्ति दूर करके उन्हें धर्मयुद्ध के लिये प्रेरित किया जा सकता था | यही कारण था कि कृष्ण ने अर्जुन को चिकित्सा का अधिकारी माना दुर्योधन को नहीं | अहंकारी होने के कारण दुर्योधन न तो उनका उपदेश शान्तिपूर्वक पूर्ण मनोयोग से सुनता, न ही उस पर मनन कर सकता था, और पालन करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था | जबकि अर्जुन कातर भाव से पूर्ण निष्ठा के साथ कृष्ण की शरण आए थे | वे उनके उपदेशों को ध्यान से सुनकर, उनके मर्म को समझकर उनका पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करने में सक्षम थे |

इस समस्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि वैद्य डाक्टर के पास तो पूर्ण शरणागत भाव से, पूर्ण समर्पण के भाव से जाना होता है, तभी वह उचित उपचार कर सकता है | जहाँ शंका हो, समर्पण का अभाव हो, वहाँ चिकित्सा का कोई लाभ हो ही नहीं सकता | अतः यह सत्य है कि चिकित्सा विक्षिप्त की तो की जा सकती है, मूढ़ की नहीं…