श्रावण का महीना और काँवड़ यात्रा
मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम् |
तदिदं कल्पितं देव स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ||
श्रीभगवते साम्बशिवाय नमः | स्नानीयं जलं समर्पयामि ||
आज श्रावण कृष्ण प्रतिपदा – भगवान शंकर के लिए समर्पित श्रावण मास का आरम्भ हो रहा है | एक ओर वर्षा की ऋतु में पेड़ों की डालों पर झूले पड़ जाएँगे और सावन की मस्ती में झूमते हुए हर मन गा उठेगा – सावन के झूले पड़े… वहीं दूसरी ओर भगवान शिव और उनके परिवार की पूजा अर्चना आरम्भ हो जाएगी… और इसी के साथ आरम्भ हो जाएगी काँवड़ यात्रा – जिसमें देश भर से शिवभक्त काँवड़ में पवित्र गंगा का जल भरने के लिए यात्रा आरम्भ करेंगे और श्रावण कृष्ण त्रयोदशी को अपने अपने नगर ग्राम में वापस पहुँचकर भोले बाबा का पूर्ण श्रद्धा भक्ति के साथ जलाभिषेक करेंगे | इस वर्ष 26 जुलाई को श्रावण कृष्ण त्रयोदशी है | इस दिन सभी शिवभक्त अपने अपने स्थान पहुँचकर शिवलिंग का और शिव परिवार का पूर्ण आस्था और श्रद्धा के साथ जलाभिषेक करेंगे |
श्रावण मास में काँवड़ में गंगाजल भरकर लाकर उससे रुद्राभिषेक करने के विषय में अनेक पौराणिक और लोक मान्यताएँ हैं | जिनमें एक मान्यता तो यही है कि भगवान शिव इसी महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए थे और वहाँ उनका स्वागत अर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था | माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष इसी माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं और पृथिवीवासी उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए उनका जलाभिषेक करते हैं | कुछ का मानना है कि परशुराम शिव का अभिषेक करने के लिए गंगा से काँवड़ में जल भरकर लाए थे और तभी से यह प्रथा आरम्भ हुई |
ऐसी भी कथा है कि इसी मास में भगवान शंकर ने समुद्र मन्थन से प्राप्त हलाहल को
अपने कंठ में धारण कर लिया था जिसके कारण उनका कंठ नीला पड़ गया था, तब उस विष के प्रभाव को समाप्त करने के लिए देवता काँवड़ में जल भरकर लाते रहे और उनका अभिषेक करते रहे | उनका जल से अभिषेक किया था और इसी घटना के प्रतीक स्वरूप भगवान शंकर के जलाभिषेक की प्रथा है | तो इसी कथा को कुछ मान्यताओं के अनुसार इस प्रकार भी बताया गया है कि कुछ लोगों की मान्यता है रावण भगवान शिव के परम भक्त था | समुद्र मन्थन से उपलब्ध हलाहल का पान करके जब भगवान शंकर का कंठ नीला पड़ गया और उन्हें जलन होने लगी तो रावण ने काँवड़ में जल लाकर उनका अभिषेक किया था और वहीं से काँवड़ यात्रा का आरम्भ हुआ |
कुछ मान्यताएँ श्रवण कुमार से काँवड़ यात्रा का आरम्भ मानती हैं – इनके अनुसार अपने दिव्य दृष्टि माता पिटा को काँवड़ में बैठाकर श्रवण कुमार मायापुरी अर्थात हरिद्वार गंगा स्नान कराने ले गए थे और वहाँ से जब वापस लौटे तो काँवड़ में जल भी भरकर लेते आए थे | कुछ मान्यताओं के अनुसार भगवान श्री राम सबसे पहले काँवड़िया थे जिन्होंने काँवड़ में जल लाकर जल से शिवलिंग का अभिषेक किया था |
अस्तु, काँवड़ यात्रा के सन्दर्भ में मान्यताएँ चाहें जो भी हों, श्रावण मास में वर्षा की रिमझिम के साथ ही काँवड़ यात्रा का आरम्भ जन मानस में विराजित शिव अर्थात कल्याण का प्रतीक है | भगवान शिव जो स्वयं ही जल रूप हैं उन्हें उन्हीं की जटाओं से निसृत पवित्र गंगा के जल से अभिषिक्त करके जिस परम शान्ति और सुख का अनुभव होता है वह वास्तव में अतुलनीय है – अपने घरों गाँवों शहरों से रिक्त पात्र काँवड़ अपने कन्धों पर उठाए बम बम भोले और हर हर महादेव के मन्त्रों का उद्घोष और औघड़दानी के भजनों का गान करते निकल पड़ते हैं भोले बाबा के भक्त और मीलों दूरी की यात्रा पूरी करके हरिद्वार ऋषिकेश से लेकर ऊपर उत्तरकाशी, गंगोत्री तक जाकर कांवड़ में जल भरकर उसी प्रकार भगवान शिव की महिमा का गान करते वापस लौट आते हैं अपने अपने गाँव शहरों में बने हुए शिवालयों की ओर, जहाँ पहुँचकर काँवड़ में भरकर लाए गंगाजल से अभिषेक करते हैं शिवलिंग का – बिल्व पात्र, चन्दन, दुग्ध और पुष्पादि समर्पित करते हैं और दण्डवत हो जाते हैं त्रिदेवों के भी देव भगवान शंकर के समक्ष… इस समूची यात्रा में हर काँवड़िया भोले बाबा के प्रति समर्पण के भाव में चला चला जाता है… चाहे पैदल चलना पड़े… कोई वाहन मिले न मिले… पाँवों में चप्पल भी हों या नहीं… किसी बात की कोई चिन्ता ही नहीं… कितना भी बोझ हो जल से भरी काँवड़ का काँधे पर – पता ही नहीं लगता – क्योंकि मन तो रमा हुआ होता है शंकर की भक्ति में समर्पण के भाव से… मात्र यही भावना शेष रहती है कि कल्याण करने वाले भोले बाबा साथ हैं… बस एक ही धुन होती है कि माँ गंगा के अमृत जल से अपने इष्ट को अभिषिक्त करना है… ऐसा भक्ति भाव से भरा हुआ कण कण प्रकृति का हो जाता है… यही विशेषता है काँवड़ यात्रा की…
अन्त में यही कहेंगे कि जगत का कल्याण करने वाले देवाधिदेव भगवान शंकर अपने समस्त परिवार सहित समस्त जगत पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रहें और सभी का कल्याण करें…
कर्पूरगौरं करुणावतारम्, संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् |
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे, भवं भवानी सहितन्नमामि ||