वर्षा ऋतु और हरियाली तीज
हम सभी जानते हैं कि भारत त्योहारों और पर्वों का देश है | त्यौहारों का इतना उत्साह, इतने रंग सम्भवतः हमारे ही देश में देखने को मिलते हैं | यहाँ त्यौहार केवल एक अनुष्ठान मात्र नहीं होते, वरन् इनके साथ सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक तारतम्य, प्राचीन सभ्यताओं की खोज एवं अपने अतीत से जुड़े रहने का सुखद अहसास भी होता है । बहुत सारे लोक पर्व इस देश में मनाए जाते हैं | इन्हीं पर्वों में से एक है तीज का पर्व | इस वर्ष रविवार 31 जुलाई को श्रावण शुक्ल तृतीया को हरियाली तीज का उल्लासमय पर्व है | सबसे पहले तो सभी को इस पर्व की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ | श्रावण मास में जब समस्त चराचर जगत वर्षा की रिमझिम फुहारों में सराबोर हो जाता है, इन्द्र देव की कृपा से जब मेघराज मधु के समान जल का दान पृथिवी को देते हैं और उस अमृत जल का पान करके जब प्यासी धरती की प्यास बुझने लगती है और हरा घाघरा पहने वसुधा अपने गर्भ में अनेकों रत्न धारण किये अपनी इस प्रसन्नता को वनस्पतियों के लहराते नृत्य द्वारा जब अभिव्यक्त करने लगती है, जिसे देख जन जन का मानस मस्ती में झूम झूम उठता है तब उस उल्लास का अभिनन्दन करने के लिये, उस मादकता की जो विचित्र सी अनुभूति होती है उसकी अभिव्यक्ति के लिये “हरियाली तीज” अथवा “मधुश्रवा तीज” का पर्व मनाया जाता है | “मधुस्रवा अथवा मधुश्रवा” शब्द का अर्थ ही है मधु अर्थात अमृत का स्राव यानी वर्षा करने वाला | अब गर्मी से बेहाल हो चुकी धरती के लिए भला जल से बढ़कर और कौन सा अमृत हो सकता है ? जल को अमृत ही तो कहा जाता है |
वैदिक साहित्य से लेकर समस्त संस्कृत साहित्य और हिन्दी साहित्य में वर्षा ऋतु को कहीं चातुर्मास के सन्दर्भ में वर्णित किया गया है तो कहीं मेघों को संदेशवाहक के रूप में दिखाया गया है, और कहीं आलम्बन उद्दीपन आदि भावों में वर्षा और मेघों का वर्णन उपलब्ध होता है | वैदिक साहित्य में पर्जन्य सूक्त, वृष्टि सूक्त, प्राण सूक्त, मण्डूक सूक्त इत्यादि वर्षा ऋतु को चातुर्मास तथा आनन्द देने वाली ऋतु के रूप में प्रतिपादित करते हैं | पर्जन्य सूक्त में जहाँ मेघों के गर्जन तर्जन का तथा उत्तम वर्षा के कारण समस्त सृष्टि के आह्लादित होने का वर्णन है वहीं मण्डूक सूक्त में वर्षा ऋतु में मनुष्य के कर्तव्य कर्मों का वर्णन है | वर्षा ऋतु का उत्सव मनाकर हरी भरी प्रकृति के प्रति हार्दिक प्रसन्नता और आभार की अभिव्यक्ति है |
ब्राह्मणासो अतिरात्रे न सोमे सरो न पूर्णमभितो वदन्तः |
संवत्सरस्य तदहः परिष्ठ यन्मण्डूकाः प्रावृषीणं बभूव || ऋग्वेद मण्डल 7 सूक्त 7.103/7
अर्थात, हे ब्राह्मण ! जिस दिन प्रथम वर्षा का आगमन हो, मेंढक सरोवरों के जल से पूर्ण रूप से भर जाने की कामना से एक ओर स्थिर रहकर टर्राते हों, उसी प्रकार तुम भी सौम्य में वृद्धि करने वाले ब्रह्म मुहूर्त में एक स्थान पर स्थित होकर वेदध्वनि करके यज्ञ यागादि के साथ वर्षा ऋतु के आगमन का उत्सव मनाओ |
प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितावलम्बनार्थी |
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन्प्रवृत्तिम् ||
स प्रत्यग्रै: कुटजकुसुमै: कल्पितार्घाय तस्मै |
प्रीत: प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार ||… मेघदूतम्
श्रावण ऋतु के निकट आ जाने पर निज प्रिया के प्राणों की रक्षा के लिए यक्ष ने मेघों द्वारा प्रियतमा तक अपना कुशल सन्देश प्रेषित करने हेतु प्रफुल्लित कुटज पुष्पों का अर्घ्य देकर प्रीत पगे वचनों से उनका स्वागत किया |
तो उधर श्री रामचरितमानस के किष्किन्धाकाण्ड में वर्षा के मनोहर दृश्य से अभिभूत भगवान राम लक्ष्मण से कहते हैं “बरषा काल मेघ नभ छाए, गरजत लागत परम सुहाए”… किन्तु तभी अचानक ही सीता की स्मृति उन्हें विह्वल कर देती है और मेघों के गर्जन से उन्हें भय लगने लगता है “घन घमण्ड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा”… और उधर रहीम कुछ अन्य ही भाव बोलते हैं “पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन | अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कोय ||” सुमित्रानन्दन पन्त जी की वाणी से अनायास ही प्रस्फुटित होता है “पकड़ वारि की धार झूलता रे मेरा मन…” अथवा “रिमझिम रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर, रोम सिहर उठते छूते वे भीतर अन्तर | धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर, रज के कण कण में तृण तृण की पुलकावलि भर ||” और यही भाव कजरी बिरहा मल्हार आदि में और अधिक उद्दीप्त हो उठते हैं |
ऐसी मनोहारी रुत में ही मनाया जाता है हरियाली तीज का उल्लासमय पर्व | मान्यता है कि पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती ने जब सौ वर्ष की घोर तपस्या करके शिव को पति के रूप में प्राप्त कर लिया तो श्रावण शुक्ल तृतीया को ही शिव के घर में उनका पदार्पण हुआ था | दक्ष के यज्ञ में पत्नी सती के होम होने के बाद क्रोध में दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करके शिव हिम शिखर पर तपस्या करने चले गए थे | उसी समय सती ने पर्वतराज हिमालय के यहाँ उनकी पत्नी मैना के गर्भ से पार्वती के रूप में जन्म लिया | वह कन्या उमा तथा गौरी के नाम से भी विख्यात हुई । उस समय नारद कन्या को आशीर्वाद देने आए और भविष्यवाणी करते गए कि इस कन्या का विवाह शिव के साथ होगा | इसे सुन पर्वतराज हिमालय सन्तुष्ट हो गए | पार्वती विवाह योग्य हुईं तो हिमालय ने नारद की भविष्यवाणी का स्मरण करके एक सखी के साथ पार्वती को हिमालय के शिखर पर तप कर रहे शिव की सेवा के लिये भेज दिया |
इसी बीच ब्रह्मा के वरदान से वारंगी और वज्रांग के यहाँ तारक नाम के एक पुत्र ने जन्म लिया | तारक जन्म से ही उत्पाती था | जब बड़ा हुआ तो उसने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए आसुरी तप किया | तारक के तप से ब्रह्मा प्रसन्न हुए और तारक से वर माँगने के लिये कहा | तारक ने ब्रह्मा जी से वर माँगा कि करोड़ों वर्षों तक उसका समस्त लोकों में राज्य रहे और शिव के शुक्र से उत्पन्न पुत्र के अतिरिक्त त्रिलोकी में और किसी में उसका वध करने की सामर्थ्य न हो | तारकासुर जानता था कि औघड़दानी भोले बाबा जिस प्रकार से ध्यान में लीन हैं उन्हें उस ध्यान की अवस्था से बाहर लाना और फिर विवाह के लिए तैयार करना किसी के वश में नहीं | ब्रह्मा जी उसके चक्रव्यूह में फँस गए और बिना सोचे विचारे वरदान दे दिया | वर प्राप्त करने के बाद तारक और भी अधिक बलशाली एवं क्रूर हो गया | उसने समस्त देवलोक पर अधिकार कर लिया और देवताओं को तरह तरह से त्रस्त करना आरम्भ कर दिया | तारकासुर ने देवलोक में महासंहार मचा दिया | अब नारद ने देवताओं को ब्रह्मा जी के वरदान का स्मरण कराया कि केवल शिव के वीर्य से उत्पन्न बालक ही तारकासुर का संहार कर सकता है | किन्तु शिव की पत्नी सती तो दक्ष के यज्ञ में होम हो चुकी थीं | पत्नी के बिना पुत्र कैसे उत्पन्न होता ? शिव कठोर तपस्या में लीन थे, इस स्थिति में उन्हें दूसरे विवाह के लिये कैसे मनाया जा सकता था ? तब देवताओं को एक उपाय सूझा | उन्होंने कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने के लिये भेजा | किन्तु शिव ने क्रोध में आकर कामदेव को ही भस्म कर दिया और हिमालय छोड़कर कैलाश पर्वत पर चले गए | तब नारद ने पार्वती से आग्रह किया कि वे शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये तपस्या करें | नारद के आग्रह पर सौ वर्षों तक पार्वती ने घोर तपस्या की | किन्तु शिव तपस्या में ऐसे लीन हुए कि पार्वती की तपस्या की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया | स्थिति यहाँ तक पहुँच गई की शिव की तपस्या में पार्वती को अपने तन का भी होश नहीं रहा | खाना पीना पहनना ओढ़ना सब भूल गईं | उसी स्थिति में उन्हें “अपर्णा” भी कहा जाने लगा | अन्त में पार्वती की तपस्या रंग लाई और अनेक प्रकार से पार्वती की परीक्षा लेने के बाद शिव उनसे प्रसन्न हुए और अपना तप पूर्ण करने के बाद पार्वती के साथ विवाह किया | शिव-पार्वती के मिलन से उत्पन्न कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया | मान्यता है कि श्रावण शुक्ल तृतीया को ही शिव के घर में पार्वती पदार्पण हुआ था | यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिव पार्वती का पुनर्मिलन लोक कल्याण की भावना से हुआ था न कि किसी काम भावना के कारण | इसीलिये तो शिव ने उनके यज्ञ में बाधा डालने आए कामदेव को भी भस्म कर दिया था | अतः शिव पार्वती के मिलन का यह पर्व भी इसी प्रकार सात्विक भावना के साथ मनाया जाना चाहिये |
इस पर्व में पारम्परिक रूप से शिव परिवार, चन्द्रमा तथा वट वृक्ष की पूजा की जाती है और लड़कियाँ तथा महिलाएँ सावन से सम्बन्धित लोक गीत गाती हैं, झूला झूलती हैं | शिव परिवार की पूजा इसलिए कि भगवान शिव सबका कल्याण करने वाले और समस्त प्रकार की सुख समृद्धि के दाता हैं | उनकी पूजा अर्चना के द्वारा अपने परिवार के लिए उन्हीं समस्त सुख समृद्धियों की तथा अखण्ड सौभाग्य और अनन्त प्रेम की कमाना की जाती है | चन्द्रमा प्रतीक है मन का | परिवार की महिला का – कन्या का मन प्रसन्न रहेगा तो उसका शरीर स्वस्थ रहेगा, और जब शरीर स्वस्थ रहेगा तो वह परिवार के सभी प्राणियों के स्वास्थ्य का ध्यान रख पाएगी | साथ ही परिवार की नारी शक्ति यदि प्रसन्नचित्त होगी तो परिवार में भी आनन्द का – प्रसन्नता का वातावरण बना रहेगा | वट वृक्ष प्रतीक है अखण्डता का, अमरत्व का | कामना की जाती है कि वट वृक्ष की ही भाँति परिवार की सुख समृद्धि अखण्ड बनी रहे तथा परिवार के मध्य एक अखण्ड प्रेम का साम्राज्य रहे |
विविध प्रकार के पकवान इस दिन बनाए जाते है | कुछ स्थानों पर मेलों का भी आयोजन किया जाता है | नेपाल में भी यह त्यौहार इतने ही उत्साह के साथ मनाया जाता है और पशुपतिनाथ मन्दिर में पूजा अर्चना की जाती है | वृन्दावन में हरियाली तीज पर राधा कृष्ण की पूजा की जाती है उनके दिव्य प्रेम का सम्मान करने के लिये तथा इस कामना से कि सभी महिलाओं का उनके पति के साथ उसी प्रकार का दिव्य प्रेम सम्बन्ध बना रहे | साथ ही जिस प्रकार पार्वती को उनका इच्छित वर प्राप्त हुआ उसी प्रकार हर लड़की को उसका मनचाहा वर प्राप्त हो इस कामना से कुँआरी लड़कियाँ तीज का पर्व मनाती हैं |
कहने का तात्पर्य है कि, क्योंकि शिव पार्वती का यह सम्मिलन तीज के दिन ही हुआ था | सम्भवतः यही कारण है कि इस दिन सौभाग्यवती महिलाएँ अपने सौभाग्य अर्थात पति की दीर्घायु तथा समस्त परिवार के कल्याण की कामना से और कुँआरी कन्याएँ अनुकूल वर प्राप्ति की कामना से इस पर्व को मनाती हैं | जैसा कि सब ही जानते हैं, इस अवसर पर महिलाएँ और लड़कियाँ सज संवर कर, हाथों में सौभाग्य की प्रतीक मेंहदी लगाकर झूला झूलने जाती हैं |
अपने पुराने दिनों की याद करते हैं तो ध्यान आता है कि कई रोज़ पहले से बाज़ारों में घेवर फेनी मिलने शुरू हो जाया करते थे | बेटियों के घर घेवर फेनी तथा दूसरी मिठाइयों के साथ वस्त्र तथा श्रृंगार की अन्य वस्तुएँ जैसे मेंहदी और चूड़ियाँ आदि लेकर भाई जाया करते थे जिसे “सिंधारा” कहा जाता था | बहू के मायके से आई मिठाइयाँ जान पहचान वालों के यहाँ “भाजी” के नाम से बंटवाई जाती थीं | और इसके पीछे भावना यही रहती थी कि अधिक से अधिक लोगों का आशीर्वाद तथा शुभकामनाएँ मिल सकें | यों तो सारा सावन ही बागों में और घर में लगे नीम आदि के पेड़ों पर झूले लटके रहते थे और लड़कियाँ गीत गा गाकर उन पर झूला करती थीं | पर तीज के दिन तो एक एक घर में सारे मुहल्ले की महिलाएँ और लड़कियाँ हाथों पैरों पर मेंहदी की फुलवारी खिलाए, हाथों में भरी भरी चूड़ियाँ पहने सज धज कर इकट्ठी हो जाया करती थीं दोपहर के खाने पीने के कामों से निबट कर और फिर शुरू होता था झोंटे देने का सिलसिला | दो महिलाएँ झूले पर बैठती थीं और बाक़ी महिलाएँ गीत गाती उन्हें झोंटे देती जाती थीं और झूला झूलने के साथ साथ चुहल भी चलती रहती | सावन के गीतों की वो झड़ी लगती थी कि समय का कुछ होश ही नहीं रहता था | वक़्त जैसे ठहर जाया करता था इस मादक दृश्य का गवाह बनने के लिये |
आइये हम सब मिलकर अभिनन्दन करें हरियाली तीज के उल्लासमय पर्व का तथा पर्व की मूलभूत भावनाओं का सम्मान करें | इस पर्व की मूलभूत भावनाएँ सामाजिक होने के साथ साथ आध्यात्मिक भी हैं – और वो इस प्रकार कि दाम्पत्य जीवन केवल काम भावना का ही नाम नहीं है, वरन पति पत्नी को परस्पर प्रेम भाव से साथ रहते हुए, एक दूसरे का सम्मान करते हुए, लोक कल्याण की भावना से जीवन व्यतीत करना चाहिए ताकि कार्तिकेय जैसा पुत्र उत्पन्न हो जो समाज को समस्त कष्टों से मुक्ति दिला सके | साथ ही सावन की मस्ती को न भूलें, क्योंकि जब सारी प्रकृति ही मदमस्त हो जाती है वर्षा की रिमझिम बूँदों का मधु पान करके तो फिर मानव मन भला कैसे न झूम उठेगा… क्यों न उसका मन होगा हिंडोले पर बैठ ऊँची ऊँची पेंग बढ़ाने का… हम सभी के मनोरथों की ऊँची पेंगें हमें लक्ष्य तक पहुँचाएँ… इसी कामना के साथ सभी को एक बार पुनः हरियाली तीज की हार्दिक शुभकामनाएँ…