गुरु पर्व गुरु पूर्णिमा
अज्ञान्तिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः
बुधवार तेरह जुलाई आषाढ़ पूर्णिमा – जिसे गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है – का पवन पर्व है | पूर्णिमा तिथि का आगमन सूर्योदय से पूर्व चार बजकर एक मिनट के लगभग विष्टि करण और इन्द्र योग में होगा जो मध्य रात्रि में बारह बजकर सात मिनट तक रहेगी | इस वर्ष तिथि के उदयकाल में बुध की राशि में बुधादित्य योग के साथ ही लग्न में भद्र योग भी बन रहा है | गुरुदेव केन्द्र में स्वराशिगत होकर हँस योग बना रहे हैं | इसके अतिरिक्त मंगल, शुक्र और शनि भी अपनी अपनी राशियों में गोचर कर रहे हैं जो बहुत ही शुभ योग बना रहे हैं | अस्तु, सर्वप्रथम तो सभी गुरुजनों के चरणकमलों में समर्पित हैं श्रद्धा सुमन…
पौराणिक काल से ही आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरुपूजा के रूप में मनाया जाता है | वैसे नेपाल में भी आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को ही गुरुपूजा की प्रथा है | इस दिन पंचम वेद “महाभारत” के रचयिता महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है और इसीलिए इसे “व्यास पूर्णिमा” के नाम से भी जाना जाता है | महर्षि व्यास को आदि गुरु भी माना जाता है और इसीलिए व्यास पूर्णिमा “गुरु पूर्णिमा” भी कहलाती है | भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, पुराणों और उप पुराणों की रचना की, ऋषियों के अनुभवों को सरल बना कर व्यवस्थित किया, पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना की तथा विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का लेखन किया । इस सबसे प्रभावित होकर देवताओं ने महर्षि वेदव्यास को “गुरुदेव” की संज्ञा प्रदान की तथा उनका पूजन किया । तभी से व्यास पूर्णिमा को “गुरु पूर्णिमा” के रूप में मनाने की प्रथा चली आ रही है | बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के पाँच सप्ताह बाद भगवान बुद्ध ने भी सारनाथ पहुँच कर आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही अपने प्रथम पाँच शिष्यों को उपदेश दिया था | इसलिये बौद्ध धर्मावलम्बी भी इसी दिन गुरु पूजन का आयोजन करते हैं |
प्राचीन काल में जब आश्रम व्यवस्था थी तब 25 वर्ष की आयु हो जाने तक विद्यार्थी गुरुकुल में रहकर ही समस्त शास्त्रों का तथा युद्ध, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला इत्यादि समस्त कलाओं का, ज्योतिष आदि अनेकों विधाओं आदि का अध्ययन किया करते थे | और प्रायः यह अध्ययन निःशुल्क होता था | गुरुजन इस कार्य के लिये किसी प्रकार की “दक्षिणा” आदि नहीं लेते थे | उन गुरुजनों तथा उनके आश्रम में रह रहे शिष्यों के जीवन यापन का समस्त भार गृहस्थ लोग वहन किया करते थे | उस समय आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन तथा शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात् गुरुकुल छोड़कर जब सांसारिक जीवन में प्रविष्ट होने का समय होता था उस समय भी गुरुजनों का पूजन करके यथाशक्ति गुरु दक्षिणा आदि देने की प्रथा थी | और इस गुरुपूजा के अवसर पर न केवल गुरुओं का स्वागत सत्कार किया जाता था, बल्कि माता पिता तथा अन्य गुरुजनों की भी गुरु के समान ही पूजा अर्चना की जाती थी | वैसे भी व्यक्ति के प्रथम गुरु तो उसके माता पिता ही होते हैं |
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूजा करने का कारण सम्भवतः यह भी रहा होगा कि यह पूर्णिमा वर्षा ऋतु का आरम्भ होती है और इसके पश्चात् चार महीनों तक ऋषि मुनि एक ही स्थान पर निवास करते थे | अतः इन चार महीनों तक प्रतिदिन गुरु के सान्निध्य का सुअवसर शिष्य को प्राप्त हो जाता था और उसकी शिक्षा निरवरोध चलती रहती थी | क्योंकि विद्या अधिकाँश में गुरुमुखी होती थी, अर्थात लिखा हुआ पढ़कर कण्ठस्थ करने का विधान उस युग में नहीं था, बल्कि गुरु के मुख से सुनकर विद्या को ग्रहण किया जाता था | गुरु के मुख से सुनकर उस विद्या का व्यावहारिक पक्ष भी विद्यार्थियों को समझ आता था और वह विद्या जीवनपर्यन्त शिष्य को स्मरण रहती थी, उसके जीवन का अभिन्न अंग ही बन जाया करती थी | इस समय मौसम भी अनुकूल होता था – न अधिक गर्मी न सर्दी | तो जिस प्रकार सूर्य से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता तथा फसल उपजाने की सामर्थ्य प्राप्त होती है उसी प्रकार गुरुचरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञानार्जन की सामर्थ्य प्राप्त होती थी |
“अज्ञान्तिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया, चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः |” अर्थ सर्वविदित ही है – अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर भगाने के लिये जिस गुरु ने ज्ञान की शलाका से नेत्रों को प्रकाश प्रदान किया उस गुरु का मैं अभिवादन करता हूँ | तथा “गुरुर्ब्रह्मागुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वरः | गुरुर्सक्षात्परब्रहम तस्मै श्री गुरवे नमः |” अर्थात शिष्य के लिये तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश सब कुछ गुरु ही होता है | वही उसके लिये परब्रह्म होता है | भारतीय संस्कृति में गुरु को गोविन्द अर्थात उस परम तत्व ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया गया है, क्योंकि वह गुरु ही होता है जो शिष्य के मन से अज्ञान का आवरण हटाकर उसे ज्ञान अर्थात ईश्वर के दर्शन कराता है, तभी तो कहा गया है कि “गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय | बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो मिलाय ||”
आज गुरु पूर्णिमा बस एक पर्व भर बनकर रहा गया है, औपचारिकता भर बन कर रह गया है | हाँ, कुछ संगीत तथा इसी प्रकार की कलाओं की शिक्षा देने वाले घरानों को इसका अपवाद अवश्य कहा जा सकता है | क्योंकि वहाँ संगीत आदि का ज्ञान भी गुरुमुख से सुनकर या गुरु के समक्ष बैठकर क्रियात्मक रूप से ही ग्रहण किया जाता है | संगीत आदि कलाओं का ज्ञान कोई पुस्तकों का विषय नहीं है |
यों गुरु पूर्णिमा के इस प्रकार औपचारिक बन कर रह जाने का कारण ढूँढना भी कोई कठिन कार्य नहीं है | सबसे पहला कारण तो यही है कि आज स्कूल कालेजों में “गुरु” अथवा “शिक्षक” न रहकर “टीचर” बन गए हैं | जिनके लिये विद्यादान शिष्य को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाने की अपेक्षा धनोपार्जन का साधन मात्र बनकर रह गया है | उसी प्रकार शिष्य के लिये भी ज्ञानार्जन उस परम तत्व से साक्षात्कार का माध्यम न रहकर अच्छी नौकरी प्राप्त करने अथवा अच्छा व्यवसाय स्थापित करने के लिये ऊँची शिक्षा ग्रहण करके उसका सर्टिफिकेट अथवा डिग्री प्राप्त करने का माध्यम ही बन गया है | शिक्षा के, ज्ञान के उच्च और उदात्त आदर्शों का व्यावसायीकरण हो गया है | ऐसे में शिष्य की सोच बन जाती है कि मैं जब अपने “टीचर” को या अपने स्कूल/कालेज को इतना पैसा फीस के रूप में दे रहा हूँ तो मेरी मर्ज़ी मैं जैसा चाहे वैसा व्यवहार करूँ | और “टीचर” की दृष्टि रहती है शिष्य के माता पिता की जेबों पर | यद्यपि इस मँहगाई के युग में अध्यापकों की भी अपनी अपनी समस्याएँ हैं, किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि इस स्थिति में किस प्रकार गुरु-शिष्य के मध्य वह स्वस्थ और पवित्र सम्बन्ध स्थापित हो पाएगा ?
समस्या तो है, किन्तु केवल समस्या जान लेने भर से तो बात नहीं बनती | बात बनती है समस्या के समाधान से | सबसे बड़ा समाधान तो यही है कि आधुनिक तथाकथित प्रगति की अंधी दौड़ में शामिल होने के बजाए स्कूल कालेजों में भारतीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी जहाँ “फोटोकापी” बनाने के स्थान पर एक योग्य और सुसंस्कृत व्यक्तित्व के विकास की ओर ध्यान दिया जाए | आज माता पिता में जो एक होड़ सी लग गई है कि उनके बच्चे के अंक परीक्षा में दूसरे बच्चों से अधिक आने चाहियें और इसके लिये वे ट्यूशन पर पानी की तरह पैसा भी बहाते हैं | महँगे महँगे विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाना “स्टेटस सिम्बल” बन गया है | यहाँ तक कि आजकल तो ट्यूशन पढ़ाना भी शान की बात मानी जाने लगी है | अपनी इस मानसिकता से मुक्ति पाकर उचित विद्यालयों और उचित शिक्षकों के पास बच्चों को पढ़ने भेजना होगा | जानना होगा कि पढ़ाई पैसे से नहीं होती वरन् गुरु में यदि अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण निष्ठा है, अपने विषय का पूर्ण ज्ञान है, शिष्य के प्रति तथा अपने कर्तव्य के प्रति पूरी ईमानदारी का भाव है तब ही वह गुरु लालच का त्याग करके अपना कार्य करेगा |
साथ ही धर्म मार्ग पर चलने वालों को “धर्म” और “आध्यात्मिकता” में अन्तर समझ कर, धर्मान्धता तथा धर्मोन्माद का त्याग करके योग्य गुरुओं का भी “निर्माण” करना होगा | एक ऐसा गुरु जो हमारे जीवन को सही दिशा दिखाए | जो स्वयं को “भगवान” न बताए, बल्कि अपने शिष्यों के मानस में ज्ञान रूपी चन्द्रमा की धवल ज्योत्स्ना प्रसारित करके अज्ञान रूपी अमावस्या से शिष्य को मुक्ति दिला सके | क्योंकि गुरु केवल शिक्षक ही नहीं होता अपितु माता के समान हमें संस्कार भी प्रदान करता है और पिता के समान उचित मार्ग भी दिखाता है | हमारा आत्मबल बढ़ाता है | हमें अपनी अन्तःशक्ति से परिचित कराके उसे विकसित करने के उपाय भी बताता है | साधना का मार्ग सरल बनाता है – फिर चाहे वह साधना आत्मतत्व से साक्षात्कार के लिये हो अथवा धनोपार्जन के योग्य बनने के लिये विद्यालय और कालेजों की शिक्षा की हो | ऐसा हो जाने पर ही गुरु पूर्णिमा का पर्व सार्थक हो पाएगा | और तभी प्रत्येक शिष्य गुरु के प्रति कृतज्ञ भाव से, गुरु के चरणों में श्रद्धानत होकर समर्पित हो सकेगा |
तो आइये एक बार पुनः गुरु के चरणकमलों में सादर अभिवादन करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करें | जय गुरुदेव…..