श्रृंगार और अध्यात्म
आज व्हाट्सएप पर एक ग्रुप में श्रृंगार रस पर वार्तालाप चल रहा था | एक मित्र का तर्क था कि श्रृंगार रस में कविताएँ, गीत, ग़ज़ल इत्यादि लिखना अथवा इसके विषय में सोचना आयु की एक सीमा तक ही उचित रहता है, उसके ऊपर यानी प्रौढावस्था के व्यक्तियों के लिए यह शोभा नहीं देता क्योंकि इस अवस्था में उनका मन अध्यात्म, दर्शन आदि के साथ जुड़ जाना चाहिए |
उनकी बात से हम असहमत नहीं हैं – किन्तु पूर्णरूपेण सहमत भी नहीं हैं – क्योंकि श्रृंगार से अभिप्राय केवल स्त्री-पुरुष के मध्य प्रेम ही नहीं है | अपनी अल्पबुद्धि से जो कुछ हमें इस विषय में समझ आता है वही हम यहाँ लिखने का प्रयास कर रहे हैं – क्योंकि नवरसों के विषय में जो भी लिखा जाए कम है – और श्रृंगार के विषय में लिखना तो वास्तव में बहुत कठिन कार्य है क्योंकि प्रकृति के कण कण में श्रृंगार व्याप्त है – जीव की हर क्रिया में किसी न किसी रूप में श्रृंगार व्याप्त है | संस्कृत में श्रृंगार का अर्थ “प्रेम” होता है और इसे प्रायः सौन्दर्य का प्रतीक माना जाता है | यही कारण है कि जब हम अपने आराध्य को अलंकृत करते हैं तो उनके प्रति अपना प्रेम ही प्रदर्शित करते हैं | अतः श्रृंगार को रसों का राजा यों ही नहीं कहा गया है – इसके पीछे भी कारण आध्यात्मिक ही है | सर्वप्रथम तो सभी श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं को देख लीजिये – हम आधुनिक रचनाकारों की बात नहीं कर रहे हैं, यद्यपि उनमें भी कुछ इसी श्रेणी में आते हैं जिनके विषय में हम आगे बता रहे हैं – श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं में अन्ततोगत्वा अध्यात्म और दर्शन का ही भाव आ जाता है | क्योंकि बिना समर्पण श्रृंगार पूर्ण नहीं होता – और जहाँ समर्पण का भाव आ गया वहाँ फिर सांसारिकता का भाव न रहकर अध्यात्म का ही भाव आ जाता है – प्रियतम के साथ एकाकार हो जाना – आत्मा का उस परमात्मतत्व के साथ एकाकार हो जाना – वही होती है श्रृंगार की पराकाष्ठा – काम की – पराकाष्ठा – पूर्ण आनन्द की अनुभूति | इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि अध्यात्म एक दर्पण की भाँति है, जिसमें देखकर यदि मन रूपी प्रेमिका का श्रृंगार करके उसके साथ प्रेम किया जाए तो निश्चित रूप से मन के अश्वों को कुछ लगाम ही लगेगी |
ध्यान का अभ्यास क्या है – मन को स्थिर करने की प्रक्रिया | किन्तु मन को कोई भी व्यक्ति बलपूर्वक स्थिर नहीं कर सकता, क्योंकि तब उसका ध्यान मन को कैसे स्थिर करूँ इस ओर चला जाएगा और मन स्थिर हो ही नहीं पाएगा | मन के अश्व तो भागेंगे ही भागेंगे | हमारे गुरुजनों ने कहा है कि मन के अश्वों को भागने देना चाहिए – किन्तु उनकी ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए | शनैः शनैः स्वयमेव उनकी गति धीमी पड़ती जाएगी और मन स्थिर होना आरम्भ हो जाएगा | किन्तु यदि बलपूर्वक रोका गया तो उत्सुकता बढ़ेगी और लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा | एक बार परमानन्द की अनुभूति हो गई तो फिर मन स्वतः ही अध्यात्म की ओर मुड़ जाता है – जीवन दर्शन को समझने का प्रयास करने लगता है |
केसव केसनि अस करी, बैरिहु जस न कराहिं |
चन्द्रबदनि मृगलोचनी, बाबा कहि कहि जाहिं ||
वृद्ध केशवदास किसी कुएँ पर बैठे थे तभी वहाँ कुछ महिलाएँ आईं और उन्होंने उन्हें ‘बाबा’ कहकर सम्बोधित किया | जिसे सुनकर उन्होंने अपने वृद्धावस्था में श्वेत हो चुके बालों को उलाहना देते हुए यह पद कहा था – क्या इसमें श्रृंगार भाव नहीं है ? किन्तु श्रृंगार के इसी भाव ने उन्हें आध्यात्मिकता की ओर भी मोड़ा |
रीतिकाल की विशेषता है श्रृंगार रस | इस काल की कविता में नख शिख और राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं का चित्रण व्यापक स्तर पर हुआ है | श्रृंगार के दोनों पक्षों का वर्णन इस युग की कविताओं में हुआ है | उस समय क्योंकि दरबारी मनोवृत्ति थी और प्रकृति का भी चित्रण उद्दीपन के लिए हुआ है जिसके कारण श्रृंगार रस भली भाँति पल्लवित पुष्पित हुआ, किन्तु उस समय एक ओर जहाँ भक्तिरस की भी प्रधानता रही | और यदि उन श्रृंगार रसपूर्ण रचनाओं पर मनन किया जाए तो वे भी कहीं न कहीं अध्यात्म की ओर ही ले जाती हैं |
वास्तव में श्रृंगार रस प्रेम, कला, सौन्दर्य और आध्यात्मिक भक्ति का रस है | यही सृष्टि और ब्रह्माण्ड का मूल उद्देश्य भी है और कारण भी है और इसीलिए यह रसराज कहलाता है | सामान्यतः श्रृंगार से अभिप्राय विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण से मान लिया जाता है | किन्तु हमारे विचार से श्रृंगार एक ऐसी भावना अथवा परिकल्पना है जो व्यक्ति को सामाजिक बनाती है, व्यावहारिक बनाती है, शिष्टाचारी बनाती है, समस्त चराचर में व्याप्त सौन्दर्य के प्रति प्रेम का व्यवहार सिखाती है | जिस व्यक्ति का हृदय श्रृंगार रस में पगा हुआ होगा उस व्यक्ति के मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष इत्यादि दुर्भावों के लिए स्थान ही शेष नहीं रह जाएगा | श्रृंगार एक ऐसी भावना है कि इसके चरम पर पहुँचने पर समग्र ब्रह्माण्ड अथवा परमात्मतत्व के प्रति समर्पण का भाव स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है |
वास्तव में श्रृंगार की उत्पत्ति ही शिव और शक्ति के मिलन से हुई है | उनके प्रेम की पराकाष्ठा ने ही उन्हें अर्द्धनारीश्वर बनाया और उनका यह मिलन ही सृष्टि के निर्माण, पालन, संहार तीनों का हेतु भी है | किन्तु उनका यह मिलन मात्र वासना के लिए नहीं था – अपितु तारकासुर जैसे असुर के संहार के निमित्त स्कन्द कुमार जैसे पुत्र को उत्पन्न करने के लिए था – क्योंकि तारकासुर को ब्रह्मा ने वरदान दिया था कि केवल भगवान शंकर के वीर्य से उत्पन्न पुत्र ही उसका वध कर सकेगा | वासना रहित प्रेम ही अमर होता है – जो प्रेम केवल शारीरिक आकर्षण मात्र के कारण होता है वह दुष्यन्त-शकुन्तला के प्रेम के समान ऋषि श्राप के कारण कष्ट का भागी बनता है – क्योंकि तब उसे किसी भी प्रकार के शिष्टाचार का बोध ही नहीं रह जाता, जबकि श्रृंगार व्यक्ति को शिष्टाचारी बनाता है |
अतः यह धारणा हमारे विचार से उचित नहीं है कि श्रृंगार में केवल काम भावना ही निहित होती है | क्योंकि एक और एक विशेष बात शिव-शक्ति के मिलन में है – वो यह कि एक ओर जहाँ उनका मिलन काम को भस्म करने के उपरान्त हुआ था | इसलिए इससे अधिक पवित्र और पुनीत भाव और क्या हो सकता है – जहाँ काम के लिए कोई स्थान ही नहीं | किन्तु साथ ही कामदेव की पत्नी रति को वचन दिया था औघड़दानी ने कि छाया रूप में रति के साथ काम सदा रहेंगे | यही है श्रृंगार का मुख्य भाव | जहाँ रति अर्थात सौन्दर्य और प्रेम की भावना रहेगी वहाँ काम रहेगा ही रहेगा – उसे सन्तुष्ट किये बिना शिव-शक्ति की प्राप्ति सम्भव ही नहीं |
अस्तु, हमारा यही मानना है कि अध्यात्म में भी जो मनोदशा साधक की होती है उसमें श्रृंगार की भावना प्रमुखता से होती है | क्योंकि उस समय हर ओर केवल सौन्दर्य ही सिखाई देता है जिसके कारण मन आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है और शनै: शनै: शान्ति को प्राप्त होता हुआ मनुष्य सरलता से अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है | इसी कारण से किसी भी वय में श्रृंगार रस पूर्ण रचनाएँ रची जा सकती हैं… उनका अभिनय किया जा सकता है… आनन्द भाव से नृत्य किया जा सकता है…