श्री कृष्ण जन्म महोत्सव 2023
हमारे धार्मिक विद्वानों की हठधर्मिता तथा लकीर का फ़कीर वाली मानसिकता के कारण प्रायः हमारे सारे ही पर्व दो दिन हो जाते हैं – क्योंकि हमारे ये विद्वान् जन साधारण के मनों में पर्व के मुहूर्त को लेकर द्विविधा की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं | किन्तु पूर्ण पुरुष, योगिराज भगवान श्री कृष्ण के जन्म महोत्सव की बात आती है तो वह तो सदा से ही दो दिनों के लिए मनाया जाता है | एक दिन जब मामा कंस के कारागृह में उनका अवतरण हुआ, और दूसरे दिन जब मैया यशोदा ने अपने पास कृष्ण के रूप में एक दिव्य सन्तान को अपने आँचल में प्राप्त किया – इसे दही हांडी के नाम से भी जाना जाता है | इनमें प्रथम दिवस का महोत्सव स्मार्तों का कहलाता है और दूसरे दिन का वैष्णवों का | स्मार्त और वैष्णव की व्याख्या पूर्व के लेखों में करते रहे हैं अतः उस ओर नहीं जाएँगे | इस वर्ष भी 6 और 7 सितम्बर को भगवान श्री कृष्ण का जन्म महोत्सव मनाया जाएगा | अष्टमी तिथि का आरम्भ 6 सितम्बर बुधवार को दिन में 3:39 के लगभग धनु लग्न, बालव करण और हर्षण योग में होगा जो सात सितम्बर को सायं चार बजकर चौदह मिनट तक रहेगी | 6 सितम्बर को प्रातः 9:20 से दूसरे दिन प्रातः 20:24 तक रोहिणी नक्षत्र भी रहेगा और चन्द्रमा अपनी उच्च राशि में विराजमान रहेगा | तिथ्योदय के समय वासरपति योग भी इस दिन बन रहा है – बुधवार के दिन का अधिपति बुध सूर्य के साथ एक ही राशि सिंह में विचरण कर रहा है | जन्माष्टमी की पूजा प्रायः निशीथ काल में सम्पन्न की जाती है क्योंकि माना जाता है कि अर्द्ध रात्रि को ही श्री कृष्ण का अवतरण हुआ था, और उस समय ये रोहिणी नक्षत्र भी हो – जो कि प्रायः मिल ही जाता है – तो बहुत ही उत्तम माना जाता है | यही कारण है कि केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ भागों में इसे रोहिणी अष्टमी के नाम से जाना जाता है | निशीथ काल की पूजा का समय है 6 सितम्बर को रात्रि 11:57 से 12:42 तक मिथुन लग्न में |
देश भर में श्री कृष्ण के अनेक रूपों की उपासना की जाती है | इसका कारण है कि वास्तव में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना भव्य है कि न केवल भारतीय इतिहास के लिये, वरन विश्व के इतिहास के लिये भी अलौकिक एवम् आकर्षक है और सदा रहेगा | उन्होंने विश्व के मानव मात्र के कल्याण के लिये अपने जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त अपनी सरस एवं मोहक लीलाओं तथा परम पावन उपदेशों से अन्तः एवं बाह्य दृष्टि द्वारा जो अमूल्य शिक्षण दिया था वह किसी वाणी अथवा लेखनी की वर्णनीय शक्ति एवं मन की कल्पना की सीमा में नहीं आ सकता |
श्री कृष्ण षोडश कला सम्पन्न पूर्णावतार होने के कारण “कृष्णस्तु भगवान स्वयम्” हैं | उनका चरित्र ऐसा है कि हर कोई उनकी ओर खिंचा चला जाता है | उनकी समस्त लीलाओं को यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखकर केवल लौकिक दृष्टि से देखा जाए – क्योंकि भगवान श्री कृष्ण अलौकिक चरित्र के लौकिक मानव थे जिन्होंने मनुष्य रूप में रहते हुए नीति तथा व्यावहारिकता और सामाजिकता से सम्बद्ध अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये – तो हम कहेंगे कि सर्वप्रथम तो कारागृह में उनका जन्म हुआ – किन्तु पिता वसुदेव ने उन्हें सुरक्षित अन्यत्र पहुँचाने का संकल्प लिया तो कुछ भयंकर समस्याओं के साथ ही परिस्थितियाँ स्वयमेव उनके अनुकूल होती चली गईं – इसका तात्पर्य यही है कि व्यक्ति यदि संकल्प ले ले तो कोई भी बाधा उसे लक्ष्य प्राप्ति से नहीं रोक सकती – साथ ही यह भी कि सन्तान की रक्षा करने के लिए माता पिता स्वयं के जीवन की भी परवाह नहीं करते | साथ ही इन बाल्यकाल की घटनाओं से माता पिता को यह भी शिक्षा प्राप्त होती है कि शैशव काल से ही बच्चों के पालन पोषण में किस प्रकार की सावधानियों का पालन करना चाहिए | उदाहरण के लिए पूतना का प्रकरण प्रतीक है इस तथ्य का किसी अपरिचित पर विश्वास न करें | इस लीला से यह भी संकेत प्राप्त होता है कि दुग्धपान कराने वाली महिला के लिए साफ़ सफाई का ध्यान रखना आवश्यक है अन्यथा उसके अमृत रूपी दुग्ध को विष बनते देर नहीं लगेगी | इसी प्रकार तृणावर्त, अघासुर और बकासुर आदि की घटनाएँ – जो बताती हैं कि इतने छोटे शिशुओं को कभी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए – वह भी खुले स्थान में – न जाने कब कहाँ से आँधी तूफ़ान आ जाए और बच्चे को उड़ा ले जाए, और न जाने कहाँ किस अनजान स्थल पर जाकर कहीं खो जाएँ | शकटासुर – आज जिस प्रकार से लाड़ लाड़ में माता पिता छोटे बच्चों को कार की ड्राइविंग सीट पर बैठा देते हैं – अथवा किशोरों के हाथों में बाईक इत्यादि दे देते हैं – कभी भी ये बातें शकटासुर का रूप ले सकती हैं – इस ओर से माता पिता को सावधान रहने की आवश्यकता है | यमलार्जुन के वध की लीला – जिससे संकेत मिलता है कि बच्चों को उनकी आयु के समान ही दण्ड दिया जाना चाहिए और वह भी इतना कठोर न हो कि उसको किसी प्रकार की चोट पहुँचा सके | और भी बहुत सी बाल लीलाएँ हैं जिनसे माता पिता को सन्तान के पालन पोषण के सन्दर्भ में बहुत प्रकार की शिक्षाएँ प्राप्त हो सकती हैं | यद्यपि कृष्ण की सभी लीलाओं के बहुत गहन आध्यात्मिक अर्थ हैं – किन्तु पूर्ण पुरुष होने के कारण उनकी लीलाओं को हमें सांसारिक दृष्टि से भी उन्हें समझने का प्रयास करने की आवश्यकता है |
कृष्ण की लीलाएँ इतनी अनोखी हैं कि एक ओर वे मनोचिकित्सक बनकर अर्जुन को गीताज्ञान देकर धर्मयुद्ध के लिए प्रेरित करते हुए उपदेशक की भूमिका में दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर एक आदर्श राजनीतिज्ञ के रूप में भी दिखाई देते हैं जब पाण्डवों के दूत बनकर दुर्योधन की सभा में जाते हैं | गोपियों और सभी सखाओं के लिए उनके बंसी बजैया बालसखा, संगीतज्ञ और एक ऐसे प्रेमी हैं जो कभी माखन चुराकर मैया यशोदा से अपने कान खिंचवाता है – ऊखल से बंधता है, तो कभी ग्वाल बालों की गेंद यमुना में फेंक देता है और खेल खेल में कालिया नाग का मर्दन करके जनसाधारण को यह शिक्षा देता है कि स्वार्थपरता, निर्दयता आदि ऐसे दोष हैं जो जीवन रूपी यमुना के निर्मल जल को विषाक्त कर देते हैं | जब तक सात्विक बुद्धि से इन विकारों का मर्दन नहीं किया जाएगा तब तक जीवन सरिता की सरसता एवं शुद्धता असम्भव रहेगी | कभी गोपियों के वस्त्र हरण कर उन्हें शालीनता और सदाचार की शिक्षा देने वाला सद्गुरु बनता है तो कभी गोपियों संग रास रचाता है | कभी सुदामा का आदर्श मित्र बनकर उनके तंदुल खाकर बदले में राज पाट देकर मित्र के कर्त्तव्य का निर्वाह करता है | यह घटना सामन्तवादी मनोवृत्ति का भी पूर्ण रूप से विरोध करते हुए ऐसी प्रवृत्ति का उपहास करती है | साथ ही सुदामा जैसे लोग जो परिग्रह और अभाव में अन्तर भुला बैठते हैं उनके लिए एक सीख भी है कि दोनों में सन्तुलन स्थापित करने की आवश्यकता है | परिग्रह मत करो पर अभावग्रस्त भी मत रहो | व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसके लिए व्यावहारिक होना अत्यन्त आवश्यक है |
श्री कृष्ण एक ऐसे क्रान्तिकारी भी हैं जो अन्याय के विरुद्ध सुदर्शन चक्र उठाने में भी नहीं चूकते | कृष्ण के रूप में एक ऐसा युगप्रवर्तक दिखाई देता है जो निरर्थक रीति रिवाज़ों के विरोध में खड़ा होकर इन्द्र की पूजा को रोककर इन्द्र को क्रुद्ध कर देता है लेकिन वहीं गवर्धन पर्वत के नीचे सबको इकट्ठा करके अपने आस पास की प्रकृति का, बुजुर्गों का, पशुधन का सम्मान करने की शिक्षा भी देता है | साथ ही यह भी बताता है कि व्यक्ति का परम धर्म जनसेवा है – एक राजा अथवा कबीले का मुखिया भी वास्तव में जनसेवक ही होता है | साथ ही जो भक्ति मार्ग की दिशा में भी संसार को समझाता है कि केवल दम्भ प्रदर्शन के लिये किया गया कर्मकाण्ड और वेदपाठ केवल आत्मप्रवंचना है तथा ममता और निरभिमानता ही जीवन का सार है |
कहने का अर्थ यह कि कृष्ण के चरित्र में एक आदर्श पुत्र, आदर्श सखा, आदर्श प्रेमी और पति, आदर्श मित्र, निष्पक्ष और निष्कपट व्यवहार करने वाले उत्कृष्ट राजनीतिक कुशलता वाले एक आदर्श राजनीतिज्ञ, आदर्श योद्धा, आदर्श क्रान्तिकारी, उच्च कोटि के संगीतज्ञ इत्यादि वे सभी गुण दीख पड़ते हैं जो उन्हें पूर्ण पुरुष बनाते हैं | वास्तव में श्री कृष्ण षोडश कलासम्पन्न युगप्रवर्तक पूर्णपुरुष थे |
संसार के जिस जिस सम्बन्ध और जिस जिस स्तर पर जो जो व्यवहार हुआ करते हैं उन सबकी दृष्टि से और देश, काल, पात्र, अवस्था, अधिकार आदि भेदों से व्यक्ति के जितने भिन्न भिन्न धर्म अथवा कर्तव्य हुआ करते हैं उन सबमें कृष्ण ने अपने विचार, व्यवहार और आचरण से एक सद्गुरु की भांति पथ प्रदर्शन किया है | कर्तव्य चाहे माता पिता के प्रति रहा हो, चाहे गुरु-ब्राह्मण के प्रति, चाहे बड़े भाई के प्रति अथवा गौ माता और अपने भक्तों के प्रति रहा हो, चाहे शत्रु से व्यवहार हो अथवा मित्र से, चाहे शिष्य और शरणागत हो – सर्वत्र ही धर्म का उच्चतम स्वरूप और कर्तव्यपालन का सार्वभौम आदर्श उनके आचरण में प्रकट होता है | आज जो गो माता की रक्षा के लिए आन्दोलन प्रकाश में आए हैं देखा जाए तो कृष्ण के समय में ही गोरक्षा की नींव डल गई थी |
श्री कृष्ण जन्म भी कोई साधारण घटना नहीं थी | श्रीकृष्ण ने नगर के कारागार में जन्म लिया और गाँव में खेलते हुए उनका बचपन व्यतीत हुआ | इस प्रकार श्रीकृष्ण का चरित्र गाँव व नगर की संस्कृति को जोड़ता है | कोई भी साधारण मानव श्रीकृष्ण की तरह समाज की प्रत्येक स्थिति को छूकर, सबका प्रिय होकर राष्ट्रोद्धारक बन सकता है | कंस के वीर राक्षसों को पल में मारने वाला अपने प्रिय ग्वालों से पिट जाता है | खेल में हार जाता है | यही है दिव्य प्रेम की स्थापना का उदाहरण |
श्रीकृष्ण को सहस्ररमणीप्रिय और रसिक आदि भी कहा जाता है | लेकिन ऐसा कहते समय हम यह भूल जाते हैं कि नरकासुर के विनाश के पश्चात् उसके द्वारा बन्दी बनाई गई सोलह हज़ार स्त्रियों को कृष्ण यदि स्वीकार न करते तो समाज तो उन्हें स्वीकार करता ही नहीं | उनके साथ विवाह के लिए कोई आगे नहीं आता | उन्हें कुलटा मान लिया जाता और उनका तिरस्कार करते हुए उन पर अत्याचार भी किये जाते | उनके सम्मान की रक्षा के लिए ही श्रीकृष्ण ने यह आदर्श स्थापित किया और पत्नी सत्यभामा की साक्षी में उन सोलह हज़ार नारियों को पत्नी रूप में स्वीकार किया – जिसकी स्मृति में दीपावली से एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी भी मनाया जाता है | मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस विवाह के लिए सोलह हज़ार रूप एक साथ धारण किये थे – इसका भी मर्म यही है की भगवान की कृपा के समक्ष वे सभी षोडश सहस्र नारियाँ इतनी नत मस्तक हो गईं थीं कि कृष्ण भक्ति में स्वयं को ही भुला बैठीं और उन सबको भगवान अपने साथ ही खड़े दिखाई देने लगे | यही है भक्ति की पराकाष्ठा – जब भक्त को अपने साथ हर पल अपने आराध्य की उपस्थिति का आभास हो और वह उसी में लीन हो जाए |
रासलीला का भी यही मर्म है | भाव, ताल, नृत्य, छन्द, गीत, रूपक एवं लीलाभिनय से युक्त यह रास – जिसमें रस का उद्भव मन से होता है तथा जो पूर्ण रूप से अलौकिक और आध्यात्मिक है | समस्त ब्रह्माण्ड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरूष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की ही तो एक झलक है | उस रास में किसी प्रकार की काम भावना नहीं है | कृष्ण पुरूष तत्व है और गोपिकाएँ प्रकृति तत्व | इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का नृत्य प्रकृति और पुरूष का महानृत्य है | विराट प्रकृति और विराट पुरूष का महारास है यह | तभी तो प्रत्येक गोपी यही अनुभव करती है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं | रासलीला में कृष्ण तथा गोपियों का प्रेम अपने उस चरम उत्कर्ष बिंदु पर पहुँचता है जहाँ किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक गोपनीयता अथवा रहस्य का आवरण नहीं रहता |
भगवान श्रीकृष्ण की यही लीलाएँ सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रप्रियता का प्रेरक मानदण्ड हैं | यही कारण है कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अनूठा, अपूर्व और अनुपमेय है | श्रीकृष्ण अतीत के होते हुए भी वर्तमान की शिक्षा और भविष्य की अमूल्य धरोहर हैं | उनका व्यक्तित्व इतना विराट है कि उसे पूर्ण रूप से समझ पाना वास्तव में कठिन कार्य है | वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों व ऊँचाइयों पर जाकर भी न तो गम्भीर ही दिखाई देते हैं और न ही उदासीन दीख पड़ते हैं, अपितु पूर्ण रूप से जीवनी शक्ति से भरपूर व्यक्तित्व हैं | श्रीकृष्ण के चरित्र में नृत्य है, गीत है, प्रीति है, समर्पण है, हास्य है, रास है, और है आवश्यकता पड़ने पर युद्ध को भी स्वीकार कर लेने की मानसिकता | धर्म व सत्य की रक्षा के लिए महायुद्ध का उद्घोष है | एक हाथ में बाँसुरी और दूसरे हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर महा-इतिहास रचने वाला कोई अन्य व्यक्तित्व नहीं हुआ संसार के इतिहास में | उनका व्यक्तित्त्व एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसने जीवन के प्रत्येक पल को, प्रत्येक पदार्थ को, प्रत्येक घटना को समग्रता के साथ स्वीकार किया – कभी आधे अधूरे मन से कुछ नहीं किया | प्रेम किया तो पूर्ण रूप से स्वयं को उसमें डुबो दिया, फिर मित्रता भी की तो उसके प्रति भी पूर्ण निष्ठावान रहे | जब युद्ध स्वीकार किया तो उसमें भी पूर्ण स्वीकृति का भाव रहा |
इस प्रकार कृष्ण एक ऐसा विराट स्वरूप हैं कि किसी को उनका बालरूप पसन्द आता है तो कोई उन्हें आराध्य के रूप में देखता है तो कोई सखा के रूप में | किसी को उनका मोर मुकुट और पीताम्बरधारी, यमुना के तट पर कदम्ब वृक्ष के नीचे वंशी बजाता हुआ प्राणप्रिया राधा के साथ प्रेम रचाता प्रेमी का रूप भाता है तो कोई उनके महाभारत के पराक्रमी और रणनीति के ज्ञाता योद्धा के रूप की सराहना करता है और उन्हें युगपुरुष मानता है | वास्तव में श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूष हैं | वास्तव में श्रीकृष्ण प्रेममय, दयामय, दृढ़व्रती, धर्मात्मा, नीतिज्ञ, समाजवादी दार्शनिक, विचारक, राजनीतिज्ञ, लोकहितैषी, न्यायवान, क्षमावान, निर्भय, निरहंकार, तपस्वी एवं निष्काम कर्मयोगी हैं, और लौकिक मानवी शक्ति से कार्य करते हुए भी अलौकिक चरित्र के महामानव हैं… युगप्रवर्तक पूर्ण पुरुष हैं…
इसीलिए तो कहा गया है “कृष्णस्तु भगवान स्वयम्”… अतः एक बार पुनः ऐसे समग्र पुरुष श्रीकृष्ण के जन्म महोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ…