शाक्तवाद गीता और दुर्गा सप्तशती भाग दो
शारदीय नवरात्रों के उत्सव चल रहे हैं | लगभग प्रत्येक हिन्दू परिवार में श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ इत्यादि का अनुष्ठान किया जाता है | हम भी करते हैं | दुर्गा सप्तशती या श्रीमद्भगवद्गीता का जब भी अध्ययन करने बैठते हैं तो बहुत से कथनों को पढ़कर कहीं न कहीं दोनों में दृष्टि का और कथनों का साम्य अनुभव होता है उसी सन्दर्भ में कुछ दिन पूर्व एक लेख प्रकाशित किया था… प्रस्तुत है आज उसी का दूसरा भाग…
दुर्गा सप्तशती शक्ति ग्रन्थ है और गीता ज्ञानपरक | इस प्रकार गीता यद्यपि शक्तिग्रन्थ नहीं है, फिर भी यह काव्य उस सर्वव्यापक ऐक्य को अंगीकार करता है जो सृष्टि में सर्वथा उपस्थित है, और काव्यात्मक भाषा के संकेत द्वारा इस बात का भी समर्थन करता है कि शक्ति सर्वस्याद्या है | उसका प्रभाव महान है | उसकी माया बड़ी कठोर और अगम्य है | तथा उसका माहात्म्य अकथनीय है | गीता और दुर्गा सप्तशती में स्थान स्थान पर ऐसे शब्द और भाव मिलते हैं जिनमें परस्पर समानता है…
शक्तिवाद का एक सिद्धान्त यह है कि माया बड़ी बलवान है | अहंकारी व्यक्ति उस पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता –
देवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते |
गुणों का यह सारा जड़ दृश्य प्रपंच इस माया में ही है | इसीलिये इसे गुणमयी कहा गया है | यह माया भगवान् की अत्यन्त असाधारण तथा विचित्र शक्ति है | इसीलिये इसे देवी बताया गया है | भगवान् स्वयं ही इसके स्वामी हैं | अतः उनकी शरण में जाए बिना कार्य और कारणरूपा इस माया के रहस्य को पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता | यही कारण है कि देवी को अबला समझकर बल के अहंकार से अन्ध चण्ड मुंड और शुम्भ निशुम्भ उन पर विजय नहीं पा सके | देवी की कठिन माया से पार पाने का एक ही मार्ग है – अनन्य व विनम्र शरणागति –
विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येशु वाक्येषु च का त्वदन्या |
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम् || – सप्तशती
समस्त विद्याओं के, समस्त शास्त्रों के तथा ज्ञान के दीपक वेदों की एकमात्र तुम्ही कारणभूता हो | इस संसार को ममता रूपी गर्त में तुम्हारे अतिरिक्त और कौन घुमा सकता है |
तयैतन्मोह्यते विश्वं सैव विश्वं प्रसूयते | सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धि प्रयच्छति || – सप्तशती
वही देवी संसार को मोहित करती है और उत्पन्न करती है | याचना करने पर विशेष ज्ञान भी देती है तथा प्रसन्न होने पर ऋद्धि भी देती है | यह माया इतनी प्रभावशालिनी है कि “यया त्वया जगत्सृष्टा जगत्पातात्ति यो जगत्, सोऽपि नीद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वर: | विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च, कारितास्ते यतोऽतस्त्वाम् कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् ||” – सप्तशती
जगत् का स्रष्टा, पाता, संहर्ता सब तुम्हारे ही द्वारा निद्रित होते हैं | विष्णु ब्रह्मा महेश सबने तुम्हारे द्वारा ही शरीर ग्रहण किया है | अतः तुम्हारी स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है | वेदादि शास्त्रों में जिस प्रकार ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों की आयु अलग अलग बताई गई है उसी के अनुसार उन तीनों की रात्रि का भी अलग अलग वर्णन मिलता है | यहाँ देवी की स्तुति करते हुए स्वयं ब्रह्मा कहते हैं कि हम तीनों ब्रह्मा विष्णु महेश की रात्रि व निद्रा तुम्हारे ही द्वारा नियत होती है | अर्थात् वह माया इतनी प्रबल है कि स्थावर जंगमादि से लेकर ब्रह्मादि त्रिमूर्ति तक को अपने वश में कर लेती है | इसी प्रकार ब्रह्मा में ब्राह्मी शक्ति, विष्णु में वैष्णवी शक्ति तथा शिव में शैव शक्ति भी उसी त्रिगुणमयी महाशक्ति का अंश हैं | यह विद्या अविद्या रूप त्रिगुणमयी महामाया बड़ी विलक्षण है | यह माया परमेश्वर से भिन्न नहीं है | वेदों और शास्त्रों में इसे ब्रह्मरूप बतलाया गया है – मायां तू प्रकृतिम् विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् – त्रिगुणमयी माया प्रकृति तथा मायापति महेश्वर हैं | तथा, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, तथा, एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा, कर्माध्यक्षः सर्वभूतादिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च | अर्थात् जो देव सब भूतों में छिपा हुआ, सर्वव्यापक, सर्व भूतों का अन्तरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, सब भूतों का आश्रय, सबका साथी, चेतन, केवल और निर्गुण है वह एक है | वह शक्ति सबको आश्रय देने वाली है | यह समस्त जगत उसी का अंश है | वह विकारों से रहित है, परम प्रकृति है तथा आदिशक्ति है |
हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषै: न ज्ञायसे हरीहरादिभिरप्यापारा |
सर्वाश्रयाखिलमिदं जग्दंशभूतमव्याकृता हि प्रकृतिस्त्वामाद्या || – सप्तशती
वही त्रिगुणमयी शक्ति समस्त जगत का कारण है | साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या की जाए, स्वयं ब्रह्मा विष्णु महेश भी उसका पार नहीं पा सकते | प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ये तीनों देवता अपने अपने अधिकार के अनुसार ईश्वर माने जाते हैं | उनका ज्ञान एक ब्रह्माण्ड के देश और काल से ही परिच्छिन्न रहता है | अतः अनन्तकोटिब्रह्माण्डजननी के अनादि अनन्त स्वरूप को समझ पाना उनके लिये भी दुष्कर है |
या मुक्तिहेतुरविचिन्त्य महाव्रता च अभ्यस्यसेसुनियतेन्द्रियतत्वसारै: |
मोक्षार्थिभिः मुनिभिरस्तसमस्तदोषैः विद्यासि सा भगवती परमा हि देवी || – सप्तशती
वही मुक्ति का कारण परमविद्यारूपिणी है | इसी कारण मोक्षार्थी मुनिगण रागद्वेषादि समस्त दोषों का परित्याग करके संयतेन्द्रिय ब्रह्मतत्वानुसंधान की इच्छा से उसी का नमन करते हैं | वह अविचिन्त्य है तथा सर्वोत्कृष्टा है | यही भाव गीता में भी इस प्रकार है –
यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा, तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसमुद्भवम् |
अथवा बहुनैतेन किम् ज्ञातेन तवार्जुन, विष्टम्यामिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ||
समस्त जड़ चेतन में जो भी ऐश्वर्य, शोभा, शक्ति, बल और तेज आदि समस्त गुण प्रतीत होते हैं वे सब भगवान् के ही तेज के अंश हैं | उसी प्रकार जिस प्रकार बिजली की शक्ति से कहीं बल्व जलता है, कहीं रेडियो चलता है, अर्थात् भिन्न भिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न कार्य होते हैं, किन्तु उनमें बिजली का ही अंश विद्यमान रहता है | इस समस्त जगत का सम्पूर्ण विस्तार भगवान् एन अपनी योगशक्ति के ही अंश से धारण किया हुआ है – एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः, सोऽविकम्पेन योगेन सृज्यते नात्र संशयः |
भगवान् की जो अलौकिक शक्ति है, जिसे देवता और महर्षिगण भी पूर्ण रूप से नहीं जान पाते, जिसके कारण स्वयं सात्विक, राजस एवं तामस भावों से अभिन्निमित्तोपादान कारण होने पर भी भगवान् सदा उनसे पृथक् बने रहते हैं, जिस शक्ति से सम्पूर्ण जगत को भगवान नियमों में चलाते हैं, जिसके कारण वे समस्त लोकों के महान ईश्वर, समस्त भूतों के सुहृद, समस्त यज्ञादि के भोक्ता, सर्वाधार और सर्वशक्तिमान हैं, जिस शक्ति से भगवान् इस समस्त जगत को अपने एक अंश में धारण किये हुए हैं और युग युग में अपनी इच्छानुसार विभिन्न कार्यों के लिये अनेक रूप धारण करते हैं तथा सब कुछ करते हुए भी सर्वथा निर्लेप रहते हैं, उस अद्भुत शक्ति के प्रभाव को तत्व से ही जाना जा सकता है |
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि गीता दर्शन सप्तशती में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त है तथा गीता दर्शन में शाक्तवाद दर्शन के रूप में उपदिष्ट है | भगवान् श्रीकृष्ण ने शक्ति के गुह्यतम रहस्यों की ओर स्थान स्थान पर संकेत किये हैं | क्योंकि प्रकृति के प्रभाव और उसकी महिमा से अनभिज्ञ रहने से उस परम सत्य का ज्ञान अधूरा रहा जाता है जो अद्वितीय है |