शरद पूर्णिमा – 2023
शनिवार 28 अक्तूबर को आश्विन मास की पूर्णिमा, जिसे शरद पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है का मोहक पर्व है | और इसके साथ ही पन्द्रह दिनों बाद आने वाले दीपोत्सव की चहल पहल आरम्भ हो जाएगी | काल सूर्योदय से पूर्व 4:18 विष्टि करण और वज्र योग में पूर्णिमा तिथि आरम्भ होगी जो अर्द्धरात्र्योत्तर 1:53 तक रहेगी | देश के अलग अलग भागों में इस पर्व की धूम रहती है और इसे रास पूर्णिमा, कोजागरी पूर्णिमा, नवान्न पूर्णिमा, कुमुद्वती तथा कुमार पूर्णिमा आदि अनेकों नामों से जाना जाता है | आज ही के दिन महर्षि वाल्मीकि का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है | सभी को शरद पूर्णिमा तथा वाल्मीकि जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ इस आशा के साथ कि हम सभी का जीवन शरद पूर्णिमा के चाँद जैसा प्रफुल्लित रहे…
कल अर्धरात्रयोत्तर 1:05 से 2:24 तक खण्ड ग्रास चन्द्र ग्रहण भी है | नौ घण्टे पूर्व से चन्द्र ग्रहण का सूतक ज्योतिषियों के अनुसार माना जाता है अतः सायं 4 बजे का लगभग से सूतक आरम्भ हो जाएगा | कुछ मित्रों ने पूछा कि ऐसे में पूजा कैसे करेंगे और शरद के चन्द्रमा की चाँदनी में खीर कैसे रखेंगे | तो हमने वही उत्तर दिया जो हम स्वयं करते हैं | हम चतुर्दशी की रात में खीर चाँदनी में रखते हैं और पूर्णिमा को प्रातः उसका भोग लगाते है – क्योंकि पूजा तो वैसे भी प्रातःकाल में ही की जाती है | ग्रहण के विषय में हमारी स्वयं की मान्यता है कि यह एक अत्यन्त आकर्षक खगोलीय घटना है अतः इससे भयभीत होने की अपेक्षा – अथवा किसी अन्धविश्वास को मानने की अपेक्षा इसे देखकर इसका आनन्द उठाना चाहिए और प्रकृति की इस मनोहारी लीला में स्वयं को डुबोकर मन हाई मन शरद का महारास रचाना चाहिए उस परमात्मा के साथ |
यों हिन्दू मान्यता के अनुसार हर माह की पूर्णिमा महत्त्वपूर्ण होती हैं | लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्त्व इस मान्यता के कारण और अधिक बढ़ जाता है कि आज के दिन चन्द्रमा पृथिवी के इतने अधिक निकट होता है कि उसकी किरणों के सारे जीवन रक्षक पौष्टिक तत्व पृथिवीवासियों को उपलब्ध हो जाते हैं | एक ओर तो वर्षा ऋतु बीत जाती है | मेघराज भी अपनी टोली के साथ इन्द्रलोक को वापस लौट जाते हैं | उनके साथ ही उनकी प्रेयसि नृत्यांगना दामिनी भी अपने बरखा की बूँदों के घुँघरूओं को झनकाती फिर से वापस लौटने का वादा कर अपने महल की ओर प्रस्थान कर जाती हैं | शरद ऋतु के स्वागत में धवल चन्द्रिका की शीतल प्रकाश गंगा में डुबकी लगाकर चन्द्रकिरणों की अठखेलियों से रोमांचित हुआ आकाश पूर्ण रूप से स्वच्छ और विशाल दिखाई देने लगता है | निश्चित रूप से आज की रात चन्द्रदेव अपनी समस्त पौष्टिकता अपनी किरणों के माध्यम से समस्त जड़ चेतन पर लुटाने को तत्पर रहते हैं | इसीलिए आज की रात अधिकाँश लोग घरों के आँगन में या कहीं भी खुले स्थान में रात बिताना अधिक पसन्द करते हैं – ताकि चन्द्रमा की उन पौष्टिक किरणों में अच्छी तरह स्नान करके स्वयं को पुनः ऊर्जावान अनुभव कर सकें |
इसीलिए तो ऐसी लोकमान्यताएँ हैं कि आज के दिन चन्द्रमा को एकटक कुछ देर के लिए निहारते रहने से नेत्रज्योति में वृद्धि होती है | हमारी आयु के लोगों को अपना बचपन भी याद अवश्य होगा जब हममें से अधिकाँश घरों में माताएँ हम सबके हाथों में सुई धागा पकड़ा कर आँगन में चन्दा की चाँदनी में बैठा दिया करती थीं सुई में धागा डालने के लिए और हमसे कहा जाता था कि आज के दिन चन्द्रमा के प्रकाश में सुई में धागा डालोगे तो आँखों की रोशनी अच्छी बनी रहेगी | और वास्तव में इतना स्पष्ट और आँखों के रास्ते मन में उतर कर समूचे व्यक्तित्व को आह्लाद की सरिता में स्नान कराके रोमांचित कर देने वाला प्रकाश शरद पूर्णिमा के उजले चाँद का होता था कि अन्य किसी भी प्रकाश की आवश्यकता ही नहीं होती थी | बड़े आराम से चाँद के शीतल प्रकाश की चादर में लिपटे सुई में धागा डाल देते थे और काफ़ी समय तक यही खेल चलता रहता था – जब तक कि माँ की मीठी झिडकियाँ कानों में सुनाई देनी आरम्भ नहीं हो जाती थीं “अरे अब चलकर सो जाओ | मैंने खेल करने को नहीं कहा था, बस एक बार धागा डालना था और बस – पर तुम लोगों को तो हर काम में खेल चाहिए | चलो सोने के लिए जाओ – सुबह उठकर पढ़ाई नहीं करनी क्या ?” उत्सव की रुत में पढ़ाई का नाम सुनकर वैसे ही बच्चों को खुन्दक आ जाती थी – सो बेमन से जाकर लेट जाते थे अपने बिस्तरों पर – आँखों में शीतल चाँदनी लुटाते उस धवल मनोहारी शरद के पूर्ण चन्द्र की छवि को बसाए |
प्रातः दैनिक कर्मों से निवृत्त होने के बाद घर भर को दूध में भीगे चोले (पोहा) प्रसाद के रूप में नाश्ते में दिए जाते थे | रात को माँ दूध में चोले भिगाकर बाहर आँगन में चाँद की चाँदनी के नीचे छींके पर लटका दिया करती थीं | प्रायः हर घर में ऐसा होता था | माना जाता था कि आज रात की चाँद की किरणों के समस्त पौष्टिक तत्व इन चोलों में घुल मिल जाएँगे | और वास्तव में सुबह जब हम उन्हें खाते थे तो इतने शीतल और अमृततुल्य स्वाद से युक्त होते थे कि मन ही नहीं भरता था | इन सभी मान्यताओं में सम्भव है कहीं न कहीं कुछ न कुछ वैज्ञानिक तथ्य अवश्य रहा होगा |
ये तो थी शरद पूर्णिमा के पर्व से जुड़े कुछ ख़ूबसूरत से लोक रिवाज़ों की बात | कृष्ण भक्तों के लिए शरद पूर्णिमा की रात्रि का कितना अधिक और विशेष महत्त्व है ये सभी जानते हैं | आज रात को ही भगवान कृष्ण अपनी महाशक्ति राधा सहित समस्त गोपियों के साथ महारास रचाते हैं | कितना आकर्षक दृश्य रहा होगा जब हर गोपी को उसके प्यारे कन्हाई अपने साथ नृत्य करते जान पड़े होंगे | लेकिन ये रास केवल एक युग का ही रास नहीं है, अनन्त युगों से चला आ रहा है और युगों युगों तक चलता रहेगा |
जो लोग कृष्ण को केवल रास रचैया भर मानते हैं वास्तव में वे लोग रास के अर्थ तथा मर्म को ही भली भाँति नहीं समझ पाए हैं | कृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य करना कोई साधारण घटना नहीं है | भाव, ताल, नृत्य, छन्द, गीत, रूपक एवं लीलाभिनय से युक्त यह रास – जिसमें रस का उद्भव मन से होता है तथा जो पूर्ण रूप से अलौकिक और आध्यात्मिक है – वैष्णव परम्पराओं से लेकर जैन परम्पराओं तक समस्त चिन्तन परम्पराओं में ज्ञान का आलोक लेकर आया | समस्त ब्रह्माण्ड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरुष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की ही तो एक झलक है । उस रास में किसी प्रकार की काम भावना नहीं है | कृष्ण पुरुष तत्व है और गोपियाँ प्रकृति तत्व । इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का नृत्य प्रकृति और पुरुष का महानृत्य है । विराट प्रकृति और विराट पुरुष का महारास है यह | तभी तो प्रत्येक गोपी यही अनुभव करती है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं । सांसारिक दृष्टि से यह रास नृत्य मनोरंजन मात्र हो सकता है, किन्तु यह नृत्य पूर्ण रूप से पारमार्थिक नृत्य है | इस महारास के द्वारा यही सिखाने का प्रयास श्री कृष्ण का रहा कि प्रेम न तो वासना है न ही किसी का एकाधिकार, वरन प्रेम का कालुष्यरहित सामूहिक विकास आवश्यक है, और प्रेमियों के मध्य किसी प्रकार का आवरण – किसी प्रकार का रहस्य नहीं रहता – वहाँ होती है केवल विचारों की – भावों की – स्पष्टता और समर्पण | रासलीला कृष्ण तथा गोपियों के प्रेम का वह चरम उत्कर्ष बिन्दु है जहाँ किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक गोपनीयता अथवा रहस्य का आवरण नहीं है | राग योग की इस दशा में बृहदारण्यक का यह कथन सत्य सिद्ध होता है “जैसे पुरुष को अपने आलिंगनकाल में बाहर भीतर की कोई सुध नहीं रहती उसी प्रकार जब उपासक प्राज्ञ द्वारा आलिंगित होता है तब वह अपनी सुध बुध खो बैठता है |”
तो विराट प्रकृति और विराट पुरुष के महारास के साक्षी और प्रतीक तथा अपनी ज्योति किरणों द्वारा समस्त चराचर को नवजीवन का सुधापान कराते शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र को नमन करते हुए सभी को शरद पूर्णिमा के उल्लासमय अमृतमय पर्व की एक बार पुनः हार्दिक शुभकामनाएँ…