श्रद्धा का पर्व श्राद्ध पर्व
शुक्रवार 29 सितम्बर भाद्रपद पूर्णिमा से सोलह दिनों का दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व श्राद्ध पक्ष आरम्भ हो रहा है – जो पितृ विसर्जिनी अमावस्या और महालया के साथ सम्पन्न हो जाएगा | हिन्दू समाज में अपने दिवंगत पूर्वजों के सम्मान में पूरे सोलह दिन श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाएँगे – तर्पण दानादि किया जाएगा | और पितृ विसर्जिनी अमावस्या को…
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः |
सर्वे ते हृष्टमनसः, सर्वान् कामान् ददन्तु मे ||
ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां |
सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ||
इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः |
वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ||
मन्त्रों के साथ अगले वर्ष पुनः हमारा अतिथि स्वीकार करने की प्रार्थना के साथ ससम्मान उन्हें उनके शाश्वत धाम के लिए विदा किया जाएगा | श्राद्ध शब्द की निष्पत्ति ही “श्रद्धा” से हुई है – श्रद्धया इदं श्राद्धम् – जो श्रद्धापूर्वक किया जाए वह श्राद्ध है, अथवा – श्रद्धया दीयते इति श्राद्धम् – अर्थात जो श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्राद्ध है | यही कारण है कि श्राद्ध पर्व को उत्सव की भाँति सम्पन्न किया जाता है | “उत्सव” इसलिए क्योंकि ये सोलह दिन – भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक – हम सभी पूर्ण श्रद्धा के साथ अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं – उनकी पसन्द के भोजन बनाकर ब्रह्मभोज कराते हैं और स्वयं भी प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं – सुपात्रों को दान दक्षिणा से सम्मानित करते हैं – और अन्तिम दिन उन्हें पुनः आने का निमन्त्रण देकर सम्मान पूर्वक उनके शाश्वत धाम के लिए विदा करते हैं | इस दिन उन पूर्वजों के लिए भी तर्पण किया जाता है जिनके देहावसान की तिथि न ज्ञात हो अथवा भ्रमवश जिनका श्राद्ध करना भूल गए हों | साथ ही उन आत्माओं की शान्ति के लिए भी तर्पण किया जाता है जिनके साथ हमारा कभी कोई सम्बन्ध या कोई परिचय ही नहीं रहा – अर्थात् अपरिचित लोगों की भी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो – ऐसी उदात्त विचारधारा हिन्दू और भारतीय संस्कृति की ही देन है |
गीता में कहा गया है “श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय:, ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति | अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति, नायंलोकोsस्ति न पारो न सुखं संशयात्मनः ||” (4/39,40) – अर्थात आरम्भ में तो दूसरों के अनुभव से श्रद्धा प्राप्त करके मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु जब वह जितेन्द्रिय होकर उस ज्ञान को आचरण में लाने में तत्पर हो जाता है तो उसे श्रद्धाजन्य शान्ति से भी बढ़कर साक्षात्कारजन्य शान्ति का अनुभव होता है | किन्तु दूसरी ओर श्रद्धा रहित और संशय से युक्त पुरुष नाश को प्राप्त होता है | उसके लिये न इस लोक में सुख होता है और न परलोक में | इस प्रकार श्रद्धावान होना चारित्रिक उत्थान का, ज्ञान प्राप्ति का तथा एक सुदृढ़ नींव वाले पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे का एक प्रमुख सोपान है | और जिस राष्ट्र के परिवार तथा समाज की नींव सुदृढ़ होगी उस राष्ट्र का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता |
प्रायः सभी के मनों में यह उत्सुकता बनी रहती है कि श्राद्ध पर्व मनाने की प्रथा हिन्दू संस्कृति में कब से चली आ रही है | तो पितृ पक्ष तो आदिकाल से मान्य रहा है | वेदों के अनुसार पाँच प्रकार के यज्ञ माने गए हैं – ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ तथा अतिथि यज्ञ | इनमें जो पितृ यज्ञ है उसी का विस्तार पुराणों में “श्राद्ध” के नाम से उपलब्ध होता है | वेदों में प्रायः श्रद्धा पूर्वक किये गए कर्म को श्राद्ध कहा गया है – साथ ही जिस कर्म से माता पिता तथा आचार्य गण तृप्त हों उस कार्य को तर्पण कहा गया है – अर्थात तृप्त करने की क्रिया – तृप्यते अनेन इति तर्पण: | अर्थात जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है | पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस ऊर्जा के साथ पितृगण पृथिवी पर विचरण करते हैं अतः श्रद्धा पूर्वक उन्हें तृप्त करने के लिए श्राद्ध पर्व में तर्पण आदि का कार्य किया जाता है | श्राद्ध पक्ष के अन्तिम दिन आश्विन अमावस्या को अपना अपना भाग लेकर तृप्त हुए समस्त पितृ गण उसी ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के साथ अपने लोकों को वापस लौट जाते हैं | अर्थात अपने पूर्वजों, माता पिता तथा आचार्य के प्रति सत्यनिष्ठ होकर श्रद्धापूर्वक किये गए कर्म से जब हमारे ये आदरणीय तृप्त हो जाते हैं उसे श्राद्ध-तर्पण कहा जाता है | और इसी पितृ यज्ञ से पितृ ऋण भी पूर्ण हो जाता है | अथर्ववेद में कथन है:
अभूद्दूत: प्रहितो जातवेदा: सायं न्यन्हे उपवन्द्यो नृभि:
प्रादा: पितृभ्य: स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि (18/4/65)
हमारे ये पितृ गण प्रभु के दूत हैं जो हमें हितकर और प्रिय ज्ञान देते हैं | पितृगणों को भोजन कराने के बाद यज्ञ से शेष भोजन को ही हमें ग्रहण करना चाहिए |
इस प्रकार के बहुत से मन्त्र उपलब्ध होते हैं | इसके अतिरिक्त विभिन्न देवी देवताओं से सम्बन्धित वैदिक ऋचाओं में से अनेक ऐसी हैं जिन्हें पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाया गया है | पितृ गणों का आह्वान किया गया है कि वे धन, समृद्धि और बल प्रदान करें | साथ ही पितृ गणों की वर, अवर और मध्यम श्रेणियाँ भी बताई गई हैं | अग्नि से प्रार्थना की गई है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो तथा वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर मृतात्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें | पितरों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके क्षुद्र अपराधों को क्षमा करें | उनका आह्वान व्योम में नक्षत्रों के रचयिता के रूप में किया गया है | उनके आशीर्वाद में दिन को जाज्वल्यमान और रजनी को अंधकारमय बताया है | परलोक में दो ही मार्ग हैं : देवयान और पितृयान | पितृगणों से यह भी प्रार्थना की जाती है कि देवयान से मर्त्यो की सहायता के लिये अग्रसर हों | कहा गया है कि ज्ञानोपार्जन करने वाले व्यक्ति मरणोपरान्त देवयान द्वारा सर्वोच्च ब्राह्मण पद प्राप्त करते हैं | पूजा पाठ एवं जन कार्य करने वाले दूसरी श्रेणी के व्यक्ति रजनी और आकाश मार्ग से होते हुए पुन: पृथ्वी पर लौट आते हैं और इसी नक्षत्र में जन्म लेते हैं | इस प्रकार वेदों में वर्णित कर्तव्य कर्मों में श्राद्ध संस्कारों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिनका पालन भी गृहस्थ लोग करते हैं |
पुराण काल में देखें तो भगवान श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख मिलता है तथा भरत के द्वारा दशरथ के लिए दशगात्र – मरणोपरान्त दस दिनों तक किये जाने वाले कर्म – विधान का उल्लेख रामचरितमानस में उपलब्ध होता है:
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही | बिधिवत न्हाइ तिलांजलि दीन्ही ||
सोधि सुमृति सब बेद पुराना | कीन्ह भरत दसगात बिधाना || (अयोध्याकाण्ड)
रामायण के बाद महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को भिन्न भिन्न नक्षत्रों में किये जाने वाले काम्य श्राद्धों के विषय में बताया है (अनुशासन पर्व 89/1-15) | साथ ही श्राद्ध कर्म के अन्तर्गत दानादि के महत्त्व और दान के लिए सुपात्र व्यक्ति को भी परिभाषित किया है (अनुशासन पर्व अध्याय 145/50) | इसी में आगे वृत्तान्त आता है कि श्राद्ध का उपदेश महर्षि नेमि – जिन्हें श्री कृष्ण का चचेरा भाई बताया गया है और जो जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ बने – ने अत्रि मुनि को दिया था और बाद में अन्य महर्षि भी श्राद्ध कर्म करने लगे |
इस समस्त श्राद्ध और तर्पण कर्म की वास्तविकता तो यही है कि माता पिता तथा अपने पूर्वजों की पूजा से बड़ी कोई पूजा नहीं होती | जीवन के संघर्षों में उलझ कर कहीं हम अपने पूर्वजों को विस्मृत न कर दें इसीलिए हमारे महान मनीषियों ने वर्ष के एक माह के पूरे सोलह दिन ही इस कार्य के लिए निश्चित कर दिए ताकि इस अवधि में केवल इसी कार्य को पूर्ण आस्था के साथ पूर्ण किया जा सके | “कन्यायां गत: सूर्य: इति कन्यागत: (कनागत) अर्थात आश्विन मास में जब कन्या राशि में सूर्य हो उस समय कृष्ण पक्ष पितृगणों के लिए समर्पित किया गया है |
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्वयं को पितरों में श्रेष्ठ अर्यमा कहा है :
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् |
पितृ़णामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ||10/29
नागों के नाना भेदों में मैं अनन्त हूँ अर्थात् नागराज शेष हूँ, जल सम्बन्धी देवों में उनका राजा वरुण हूँ, पितरों में अर्यमा नामक पितृराज हूँ और शासन करने वालों में यमराज हूँ |
इस प्रकार पितृ तर्पण की प्रथा – पितृयज्ञ का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है – हाँ उसकी प्रक्रिया में समय के परिवर्तन के साथ परिवर्तन और परिवर्धन अवश्य हुआ है | हम सभी श्राद्ध पर्व में अपने पितृगणों को यथाशक्ति प्रसन्न करके पितृ विसर्जिनी अमावस्या को उन्हें अगले वर्ष पुनः आगमन की प्रार्थना के साथ विदा करें…