नवरात्रों में घट स्थापना
आगामी 15 अक्तूबर यानी आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आश्विन नवरात्र – जिन्हें शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है – घट स्थापना के साथ आरम्भ हो जाएँगे | भारतीय वैदिक परम्परा के अनुसार किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करते समय सर्वप्रथम कलश स्थापित करके वरुण देवता का आह्वाहन किया जाता है | आश्विन और चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को घट स्थापना के साथ माँ दुर्गा की पूजा अर्चना आरम्भ हो जाती है | घट स्थापना के मुहूर्त पर विचार करते समय कुछ विशेष बातों पर ध्यान रखना आवश्यक होता है | सर्वप्रथम तो अमा युक्त प्रतिपदा – अर्थात सूर्योदय के समय यदि कुछ पलों के लिए भी अमावस्या तिथि हो तो उस प्रतिपदा में घट स्थापना शुभ नहीं मानी जाती | इसी प्रकार चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग में घट स्थापना को अशुभ तो नहीं माना जाता, किन्तु यदि कोई अन्य अच्छा मुहूर्त प्राप्त हो जाए तो उस मुहूर्त में कलश स्थापना का सुझाव हमारे विद्वज्जन देते हैं | साथ ही देवी का आह्वाहन, स्थापन, नित्य प्रति की पूजा अर्चना तथा विसर्जन आदि समस्त कार्य प्रातःकाल में ही शुभ माने जाते हैं | किन्तु यदि प्रतिपदा को सारे दिन ही चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग रहें या प्रतिपदा तिथि कुछ ही समय के लिए हो तो आरम्भ के तीन अंश त्याग कर चतुर्थ अंश में घट स्थापना का कार्य आरम्भ कर देना चाहिए | इस वर्ष प्रतिपदा तिथि का आरम्भ चौदह अक्तूबर को रात्रि 11:24 के लगभग होगा जो पन्द्रह अक्तूबर को अर्धरात्रि में 12:32 तक रहेगी | चौदह अक्तूबर को ही सायं 4:24 से चित्रा नक्षत्र आरम्भ हो जाएगा जो पन्द्रह को सायं 6:13 तक रहेगा | साथ ही प्रातः 10:23 तक वैधृति योग भी रहेगा | किन्तु सूर्योदय काल में लगभग सत्रह मिनट कन्या लग्न के शेष हैं – अतः इस समय यदि घट स्थापना कर सकें तो अत्युत्तम है | उसके पश्चात फिर अभिजित योग में कलश स्थापना कर सकते हैं जो 11:44 से 12:30 तक है |
घट स्थापना करते समय जो मन्त्र बोले जाते हैं उनका संक्षेप में अभिप्राय यही है कि घट में समस्त ज्ञान विज्ञान का, समस्त ऐश्वर्य का तथा समस्त ब्रह्माण्डों का समन्वित स्वरूप विद्यमान है | जैसे:
कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रो समाहिताः |
मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा, मध्ये मातृगणा: स्मृता: ||
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे, सप्तद्वीपा वसुन्धरा |
ऋग्वेदोSथ यजुर्वेदः सामवेदो ही अथर्वण: ||
अंगैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिता: |
अत्र गायत्री सावित्री शान्ति: पुष्टिकरी तथा ||
सर्वे समुद्रा: सरित: जलदा नदा:, आयान्तु देवपूजार्थं दुरितक्षयकारका: |
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती,
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरुम् ||
अर्थात कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रूद्र, मूल में ब्रह्मा तथा मध्य में समस्त षोडश मातृकाएँ स्थित हैं | कुक्षि में समस्त सागर, सप्तद्वीपों वाली वसुन्धरा स्थित है | साथ ही सारे वेद वेदांग भी कलश में ही समाहित हैं | सारी शक्तियाँ कलश में समाहित हैं | समस्त पापों का नाश करने के लिए जल के समस्त स्रोत इस कलश में निवास करें |
किसी भी अनुष्ठान के समय ब्रह्माण्ड में उपस्थित शक्तियों का आह्वाहन करके उन्हें जागृत किया जाता है ताकि साधक को अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त हो और उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण हों | साथ ही घट स्वयं में पूर्ण है | सागर का जल घट में डालें या घट को सागर में डालें – हर स्थिति में वह पूर्ण ही होता है तथा ईशोपनिषद की पूर्णता की धारणा का अनुमोदन करता प्रतीत होता है “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते” | इसी भावना को जीवित रखने के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के समय घट स्थापना का विधान सम्भवतः रहा होगा |
साथ ही, कलश के ऊपर आम्र पत्र रखकर उन पर अक्षत पात्र स्थापित किया जाता है | जिसका भाव यह होता है कि परमात्मा यहाँ अवतरित होकर हम अक्षत अथवा अविनाशी आत्माओं एवं पञ्चतत्व की प्रकृति को शुद्ध करें | दिव्य ज्ञान को धारण करने वाली आत्मा आम्र पत्र के समान सदा प्रफुल्लित रहे | कलश के भीतर जल में दूर्वा, कुश, सुपारी, द्रव्य और पुष्प डाले जाते हैं – जिनका अभिप्राय है कि हमारी व्यक्तित्व में दूर्वा के समान जीवनी शक्ति हो, कुश जैसी प्रखरता हमारी बुद्धि में हो, सुपारी के समान गुण युक्त स्थिरता हो, पुष्प के समान उल्लास हो तथा द्रव्य के समान सर्वग्राही गुण हों | कलश के ऊपर लाल वस्त्र में लपेट कर नारियल कच्चा सूत अथवा मौली बांधकर रखा जाता है | नारियल में त्रिदेवों का निवास माना जाता है |
नवरात्रों में घट स्थापना के समय एक पात्र में जौ की खेती का भी विधान है | अपने परिवार की परम्परा के अनुसार कुछ लोग मिट्टी के पात्र में जौ बोते हैं तो कुछ लोग – जिनके घरों में कच्ची ज़मीन उपलब्ध है – ज़मीन में भी जौ की खेती करते हैं | किन्हीं परिवारों में केवल आश्विन नवरात्रों में जौ बोए जाते हैं तो कहीं कहीं आश्विन और चैत्र दोनों नवरात्रों में जौ बोने की प्रथा है | इन नौ दिनों में जौ बढ़ जाते हैं और उनमें से अँकुर फूट कर उनके नौरते बन जाते हैं जिनके द्वारा विसर्जन के दिन देवी की पूजा की जाती है | कुछ क्षेत्रों में बहनें अपने भाइयों के कानों में और पुरोहित यजमानों के कानों में आशीर्वाद स्वरूप नौरते रखते हैं | इसके अतिरिक्त कुछ जगहों पर शस्त्र पूजा करने वाले अपने शस्त्रों का पूजन भी नौरतों से करते है | कुछ संगीत के क्षेत्र से सम्बन्ध रखने वाले कलाकार अपने वाद्य यन्त्रों की तथा अध्ययन अध्यापन के क्षेत्र से सम्बद्ध लोग अपने शास्त्रों की पूजा भी इन नौरतों से करते हैं |
वास्तव में नवरात्रों में जौ बोना आशा, सुख समृद्धि तथा देवी की कृपा का प्रतीक माना जाता है | ऐसी भी मान्यता है कि सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहली फसल जो उपलब्ध हुई वह जौ की फसल थी | इसीलिए इसे पूर्ण फसल भी कहा जाता है | यज्ञ आदि के समय देवी देवताओं को जौ अर्पित किये जाते हैं | एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि अन्न को ब्रह्म कहा गया है – अन्नं ब्रह्म इत्युपासीत् (मनु स्मृति) – अर्थात अन्न को ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करनी चाहिए, तथा अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोक्ता देवो माहेश्वर: (ब्रह्म वैवर्त पुराण, ब्रह्म खण्ड) अन्न ब्रह्मा है – रस विष्णु – तथा उन्हें भोग करने वाला माहेश्वर के समान होता है | इस प्रकार की उक्तियों का अभिप्राय यही है कि जिस अन्न और जल में ईश्वर का रूप दीख पड़ता है उसका भला कोई अपमान कैसे कर सकता है ? अतः उस अन्न रूपी ब्रह्म का सम्मान करने के उद्देश्य से भी सम्भवतः इस परम्परा का आरम्भ हो सकता है | आज न जाने कितने लोग ऐसे होंगे जिन्हें दो समय भोजन भी भरपेट नहीं मिल पाता होगा | और दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपनी प्लेट में इतना भोजन रख लेते हैं कि उनसे खाए नहीं बन पाता और वो भोजन कूड़े के डिब्बे में फेंक दिया जाता है | यदि हम अन्न रूपी ब्रह्म का सम्मान करना सीख जाएँ तो इस प्रकार भोजन का अनादर न हो और बहुत से भूखे व्यक्तियों को भोजन उपलब्ध हो जाए | जौ बोने की परम्परा को यदि हम इस रूप में देखें तो सोचिये प्राणिमात्र का कितना भला हो जाएगा |
अस्तु! इन नवरात्रों में हम अन्न ब्रह्म का सम्मान करने की भावना से जौ की खेती अपने घरों में स्थापित करें… हमारी भावनाएँ उदात्त होंगी तो खेती भी फलेगी फूलेगी और कोई व्यक्ति रात को भूखा नहीं सो सकेगा… साथ ही जल का सम्मान करने की भावना से घट स्थापित करें…
रोगानशेषानपहांसि तुष्टा, रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् |
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ||
माँ भगवती प्रसन्न होने पर समस्त रोगों का नाश कर देती हैं और कुपित होने पर सभी मनोवाँछित कामनाओं को नष्ट कर देती हैं | किन्तु जो लोग देवी की शरण में आते हैं उन पर स्वयं पर तो विपत्ति आती ही नहीं, अपने साथ आने वाले अन्य प्राणियों को भी विपत्ति से रक्षा करते हैं | अस्तु ! अपने सभी रूपों में माँ भवानी सभी का मंगल करें… इसी कामना के साथ नवरात्रों की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…