शाक्तवाद गीता और दुर्गा सप्तशती भाग एक

शाक्तवाद गीता और दुर्गा सप्तशती भाग दो 

शाक्तवाद गीता और दुर्गा सप्तशती भाग एक

शारदीय नवरात्रों के उत्सव चल रहे हैं | लगभग प्रत्येक हिन्दू परिवार में श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ इत्यादि का अनुष्ठान किया जाता है | हम भी करते हैं | दुर्गा सप्तशती या श्रीमद्भगवद्गीता का जब भी अध्ययन करने बैठते हैं तो बहुत से कथनों को पढ़कर कहीं न कहीं दोनों में दृष्टि का और कथनों का साम्य अनुभव होता है उसी सन्दर्भ में प्रस्तुत लेख है… लेख कुछ लंबा है इसलिए दो दिन दो भागों में पोस्ट कर रहे हैं…

दुर्गा सप्तशती शक्ति ग्रन्थ है और गीता ज्ञानपरक | इस प्रकार गीता यद्यपि शक्तिग्रन्थ नहीं है, फिर भी यह काव्य उस सर्वव्यापक ऐक्य को अंगीकार करता है जो सृष्टि में सर्वथा उपस्थित है, और काव्यात्मक भाषा के संकेत द्वारा इस बात का भी समर्थन करता है कि शक्ति सर्वस्याद्या है | उसका प्रभाव महान है | उसकी माया बड़ी कठोर और अगम्य है | तथा उसका माहात्म्य अकथनीय है | गीता और दुर्गा सप्तशती में स्थान स्थान पर ऐसे शब्द और भाव मिलते हैं जिनमें परस्पर समानता है | जैसे :

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि – गीता 7/10 – सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते – सप्तशती 11/8

भूतानामस्मि चेतना – गीता 10/22 – चेतनेत्यभिधीयते – सप्तशती 5/17

स्मृतिर्मेधाधृतिः क्षमा – गीता 10/34 – स्मृतिरूपेण संस्थिता – सप्तशती 5/62 महामेधा महास्मृतिः – सप्तशती 1/77 इत्यादि इत्यादि…

शास्त्रों में शक्ति शब्द के प्रसंगानुसार अलग अलग अर्थ किये गए हैं | तान्त्रिक इसी को पराशक्ति कहते हैं और इसी को विज्ञानानन्दधन मानते हैं | वेद, शास्त्र, उपनिषद, पुराण आदि में शक्ति शब्द का प्रयोग देवी, पराशक्ति, ईश्वरी, मूलप्रकृति आदि नामों से ब्रह्म के लिये ही किया गया है | यह निर्गुण स्वरूप देवी ही जीवों पर दया करके स्वयं ही सगुण भावों को प्राप्त होकर ब्रह्मा विष्णु और महेश रूप से सृष्टि की उतपत्ति, पालन और संहार करती है | ब्रह्मवैवर्त पुराण में स्वयं भगवान् कृष्ण ने कहा है :

त्वमेव सर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी, त्वमेवाद्या सृष्टिविधोस्वेच्छया त्रिगुणात्मिका |

कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयं, परब्रहमस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी ||

तेजःस्वरूपा परमा भक्तानुग्रहविग्रहा, सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा |

सर्वबीजरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया, सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमंगलमंगला ||

अर्थात्, तुम्हीं विश्वजननी मूलप्रकृति ईश्वरी हो, तुम्हीं सृष्टि की उत्पत्ति के समय आद्याशक्ति के रूप में विराजमान रहती हो तथा स्वेच्छा से त्रिगुणात्मिका बन जाती हो | यद्यपि तुम स्वयं निर्गुण हो तथापि प्रयोजनवश सगुण बन जाती हो | तुम परब्रह्मस्वरूप, सत्य, नित्य एवं सनातनी हो | तुम परम तेजःस्वरूप हो और भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये शरीर धारण करती हो | तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, सर्वाधार और परात्पर हो | तुम बीजस्वरूपा, सर्वपूज्या तथा आश्रयरहित हो | तुम सर्वज्ञ, सब प्रकार से मंगल करने वाली तथा समस्त मंगलों की भी मंगल हो | देवी सूक्त में स्वयं देवी ने कहा है :

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि, अहमादित्यैरुतविश्वदेवै: |

अहं मित्रावरुणोभौ विभर्मि अहमिन्द्राग्नि अहमश्विनोभौ ||

अर्थात् मैं ही एकादश रुद्र रूप से विचरण करती हूँ | मैं ही समस्त देवताओं के रूप में अवस्थान करती हूँ | मैं ही आत्मा के रूप में अवस्थान करके मित्र और वरुण को धारण करती हूँ | मैं ही इन्द्र एवम् अग्नि को धारण करती हूँ | मैंने ही दोनों अश्विनीकुमारों को धारण कर रखा है | इसी प्रकार :

अहं सुवे पितरमस्य मूर्द्धानममयोनिरप्स्वन्तः समुद्रे |

ततो वितिष्ठे भुवनानि विश्वा उतामुन्द्याम् वर्ष्मणोपस्पृशामि ||

अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा |

परो दिवा पर एना पृथिव्यै तावती महिमा सम्बभूव ||

अर्थात्, सब भूतों के मूल कारण आकाश को मैं ही उत्पन्न करती हूँ | अपने परमात्मरूप से आकाशादि को प्रकाशित करती हूँ | मैं चैतन्यरूप से इस भुवन में व्याप्त हूँ | मैं ही प्रकृतिरूप से सबमें प्रविष्ट हूँ | मैं स्वाधीन हूँ | मेरे किसी कार्य में किसी दूसरे की सहायता की अपेक्षा नहीं रहती | मैं स्वयम् इस त्रिभुवन की सृष्टि करके इसके अन्दर और बाहर वायु की भाँति विराजमान हूँ | पृथिवी आदि सब स्थानों में मैं ही अपनी महिमा सहित अधिष्ठान करती हूँ | किन्तु मैं स्वयं निर्लिप्त हूँ |

उपनिषदों में इसी को पराशक्ति के नाम से जानते हैं – “तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत् | विष्णुरजीजनत् | रुद्रोऽजीजनत् | मरुद्गणा अजीजनन् | गन्धर्वाप्सरसः किन्नरा वादित्रवादिनः समन्तादजीजनन् | भोग्यमजीजनत् | सर्वमजीजनत् | सर्व शाक्तमजीजनत् | अण्डजं स्वेदजमुद्भिज्जम् जरायुजम् यात्किन्चित्प्राणि स्थावरजंगमं मनुष्यमजीजनत् | सैषा पराशक्तिः | – बह्वृत्तोपनिषद – अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, मरुद्गण, गन्धर्व, अप्सराएँ, किन्नर, समस्त भोग्य पदार्थ और अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज, जरायुज जो कुछ भी स्थावर जंगम मनुष्य आदि प्राणिमात्र हैं सब उसी पराशक्ति से उत्पन्न हुए हैं | ब्रह्मसूत्र के अनुसार “सर्वोपेतातद्दर्शनात्” प्रत्यक्ष देखा जाता है कि वह पराशक्ति सर्वसामर्थ्य से युक्त है |

शक्ति का सिद्धान्त ही यह है कि वह सर्वस्याद्या अर्थात् सबकी आदिरूपा है | वही एक शक्ति है, अन्य किसी प्रकार की शक्ति है ही नहीं – एकैवाहं जगत्यत्र द्वीतीया का ममापरा – सप्तशती | वही सृष्टि की उत्पत्ति पालन और संहार करती है –

त्वमीश्वरी देवी त्वं देवी जननी परा | त्व्यैतद्धार्यते विश्वं त्व्यैतत्सृज्यते जगत् | त्वैयेतत्पाल्यते देवी त्वमस्यन्ते च सर्वदा | विसृष्टो सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने | तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये || – तुम ही ईश्वरी हो, तुम ही सब विश्व को धारण करती हो, उत्पन्न करती हो, पालन करती हो, तथा अन्त में इसका संहार भी करती हो – सप्तशती

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्, प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सद्भवाम्यात्ममायया – मैं अजन्मा और अविनाशी होते हुए भी जन्मता और विनष्ट होता हुआ सा प्रतीत होता हूँ | साधारण व्यक्ति जो मेरे तत्व को नहीं समझते यह नहीं जान पाते कि यह सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा ही जगत् का कल्याण करने के लिये योगमाया से प्रकट होते हैं |

वस्तुतः तो गीता पुरुषकथित काव्य है | किन्तु हिन्दूधर्म की ऐक्यप्रियता के कारण इसमें अनेक स्थानों पर शक्ति की महिमा पाई जाती है | जैसा कि अनेक स्थानों पर स्पष्ट है कि भगवान् की मूलप्रकृति शक्तिरूपा है | इसका ही उन्होंने इस प्रकार वर्णन किया है :

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्तिं मामिकाम्, कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृज्याम्यहम् | प्रकृतिं स्वामवष्टम्य विसृजामि पुनः पुनः, भूतग्रामिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् || – गीता 9/7,8 

चौदहवें अध्याय में इसी को महद्ब्रह्म कहा गया है | यही वह योगशक्ति है जिससे भगवान् समस्त जगत् को धारण किये हुए हैं | जिससे वे नाना प्रकार के रूप धारण करके मनुष्यों के सम्मुख प्रकट होते हैं, तथा इसी में आवृत्त रहने के कारण मनुष्य इन्हें पहचान नहीं पाते | इसी महाशक्ति का नाम योगमाया है | भगवान् जब किसी रूप में अवतीर्ण होते हैं तो अपनी उस योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयम् उसमें छिपे रहते हैं | वास्तव में भगवान् का माया से आवृत्त हो जाना सूर्य का बादलों से ढक जाने के जैसा ही होता है | सूर्य का बादलों से ढक जाना कहा तो जाता है, लेकिन वास्तव में सूर्य नहीं ढकता बल्कि लोगों की दृष्टि पर ही बादलों का आवरण आ जाता है | यदि सूर्य वास्तव में ढक ही जाए तो ब्रह्माण्ड में कहीं उसका प्रकाश न हो | इसी प्रकार भगवान् माया से आवृत्त नहीं होते वरन् श्रद्धा व प्रेम के अभाव के कारण अज्ञानी मनुष्य इसी भ्रम में रहते हैं कि भगवान् भी हमारी तरह ही जन्मते व मरते हैं | इस प्रकार वास्तविकता तो यह है कि मूल प्रकृति को अपने अधीन करके अपनी योगशक्ति के द्वारा भगवान् अवतीर्ण होते हैं | मूल प्रकृति संसार को उत्पन्न करती है तथा भगवान् की यह योगमाया उनकी अत्यन्त प्रभावशालिनी ऐश्वर्यमयी शक्ति है – अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम्, जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् | एतदयोसीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय, अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ||

इस स्थावर जंगम जगत में जितने भी छोटे बड़े सजीव प्राणी हैं उन सभी की उत्पत्ति वृद्धि और स्थिति परा और अपरा प्रकृतियों के ही संयोग से होती है | अपरा प्रकृति ज्ञेय तथा जड़ होने के कारण ज्ञाता एवं चेतन रूप परा प्रकृति से भिन्न और निकृष्ट है, संसार की हेतुरूप है तथा इसी के द्वारा जीव का बन्धन होता है | इस समस्त चराचर विश्व का वाचक जगत शब्द है | इसकी उत्पत्ति तो भगवान् से ही है, स्थिति भी भगवान् में ही है और प्रलय भी उन्हीं में है | उसी प्रकार जैसे बादल आकाश से ही उत्पन्न होते हैं, आकाश में ही रहते हैं और वहीं विलीन भी हो जाते हैं – यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान, तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ||