रक्षा बन्धन के सन्दर्भ में उपलब्ध कथाएँ
गुरूवार ग्यारह अगस्त को रक्षा बन्धन का उल्लासमय पर्व है जब बहनें अपने भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र निबद्ध करेंगी | रक्षा बन्धन जिस रूप में आज हम देखते हैं उस रूप में कब आरम्भ हुआ यह तो किसी को ज्ञात नहीं | किन्तु मुख्य बात यह है कि रक्षा बन्धन में मूलतः दो भावनाएँ निहित रहती हैं – जिस व्यक्ति को रक्षा सूत्र बाँधा गया है उसके कल्याण की कामना, और दूसरी, जिसने वह रक्षा सूत्र बाँधा है उसके प्रति स्नेह, सम्मान और प्रेम की भावना | मूलतः रक्षा सूत्र अर्थात मौली या आम भाषा में जिसे कलावा भी कहा जाता है – उसमें – तीन धागे होते हैं जिनमें शक्ति के तीनों रूपों – दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती का वास माना जाता है | इस प्रकार रक्षा बन्धन वास्तव में स्नेह शान्ति ज्ञान विज्ञान और रक्षा का बन्धन है | कालान्तर में इसी रक्षा सूत्र को एक छोटे से पीले वस्त्र में – जो सूती ऊनी अथवा रेशमी कैसा भी हो सकता है – दूर्वा, अक्षत, केसर अथवा हल्दी, चन्दन और सरसों के दानों को एक मौली से बाँधकर राखी का रूप प्रदान किया गया |
राखी में बंधी हुई इन समस्त वस्तुओं का भी बहुत महत्त्व है | जिनकी व्याख्या हम इस प्रकार कर सकते हैं – सबसे पहले दूर्वा – जिसका अर्थ है कि जिस प्रकार दूर्वा का एक अंकुर यदि मिट्टी में लगा दिया जाए तो वह सहस्रों की संख्या में फैल जाता है – उसी प्रकार जिस व्यक्ति को भी रक्षा सूत्र बाँधा जा रहा है उसके जीवन में सुखों और सद्गुणों का विकास होता रहे | अक्षत – अर्थात जिस प्रकार अक्षत पूर्ण होता है उसी प्रकार वह व्यक्ति भी जीवन में पूर्ण रहे अर्थात सफलता प्राप्त करता रहे | केसर अथवा हल्दी अध्यात्म तेज भक्ति ज्ञान तथा सौभाग्य के प्रतीक माने जाते हैं | चन्दन का गुण है शीतलता प्रदान करना तथा सदा सुगन्धि प्रसारित करते रहना ताकि किसी भी प्रकार के तनावों से बचा जा सके और व्यक्ति के गुणों की सुगन्धि दूर दूर तक प्रसारित हो | सरसों तीक्ष्ण होती है – अर्थात मनुष्य दुर्गुणों को दूर करने की प्रक्रिया में, ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया में तथा शत्रुओं को परास्त करने की दिशा में तीक्ष्ण बना रहे |
कहने का अभिप्राय यही है कि समस्त के कल्याण की भावना इस सूत्र में निहित है | यहाँ ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि सूत्र का अर्थ धागा भी हो सकता है और सूत्र का अर्थ कोई सिद्धान्त अथवा मन्त्र भी हो सकता है | हमारे विचार से पुराणों में जिस रक्षा सूत्र को बाँधने की बात कही गई है उसका अर्थ धागे से न होकर किसी मन्त्र अथवा किसी ऐसे सूत्र से भी हो सकता है जिसके विषय में केवल बाँधने वाले और बंधवाने वाले को ही पता हो | कालान्तर में इसी मन्त्र के प्रतीक स्वरूप धागे का उपयोग किया जाने लगा होगा |
पुराणों से सम्बद्ध बहुत सी कथाएँ प्रचलित हैं | जिनमें से एक कथा भविष्य पुराण से है कि जब देव और दानवों के मध्य युद्ध आरम्भ हुआ तो दानव विजयी होते जान पड़ने लगे | जिससे इन्द्र घबरा गए और बृहस्पति के पास पहुँचे उनकी सलाह तथा सहायता माँगने | इन्द्राणी भी वहीं बैठी थीं | सारा समाचार जानकर उन्होंने इन्द्र को आश्वस्त किया और रेशम का एक धागा मन्त्रों से अभिषिक्त करके अपने पति इन्द्र की कलाई पर बाँध दिया | उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी | इन्द्र विजयी हुए और इन्द्राणी द्वारा बांधे गए धागे को इस विजय का कारण माना गया | तभी से धन, शक्ति, हर्ष तथा विजय की कामना से श्रावण पूर्णिमा के दिन राखी बाँधने का प्रचलन है | राजपूतनी रानियाँ भी पति के युद्धभूमि में जाते समय उनकी विजय की कामना से उनकी कलाई में राखी बाँधा करती थीं | वर्तमान में भी सैनिक जब युद्धभूमि की ओर प्रस्थान करते हैं तो मार्ग में आने वाले रेलवे प्लेटफ़ॉर्म, बस अड्डों और गाँव शहर की गलियों में जिधर से हमारे वीर सेनानी अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करते थे वहाँ खड़ी महिलाएँ और बच्चियाँ उनकी कलाई में रक्षा सूत्र निबद्ध करती हैं जिसमें दो भाव निहित होते हैं – एक यह कि भाई पूरे देश की रक्षा का भार अब आपके कन्धों पर है, और दूसरी यह कि देश की सीमाओं से शत्रुओं को भगाकर अथवा नष्ट करके विजयी होकर सकुशल वापस लौटकर भी आना है | सन 71 के भारत-पाक युद्ध में हमने स्वयं इन दृश्यों को न केवल देखा है बल्कि हमने उनमें भाग भी लिया है – इन दृश्यों को देखकर हर कोई भावुक हो जाता था |
इसके अतिरिक्त स्कन्दपुराण, पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत में भी रक्षा बन्धन का प्रसंग मिलता है | जिसके अनुसार भगवान विष्णु के द्वारा पाताल पहुँचा दिए गए राजा बलि से भगवान विष्णु को मुक्त कराने के लिए देवी लक्ष्मी ने रसातल पहुँचकर राजा बलि के हाथ पर राखी बाँधकर उसे अपना भाई बना लिया था और बलि ने भेंट स्वरूप बहिन लक्ष्मी को भगवान विष्णु सौंप दिए थे | इसीलिए रक्षा बन्धन के अवसर पर तथा अन्य भी पूजा विधानों में रक्षासूत्र बाँधते समय राजा बलि की ही कथा से सम्बद्ध एक मन्त्र का उच्चारण किया जाता है जो इस प्रकार है “येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः, तेन त्वां निबध्नामि रक्षे माचल माचल |” श्लोक का भावार्थ यह है कि जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बाँध रहा हूँ जिससे तुम्हारी रक्षा होगी |
एक कथा महाभारत में भी आती है कि जब युधिष्ठिर ने भगवान से प्रश्न किया कि वे संकटों से किस प्रकार मुक्त हो सकते हैं तब कृष्ण ने समस्त पाण्डव सेना को रक्षाबन्धन मनाने की सलाह दी थी |
इसी तरह एक और कथा है जो मृत्यु – मोक्ष तथा यम नियम संयम के देवता – यम तथा उनकी बहन यमुना से सम्बन्धित है | कथा इस प्रकार है कि यमुना ने अपने भाई के हाथ पर राखी बाँधी और बदले में अमरत्व का वरदान ले लिया | यम अपनी बहन के प्रेम से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने उसे वचन दे दिया कि आज के बाद जो भी भाई अपनी बहन से राखी बंधवाएगा और उसकी सुरक्षा का वचन देगा वह दीर्घायु होगा |
इन पौराणिक प्रसंगों के अतिरिक्त कुछ प्रसंग इतिहास से भी सुनने को मिल जाते हैं | जैसा ऊपर भी लिखा है, राजपूतों के युद्धभूमि में जाते समय उनकी विजय की कामना से महिलाएँ उनके मस्तक पर कुमकुम का तिलक लगाकर हाथ में राखी बाँधा करती थीं | चित्तौड़ की रानी कर्मावती और मुग़ल बादशाह हुमायूँ की कहानी तो जग प्रसिद्ध है ही कि जब चित्तौड़ की विधवा रानी कर्मावती को गुजरात के बादशाह बहादुरशाह द्वारा राज्य पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली तो वे समझ गईं की वे अकेले शत्रु से नहीं भिड़ सकतीं और तब उन्होंने मुग़ल बादशाह हुमायूँ को सहायता के लिये पत्र लिखा तथा साथ में एक राखी भी भेजकर हुमायूँ को मुँहबोला भाई बना लिया | हुमायूँ ने भी राखी की लाज रखी और रानी कर्मावती का साथ दिया | एक कथा और है कि सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के शत्रु राजा पौरस को राखी बाँधकर भाई बना लिया और सिकन्दर को न मारने का वचन ले लिया | 1947 के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी जन जागरण के लिये राखी को माध्यम बनाया गया था | गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बंग-भंग का विरोध करते समय इस पर्व को बंगाल के निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता के प्रतीक के रूप में इसका राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया था |
बहरहाल, कथाएँ चाहे जितनी भी हों, नाम चाहे जो हो, रूप चाहे जैसा भी हो, विधि विधान चाहे जैसे भी हों, चाहे कोई भी भाषा भाषी हों, किन्तु अन्ततोगत्वा इस पर्व को मनाने के पीछे अवधारणा केवल यही है कि लोगों में परस्पर भाईचारा तथा स्नेह प्रेम बना रहे | भारतीय समाज में रक्षाबन्धन सिर्फ भाई-बहन के रिश्तों तक ही सीमित नहीं है, अपितु प्रत्येक सम्बन्ध में यह पर्व मिठास, अपनापन तथा प्रगाढ़ता भर देता है | रक्षाबन्धन हमारे सामाजिक परिवेश एवं मानवीय रिश्तों का एक अभिन्न अंग है | अतः इस पर्व के साथ जुड़े संस्कारों और जीवन मूल्यों को समझने का प्रयास किया जाएगा तभी यह पर्व सार्थक होगा और तभी व्यक्ति, परिवार, समाज तथा देश का कल्याण सम्भव होगा… इसी कामना के साथ सभी को एक बार पुनः रक्षा बन्धन की अनेकशः अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएँ…