प्रकृति की उपासना के पर्व
वट सावित्री अमावस्या और पूर्णिमा
सौभाग्यवती महिलाएँ अपने सौभाग्य तथा परिवार की मंगलकामना से शुक्रवार 19 मई को वट सावित्री अमावस्या के व्रत का पालन करेंगी… साथ ही शनिवार तीन जून को दक्षिण भारत, महाराष्ट्र और गुजरात में वट सावित्री पूर्णिमा के व्रत का पालन करेंगी… सर्वप्रथम सभी बहनों को वट सावित्री अमावस्या और पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ…
अमावस्या तिथि का आगमन गुरुवार 18 मई को रात्रि 9:42 के लगभग चतुष्पद करण और शोभन योग में होगा, जो शुक्रवार 19 मई को रात्रि 9:22 तक रहेगी | अतः वट सावित्री अमावस्या व्रत 19 मई को किया जाएगा | इस दिन चन्द्रमा और सूर्य दोनों ही कृत्तिका नक्षत्र पर आरूढ़ होंगे | इसी दिन शनि जयन्ती भी है | पूर्णिमा तिथि का आगमन शनिवार तीन जून को प्रातः 11:16 पर होगा जो रविवार चार जून को प्रातः 9:11 तक रहेगी – अतः तीन जून को पूर्णिमा व्रत का पालन किया जाएगा |
वट सावित्री अमावस्या का व्रत सौभाग्य को देने वाला और सन्तान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है | भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का मई प्रतीक बन चुका है | इस व्रत की तिथि को लेकर अनेक मत हैं | जैसे स्कन्द पुराण और भविष्योत्तर पुराण में ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है | किन्तु कुछ पुराणों में ज्येष्ठ माह की अमावस्या को यह व्रत किया जाता है | अधिकाँश में अमावस्या वाला मत ही प्रचार में है | वट सावित्री व्रत चाहे अमावस्या को किया जाए या पूर्णिमा को – उद्देश्य एक ही है – अखण्ड सौभाग्य की कामना | इस दिन सौभाग्यवती महिलाएँ पूजन सामग्री वट वृक्ष के दोने अथवा टोकरी में रखकर वट वृक्ष के नीचे बैठकर “अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते | पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तुते ||” मन्त्र से वट वृक्ष की पूजा करती हैं और वृक्ष की सात बार परिक्रमा करते हुए तथा यम की गायत्री “ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि। तन्नो यम: प्रचोदयात्” का जाप करते हुए कच्चा सूत उसके चारों ओर मौली की भाँति बाँधती हैं – मौली अर्थात रक्षा सूत्र | साथ ही यम, सावित्री, सत्यव्रत, ब्रह्मा जी, नारद और माँ सरस्वती की प्रार्थना करते हुए जल समर्पित किया जाता है…
ब्रह्मणा सहितां देवीं सावित्रीं लोकमातरम् |
सत्यव्रतं च सावित्रीं यमं च पूज्याम्हम ||
पद्मपत्रसमासीनं ब्रह्माणं च चतुर्मुखम् |
उपवीतधरं देवं साक्षसूत्रकमण्डलुम् ||
वामोत्सङ्गगता तस्य सावित्री ब्रह्मण: प्रिया |
आदित्यवर्णां धर्मज्ञां साक्षमालाकरां तथा ||
चिन्तयामि च देवेशं सर्वप्राणिहिताय वै |
वीणां दधानं देवर्षिं नारदं चिन्तयाम्यहम् ||
सभी जानते हैं कि वट सावित्री व्रत में ‘वट’ वृक्ष का विशिष्ट महत्व है – इसी कारण से इसे “वट” सावित्री अमावस्या और पूर्णिमा कहा जाता है – ज्ञातव्य है कि महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत में अमावस्या से पन्द्रह दिनों के बाद पूर्णिमा को इस व्रत का पालन किया जाता है और इसे “वट सावित्री पूर्णिमा” के नाम से जाना जाता है – पूजा इत्यादि की लगभग प्रक्रिया यही रहती है | जिस प्रकार हिन्दू मान्यता में पीपल के वृक्ष का महत्त्व माना जाता है उसी प्रकार वट अर्थात बरगद के वृक्ष का भी महत्त्व माना जाता है | वटवृक्ष केवल अपनी विशालता और घनत्व के कारण ही प्रसिद्ध नहीं है | मान्यता है कि इसके अग्रभाग में भगवान शंकर, मध्य में विष्णु तथा मूल में ब्रह्मा का वास होता है | इस प्रकार सृष्टि की रचना, पालन और संहार तीनों का क्रम इस वृक्ष में विद्यमान है | साथ ही प्राचीन काल में जब न तो मार्ग ही इतने अच्छे थे और न ही आवागमन के साधन थे – कहीं आने जाने के लिए बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी या खच्चर आदि ही प्रयोग में लाए जाते थे | या फिर पैदल यात्रा की जाती थी | इस स्थिति में ज्येष्ठ की तपती दोपहरी में वटवृक्ष की घनी छाया में पल भर विश्राम करके जब पथिक आगे अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करेगा तब भला क्यों न वह उस वृक्ष को धन्यवाद देगा ? सम्भवतः इन्हीं समस्त कारणों से वटवृक्ष की पूजा का विधान ज्येष्ठ मास में किया गया होगा |
वैदिक ग्रन्थों से लेकर उपनिषद ब्राह्मण तथा अन्य पौराणिक ग्रन्थों में वट वृक्ष को “अक्षय वट” कहा गया है | इस वृक्ष के सभी अंग किसी न किसी रूप में मनुष्य के लिए अत्यन्त उपयोगी होते हैं | कफ, पित्त, ज्वर, मूर्च्छा इत्यादि में वैद्य लोग इस वृक्ष की छाल, पत्तों इत्यादि का उपयोग करने का सुझाव देते हैं | इसके समस्त अवयवों से लेकर इसकी छाया तक को न केवल मनुष्यों अपितु समूची प्रकृति और जीव जन्तुओं तक के लिए जीवन रक्षक माना गया है | अर्थात इसका औषधि के रूप में भी महत्त्व है | दार्शनिक दृष्टि से यदि देखें तो वटवृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है | ज्ञान तथा निर्वाण का प्रतीक भी वटवृक्ष को माना जाता है | सर्व विदित है कि भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था | भगवान श्री राम ने भी जब वन के लिए प्रस्थान किया तो कुछ समय प्रयागराज में भारद्वाज ऋषि के आश्रम में विश्राम किया था – उस समय भारद्वाज ऋषि ने उन्हें इसी अक्षय वट की पूजा करने का सुझाव दिया था | गोकुल में कंस के दूत प्रलम्बासुर ने जब प्रदूषित अग्नि का ताण्डव रचाना आरम्भ किया तब श्री कृष्ण ने इसी अक्षय वट अर्थात वट वृक्ष पर चढ़कर उसका वध किया था |
वटवृक्ष की इन्हीं समस्त विशेषताओं के कारण सम्भवतः इस वृक्ष की सुरक्षा की बात मनीषियों के मन में आई होगी और इस वृक्ष की पूजा अर्चना आरम्भ हुई होगी | मनुष्य स्वभाव से धर्मभीरु है, और जब किसी कार्य को धर्म के साथ जोड़ दिया जाता है तो उस कार्य को साधारण जन पूर्ण श्रद्धा और आस्था के साथ सम्पन्न करते हैं | इसीलिए वटवृक्ष की पूजा अर्चना को भी सत्यवान और सावित्री की कथा के साथ जोड़ा गया | भारत में तो वैसे भी वृक्षों तथा पर्यावरण की सुरक्षा के लिए वृक्षों की पूजा अर्चना का विधान अनादि काल से रहा है | वृक्षों के बीज बोने या पौधा आरोपित करने से लेकर उनके पूरे जीवनकाल में उसी प्रकार संस्कार किये जाते थे जिस प्रकार किसी बच्चे के जन्म से लेकर पूरा जीवन किसी व्यक्ति के संस्कार किये जाते हैं | जिस वृक्ष को व्यक्ति बच्चे के सामान पाल पोस कर बड़ा करता है, परिवार के मुखिया के समान जिसके समक्ष श्रद्धानत रहता है, देवताओं के समान जिसकी उपासना करता है उस वृक्ष को किसी प्रकार की हानि पहुँचाने का विचार किसके मन में आएगा ? इसीलिए वटवृक्ष जैसे विशाल और छायादार तथा मनुष्य के जीवन के लिए उपयोगी वृक्ष की उपासना को भी सत्यवान सावित्री की अमर कथा के साथ सम्बद्ध करना वास्तव में समझने योग्य बात है |
कारण और कथाएँ चाहें जो भी हों, वट सावित्री अमावस्या जैसे पर्व हमें प्रकृति का सम्मान करना सिखाते हैं तथा पर्यावरण की सुरक्षा की दिशा में इस प्रकार के पर्वों का बहुत बड़ा योगदान होता है…
पारम्परिक रूप से षोडशोपचार पूर्वक वट सावित्री व्रत की पूजन सामग्री में बहुत सारी वस्तुएँ एकत्र करने की सलाह दी जाती है | साथ ही पूजन के उपरान्त परिवार की बुजुर्ग महिलाओं को वस्त्र दक्षिणा आदि बायने के रूप में देने का भी विधान है | किन्तु, जैसा हम पूर्व में भी लिखते आए है, वास्तविक उद्देश्य है ईश्वराधन के साथ साथ प्रकृति की आराधना | अतः कुछ भी सामग्री यदि उपलब्ध न हो सके तो केवल मन में संकल्प लेकर भी कोई भी व्रत उपवास पूजा आदि किया जा सकता है – और यदि मन में आस्था होगी – दृढ़ संकल्प होगा – तो सूक्ष्म विधि से की गई पूजा अर्चना भी स्वीकार्य होगी |
एक बार पुनः सभी को वट सावित्री अमावस्या और पन्द्रह दिनों बाद पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ… इस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब संकल्प लें कि केवल इस एक ही दिन नहीं, अपितु हम सदा पर्यावरण की सुरक्षा की अपनी संस्कृति को याद रखते हुए केवल वट अथवा पीपल आदि वृक्षों का ही नहीं अपितु समस्त वृक्षों और प्रकृति का सम्मान करने के प्रति दृढ़ संकल्पित रहें और इस दिशा में निरन्तर प्रयासरत रहें… क्योंकि प्रकृति का यदि सम्मान करेंगे तभी वह अपने समस्त वसुओं की धारा से हमें पुष्टि प्रदान करेगी…