षोडश श्रृंगार तथा उनकी उपादेयता
सावन का मनभावन महीना चल रहा है, एक ओर जहाँ हर कोई देवाधिदेव भगवान शंकर की पूजा अर्चना में लीन रहता है वहीं दूसरी ओर वर्षा की रिमझिम के साथ ही पेड़ों की डाली पर झूले पड़ने आरम्भ हो जाते हैं और साथ ही आरम्भ हो जाता है सोलह सिंगारों से स्वयं को सुसज्जित करके महिलाओं कन्याओं का झूलों पर बैठ अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए ऊँची पेंग बढ़ाना | और हरियाली तीज के दिन का तो कहना ही क्या – उस दिन तो जैसे सारे चाँद सितारे महिलाओं के श्रृंगार में जड़ कर नीचे आ जाते हैं | और हरियाली तीज ही क्यों, करवा चौथ हो – दीपावली का प्रकाश पर्व हो – घरों में कोई मांगलिक कार्य हो – सजने सँवरने में प्रायः हर महिला का मोह होता है | सजते सँवरते पुरुष भी हैं – किन्तु उनके श्रृंगार अलग होते हैं – महिलाओं के श्रृंगार षोडश होते हैं | तो आज हम इन्हीं सोलह सिंगारों के विषय में बात करेंगे | क्योंकि आज के जीवन में श्रृंगार और सौन्दर्य एक दूसरे के पूरक बन चुके हैं | यद्यपि हमारा स्वयं का मानना है कि सौन्दर्य की पूर्णता तथा आकर्षण के लिए किसी भी प्रकार से बाह्य श्रृंगार की आवश्यकता नहीं है | सौन्दर्य का भान ही स्वयं में पूर्ण है | एक बालक से पूछिये – उसे अपनी माँ विश्व की अप्रतिम सुन्दरी प्रतीत होती है – और माँ के लिए उसकी सन्तान ईश्वर की सबसे अधिक सुन्दर कृति होती है – यही है वास्तविक सौन्दर्य – जिसे मन के नेत्रों से देखा जा सकता है | सौन्दर्य तो सर्वत्र व्याप्त है – आवश्यकता है उसके लिए उस प्रकार की दृष्टि को विकसित करना | सौन्दर्य का मापदण्ड प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग है | साथ ही विशेष रूप से महिलाओं के श्रृंगारप्रियता को देखते हुए कुछ प्रश्न भी मन में उत्पन्न होते हैं – क्या श्रृंगार की आवश्यकता केवल महिलाओं को ही होती है – पुरुषों को नहीं ? और क्या सौन्दर्य वृद्धि के लिए केवल बाह्य श्रृंगार ही अपेक्षित है अथवा आन्तरिक सौन्दर्य में वृद्धि के लिए मानवता, सहृदयता, बौद्धिक विकास इत्यादि सद्गुणों से श्रृंगारित होने की भी आवश्यकता है ? आप कितना भी श्रृंगारित होकर किसी कार्यक्रम में पहुँच जाएँ – वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति केवल और केवल अपने प्रति आसक्त मिलेगा कि वह कैसा लग रहा है | आपसे एक बार बोल देगा कि अरे इस साड़ी में तो आप बिलकुल कहीं की महारानी लगती हैं – लेकिन उसके पीछे भी मन्तव्य वही होगा कि आप भी उसकी उसी प्रकार प्रशंसा करें | साथ ही एक बात और, ऐसा बोलकर वह आपके वस्त्रों की प्रशंसा कर रहा होता है आपकी नहीं – आपकी प्रशंसा होती यदि वह बोलता – अरे आप तो पहले से ही एक राजकुमारी लगती हैं – इस साड़ी ने तो आपके सौन्दर्य में और वृद्धि कर दी… बहरहाल ये सभी प्रश्न एक दीर्घ संवाद का विषय हैं – जिन पर बाद में कभी बात करेंगे…
सौन्दर्य और श्रृंगार के प्रति जन मानस का मोह इतना अधिक है कि मनुष्य कोई न कोई अवसर ढूँढ़ ही लेता है स्वयं को सुसज्जित करने के लिए | भारतीय साहित्य पर यदि दृष्टिपात करें तो कालिदास सौन्दर्य के कवि हैं और उन्होंने नारी सौन्दर्य को बहुत महत्त्व प्रदान किया है | नारी पात्र उनकी रचनाओं की प्राण शक्ति हैं, जिनमें जीवन का मधुर रस प्रवाहित होता रहता है | कालिदास ने महर्षि भरत की ही भाँति स्त्री सौन्दर्य को सुकुमारता, लज्जा, स्नेहशीलता और पवित्रता के आभूषणों से आभूषित किया है | उनकी समस्त नारी पात्र सौन्दर्य की पराकाष्ठा हैं…
मानुषीषु कथं वा स्यादस्य रूपस्य सम्भव: |
न प्रभातरलं ज्योतिरुदेति वसुधातलम् || अभिज्ञानशाकुन्तलम् 1/24
मानवी का यह स्वरूप है भला किस भाँति सम्भव |
प्रभातरल यह ज्योति वसुधा से नहीं उत्पन्न है ||
कालिदास के अनुसार तो नारी का आन्तरिक सौन्दर्य, उसका ज्ञान, उसका बाह्य सौन्दर्य सभी कुछ युगातीत है | अर्थात युगों युगों से जिस ज्ञान और सौन्दर्य से नारी आभूषित होती रही है उसके समक्ष किसी भी सौन्दर्य प्रसाधन की आवश्यकता नारी को नहीं है |
सर्वप्रथम ज्योतिष शास्त्र और काम शास्त्र में नारी के लिए षोडश श्रृंगार अपेक्षित किये गए हैं | उसके बाद वल्लभदेव की सुभाषितावली षोडश श्रृंगार की व्याख्या उपलब्ध होती है :
आदौ मज्जनचीरहारतिलकं नेत्रांजनं कुडले, नासामौक्तिककेशपाशरचना सत्कंचुकं नूपुरौ।
सौगन्ध्य करकंकणं चरणयो रागो रणन्मेखला, ताम्बूलं करदर्पण चतुरता श्रृंगारकाः षोडश।।
अर्थात् मज्जन, चीर अर्थात दुपट्टा या साड़ी, हार, तिलक, अंजन, कुण्डल, नासामुक्ता अर्थात नाक की लौंग, केशविन्यास, चोली अथवा कंचुकी, नूपुर, अंगराग, कंकण, चरणराग, करधनी, ताम्बूल तथा करदर्पण – जिसे आरसी भी कह सकते हैं – इस प्रकार सोलह श्रृंगार की कल्पना की गई है | वल्लभदेव से रीतिकाल में जायसी तक आते आते महिलाओं के लिए षोडश श्रृंगार के अन्तर्गत मज्जन, स्नान, वस्त्र, पत्रावली, सिन्दूर, तिलक, कुण्डल, अंजन, अधरों को रंगना, ताम्बूल, कुसुमगन्ध, कपोलों पर तिल, हार, कंचुकी, छुद्रघंटिका, पायल का वर्णन उपलब्ध होता है |
प्राचीन काल की बात हम कर रहे थे तो उस समय स्त्री पुरुष दोनों ही श्रृंगार करते थे – किन्तु दोनों के श्रृंगार में स्वाभाविक रूप से अन्तर होता था | और आज के ब्यूटीशियंस की ही भाँति उस समय भी प्रसाधक प्रसाधिकाएँ हुआ करते थे | उस समय विशेष रूप से महिलाएँ चन्दन अगरु इत्यादि सुगन्धित द्रव्य मिलाकर अंगराग का लेप किया करती थीं, जल में सुगन्धित पुष्पादि मिलाकर स्नान करती थीं, पुरुष अधोवस्त्र और उत्तरीय धारण करते थे तो महिलाएँ घाघरा चोली अथवा चारों ओर घुमाकर लपेटी हुई साड़ी और कंचुकी धारण किया करती थीं | सौभाग्यवती स्त्रियाँ सिन्दूर अथवा पुष्पों से या मोतियों से माँग सजाया करती थीं | केशों की वेणी बनाकर अथवा खोलकर ही उनमें पुष्प लगाए जाते थे | लाक्षारस अथवा पुष्पों के रस से महावर का और “लिपस्टिक” का काम लिया जाता था | गीली सूखी केसर अथवा कुमकुम से मुख पर चित्रकारी की जाती थी, बिन्दी लगाई जाती थी और घरों में औषधीय गुणों वाली वनस्पतियों से निर्मित काजल आँखों में आँजा जाता था और ठोड़ी पर तिल बैठाया जाता था | शलाका से अंजन आँजती महिलाओं की प्राचीन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं | शरीर के प्रत्येक अंग में आभूषण धारण किये जाते थे – जो स्वर्ण और रत्नजटित भी हो सकते थे और पुष्पों से निर्मित भी हो सकते थे | विशेष रूप से महिलाएँ अपने जूड़े में, वेणियों में, कानों, हाथों, बाहों कलाइयों और कटिप्रदेश में कमल, कुंद, मन्दार, शिरीष, केसर आदि के पुष्पों के गजरे, कंगन और करधनी आदि धारण किया करती थीं | शरीर को सुगन्धित रखने के लिए अनेक सुगन्धित द्रव्यों से निर्मित लेप – जिन्हें अरगजा कहा जाता था – स्त्री पुरुष दोनों ही लगाते थे | मुखवास के रूप में ताम्बूल का प्रयोग किया जाता था – रानियों और राजाओं की परिचारिकाओं में ताम्बूलवाहिनी के उल्लेख प्रायः उपलब्ध होते हैं |
एक बात और प्रतीत होती है महिलाओं के श्रृंगार प्रेम के पीछे कि नारी के लिए यह आवश्यक माना गया कि उसे पति को रिझाने के लिए स्वयं को षोडश श्रृंगार से सुसज्जित करना है | यही कारण है कि ज्योतिष और कामसूत्र से आगे बढ़कर वल्लभदेव से जायसी के पास होती हुई इस षोडश श्रृंगार की परम्परा में बहुत सारे परिवर्तन भी होते चले गए | यही तो कारण है कि विवाह के समय जब कन्या का श्रृंगार किया जाता है तो उसका रूप और भी अधिक निखर जाता है | साथ ही षोडश श्रृंगार में जिन वस्तुओं का उपयोग किया जाता है उनका भी बहुत महत्त्व है |
प्राचीन काल में जहाँ सौन्दर्य प्रसाधन की वस्तुओं का आरम्भ मज्जन और स्नान की वस्तुओं से होता था वहीं आजकल षोडश श्रृंगार के अन्तर्गत लाल अथवा पीले रंग की साड़ी लहंगा आदि, गजरा, बिन्दी, सिन्दूर, काजल, मेंहदी, कंगन और चूड़ी, मंगलसूत्र, कर्णफूल, बाजूबन्द, कमरबन्द अथवा करधनी, माँगटीका, अँगूठी, पायल, बिछिया और इत्र को गिना जाता है | इन सभी सौन्दर्य प्रसाधनों का महत्त्व भी है |
सबसे पहले वस्त्रों को लेते हैं | वस्त्रों के लिए लाल पीले वस्त्रों का चलन अधिक है | धार्मिक मान्यताओं एक अनुसार ये दोनों ही रंग सौभाग्य के प्रतीक हैं तो लोक मान्यता के अनुसार इन रंगों से भावनाओं को नियन्त्रित और स्थिर करने में सहायता प्राप्त होती है |
हार और गजरे चम्पा चमेली के सुगन्धित पुष्पों से बनाए जाते हैं जिनसे वातावरण में एक प्रकार की ताज़गी का अनुभव होता है | साथ ही इन पुष्पों की सुगन्धि में तनाव को दूर करने की और आकर्षित करने की सामर्थ्य भी होती है |
भवों के मध्य आज्ञाचक्र पर कुमकुम की बिन्दी महिलाओं को लगाईं जाती है तो चन्दन का तिलक पुरुषों को दिया जाता है | यह स्थान तीसरा नेत्र माना जाता है | एक ओर जहाँ दोनों नेत्र सूर्य और चन्द्रमा माने जाते हैं – जिनमें भूत और वर्तमान को देखने की सामर्थ्य होती है, वहीं यह तीसरा नेत्र भविष्य द्रष्टा माना जाता है | साथ ही यह कुमकुम का तिलक आज्ञाचक्र को सन्तुलित करके ऊर्जा प्रदान करता है |
माँग में भरा जाने वाला सिन्दूर सौभाग्य का प्रतीक है | माना जाता है कि इसे लगाने से सहस्रार चक्र सक्रिय रहता है जिसके कारण महिलाओं की निर्णायक शक्ति में वृद्धि होती है |
माँगटीका – जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है – माँग में पहना जाने वाला आभूषण होता है | यह यश व सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है | साथ ही ऐसी भी मान्यता है कि इसे पहनने से महिलाओं की निर्णायक क्षमता में वृद्धि होती है |
काजल – जो पारम्परिक रूप से औषधीय गुणों से युक्त जड़ी बूटियों से निर्मित किया जाता है – न केवल नेत्रों के सौन्दर्य में वृद्धि करता है अपितु ज्योति वर्धक भी माना जाता है | साथ ही कुदृष्टि से भी रक्षा करता है |
अधर राग जिसे आजकल लिपस्टिक कहा जाता है – यह भी षोडश श्रृंगार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है | प्राचीन काल में पाटल पुष्पों के रस से अथवा ताम्बूल खाकर अधरों को लाली प्रदान की जाती थी | पाटल अर्थात गुलाब के पुष्पों में शीतलता प्रदान करने के साथ ही सुगन्धि भी होती है | इसी प्रकार ताम्बूल मुखवास का कार्य भी करता है |
मंगलसूत्र भी हर महिला को बहुत अधिक पसन्द होता है | यह एक ऐसा सूत्र है जो जीवन भर पति पत्नी को प्रेम से बाँधे रखने की सामर्थ्य रखता है | ऐसी भी मान्यता है कि यह जितना अधिक लम्बा होकर हृदय के निकट रहेगा उतना ही हृदय से सम्बन्धित समस्याओं से दूरी रहेगी | साथ ही स्वर्ण और मोतियों से निर्मित मंगलसूत्र ऊर्जा तथा बल भी प्रदान करता है |
कर्णफूल और नासामुक्ता अर्थात नाक की लौंग भी पारम्परिक रूप से पुष्पों से ही बनाए जाते थे | कान और नासिका में छेद करके उसमें इन्हें धारण किया जाता है | इसे एक प्रकार से एक्यूप्रेशर और एक्यूपंक्चर की प्रक्रिया भी कह सकते हैं | जिस स्थान पर छेद किया जाता है उसके कारण महिलाओं के लिए रजोधर्म की अवस्था में कष्ट कम होता है ऐसा माना जाता है | साथ ही किडनी के रोगों से भी रक्षा होती है और यही कारण है कि बचपन में ही कर्ण छेदन संस्कार किया जाता था बालक बालिका दोनों का और दोनों के ही लिए कर्णफूल पहनना अनिवार्य होता था |
बाजूबन्द भुजा के ऊपरी भाग में पहना जाता है | माना जाता है कि इसके पहनने से ऊर्जा प्राप्त होती है जो भुजा के ऊपरी भाग से स्पर्श करने के कारण पूरे शरीर में प्रवाहित होती है तथा रक्त संचार सन्तुलित रहता है | सम्भवतः इसीलिए प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों ही बाजूबन्द धारण करते हैं |
प्राचीन काल में वृक्षों और पुष्पों के रस से आलक्तक बनाया जाता था, उसी के स्थान पर आज मेहँदी का प्रयोग किया जाता है | जन साधारण की मान्यताओं के अनुसार मेहँदी का गहरा लाल रंग प्रेम और सौभाग्य का प्रतीक है | साथ ही इसकी मनमोहिनी सुगन्ध ऊर्जा प्रदान करती है तथा इसकी शीतलता आनन्द प्रदान करती है |
चूड़ियाँ अथवा कंकण भी सौभाग्य और सम्पन्नता के प्रतीक माने जाते हैं | साथ ही, इनसे उत्पन्न मधुर ध्वनि एक ओर जहाँ आह्लादकारी होती है वहीं कलाइयों पर इनका घर्षण महिलाओं में रक्त के प्रवाह को भी सन्तुलित करने वाला माना जाता है |
अँगुष्ठिका अथवा अँगूठी – इसे पति पत्नी के प्रेम का प्रतीक माना जाता है | इसे प्रायः अनामिका में धारण किया जाता है | मान्यता है कि अनामिका अँगुली की नसें सीधे हृदय व मस्तिष्क से जुडी होती हैं अतः अनामिका में अँगूठी पहनने से हृदय तथा मस्तिष्क दोनों स्वस्थ रहते हैं |
कमर के ऊपरी भाग अर्थात कटिप्रदेश पर कमरबन्द अथवा करधनी बाँधी जाती है | माना जाता है कि इसके बाँधने से महिलाओं को गर्भ के समय पीड़ा नहीं होती तथा शिशु के जन्म के बाद पेट पर मोटापा नहीं बढ़ता | साथ ही हर्निया की समस्या भी नहीं होने पाती | सम्भवतः इसीलिए यह कमरबन्द भी पहले स्त्री पुरुष दोनों बाँधते थे | छोटे बच्चों को भी करधनी पहनाई जाती थी |
पाँवों में नूपुर अथवा पायल और पैरों की अँगुलियों में बिछिया पहना जाता है | प्रायः चाँदी की पायल शुभ मानी जाती हैं – सोने की पायल पाँवों में नहीं पहनी जातीं | किन्तु कुछ स्थानों पर सोने की पायल पहनने की प्रथा है | इन्हें सम्पन्नता का प्रतीक माना जाता है | साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि जोड़ों तथा अस्थि रोगों में पायल पहनना लाभकारी होता है | इसके अतिरिक्त यह तो अनुभव से ही प्रतीत है कि पायल से उत्पन्न रुनझुन रुनझुन ध्वनि नकारात्मक ऊर्जा को दूर करके घर को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करती है | इसी प्रकार बिछिया भी चाँदी का ही होता है, किन्तु कुछ स्थानों बिछिया भी सोने का पहना जाता है | यह भी स्वास्थ्य और सम्पन्नता का प्रतीक है | इसके अतिरिक्त, मान्यता है कि पाँवों की अँगुलियों की नसें गर्भाशय को जाती हैं अतः बिछिया पहनने से गर्भाशय से सम्बन्धित समस्याएँ नहीं उत्पन्न होतीं |
और सबसे अन्त में आती है सुगन्धि अथवा इत्र | प्रायः यह पुष्पों का अर्क होता है जिसमें प्राकृतिक सुगन्ध होती है जो आह्लादकारी तथा शान्ति प्रदान करने वाली होती है |
यहाँ इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि ये सभी मान्यताएँ लोक मान्यताएँ हैं – विज्ञान से इनका कितना सम्बन्ध है – आयुर्वेद से इनका कितना सम्बन्ध है – यह शोध का विषय है | इतना अवश्य है कि षोडश श्रृंगार करने के बाद स्त्री के स्वाभाविक सौन्दर्य में वृद्धि अवश्य होती है और उस पर मोहित हुए बिना कोई नहीं रह सकता | यही कारण है कि सोलह सिंगारों के प्रति महिलाओं का विशेष मोह होता है |
हम सभी अपनी अपनी रूचि के अनुसार षोडश श्रृंगार करके केवल हरियाली तीज ही नहीं वरन सभी त्यौहार पूर्ण हर्षोल्लास से मनाते रहें यही कामना है…