नारायण उवाच

नारायण उवाच

पुस्तक समीक्षा – नारायण उवाच

पुरुष सूक्त का प्रत्येक सूत्र पूर्ण कुसुमित सहस्रदल कमल के समान है | पुष्पित कमल में जिस प्रकार पंखुड़ियों के ऊपर पंखुड़ियों की तहें होती हैं, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक सूत्र में ज्ञान की हर पंखुड़ी के नीचे दर्शन की एक और पंक्ति दृष्टिगोचर होने लगती है |

ये पंक्तियाँ हमारी नहीं हैं – किसी पुस्तक से उद्धृत की गयी हैं | पुस्तक के विषय बात करें उससे पूर्व इन पंक्तियों में वर्णित पुरुष सूक्त के विषय में कुछ वार्ता करते हैं | ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल का एक मंत्र संग्रह है (ऋग्वेद संहिता 10/90) पुरुष सूक्त |  जितनी भी वैदिक ऋचाएँ हैं, सूक्त हैं, मन्त्र इत्यादि हैं उनकी पूर्ण रूप से व्याख्या कर पाना वास्तव में बहुत कठिन कार्य है | इतने गूढ़ रहस्य उनमें निहित हैं कि उन्हें पूर्ण रूप से समझ पाना – उनके भाव को पूर्ण रूप से आत्मसात् कर पाना – किसी भी मनुष्य के लिए असम्भव है | हमारे वैदिक ऋषि मुनियों ने प्रकृति में निरन्तर होते रहने वाले परिवर्तनों को देखा | कुछ को देखकर वे प्रसन्न हुए होंगे – झूम उठे होंगे आनन्दातिरेक में, कुछ परिवर्तनों को देखकर उन्हें भय भी लगा होगा, कुछ के कारण उनका मन व्यथित भी हुआ होगा – और यही चढ़ते उतरते भाव उनके मुख से सुमधुर वैदिक ऋचाओं के रूप में प्रस्फुटित हुए होंगे | उन्होंने अनुभव किया होगा – और योग ध्यान की कठिन साधना के मार्ग पर अग्रसर रहते हुए साक्षात्कार भी किया होगा उन समस्त प्राकृतिक परिवर्तनकारी अदृश्य शक्तियों का जिनके कारण होने वाले परिवर्तन मानव मन और तन को भी प्रभावित करते रहे होंगे – और उन शक्तियों के सम्मान में उनके मुख से नि:सृत हुई होंगी अनेकों सार्थक और गूढ़ वैदिक ऋचाएँ |

कालान्तर में मनुष्य ने अपने स्वार्थ के अनुसार वैदिक मन्त्रों के अर्थ करने आरम्भ कर दिए जिनके कारण समाज में जाने अनजाने जाति प्रथा जैसी कुरीतियों को भी बढ़ावा मिला | ऐसा ही एक सूक्त है – पुरुष सूक्त – जो कि ऋग्वेद का अंग होने के साथ ही शुक्ल यजुर्वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता में भी जिसका वर्णन उपलब्ध होता है और जिसकी स्वार्थपरक व्याख्या के आधार पर जातियों को उच्च मध्य निम्न मान लिया गया | जिसे वेद वेदांगों में शब्दातीत कहकर सम्बोधित किया गया है वह रूप जाति गुण धर्म में कैसे बांटा जा सकता है ? पुरुष सूक्त में वास्तव में तो समस्त ब्रह्माण्ड की आध्यात्मिक एकता और पुरुष की प्रकृति की विवेचना है कि किस प्रकार वह परम तत्व समस्त ब्रह्माण्ड को आवृत करके भी दशांगुल शेष रहता है अथवा दशांगुल से समस्त ब्रह्माण्ड को आवृत्त किए हुए है | उस विराट पुरुष की महत्ता इतनी अधिक विस्तृत है कि यह समस्त चराचर जगत उसके केवल एक चरण में स्थित है और शेष तीन भाग अनन्त अन्तरिक्ष में स्थित हैं । यह भी विचारणीय है । और इन्हीं समस्त तथ्यों पर मनन करते हुए पालमपुर हिमाचल प्रदेश में “काया कल्प” आयुर्वेदिक चिकित्सालय में आयुर्वेद के चिकित्सक डॉ. आशुतोष गुलेरी “नि:शब्द” ने आयुर्वेद, साँख्य, वैशेषिक, वेदान्त इत्यादि के सूत्रों को आधार बनाकर इस सूक्त की समीक्षा करने का निश्चय किया जो “नारायण उवाच” के नाम से इस समय हमारे हाथ में है | यह पुस्तक डॉ. गुलेरी ने हमारे पतिदेव डॉ. दिनेश शर्मा को भेंट की थी | इसकी प्रस्तावना पढ़कर हम इसे पूरा पढ़ने से स्वयं को रोक नहीं पाए | आभारी हैं डॉ. दिनेश के कि उन्होंने यह पुस्तक हमें पढ़ने के लिए दे दी और एक बहुत तथ्यात्मक विश्लेषण हम पढ़ पाए |

सर्वप्रथम तो बधाई के पात्र हैं डॉ. गुलेरी कि उन्होंने इतने गम्भीर विषय की इतनी बोधगम्य सरल भाषा शैली में विवेचना की है कि पाठक एकबार जो इसे पढ़ना आरम्भ करे तो समाप्त करके ही विराम लगाए और फिर इसी के विषय में मनन चिन्तन करता रहे |

पुस्तक का आरम्भ रामायण के बालकाण्ड की एक घटना से किया है जब महर्षि वशिष्ठ भगवान श्री राम के नामकरण के अवसर पर उनके कान में पुरुष सूक्त पढ़कर सुनाते हैं | महर्षि वशिष्ठ ने ऐसा क्यों किया – इसी जिज्ञासा ने जन्म दिया “नारायण उवाच” को | बड़े विस्तार से तथ्यों के आधार पर डॉ. गुलेरी ने सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात के माध्यम से उस परम चेतना की – जिसे पुरुष कहा जाता है – सर्व व्यापकता को व्याख्यायित किया है – जो ब्रह्माण्ड को चारों ओर से घेरने के बाद भी दशांगुल शेष रहता है | अब ब्रह्माण्ड को घेरने के बाद भी दशांगुल शेष रहने का अभिप्राय क्या है | इसकी व्याख्या “यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे” के माध्यम से करते हुए डॉ. गुलेरी ने व्याख्या की है कि ब्रह्माण्ड की रचना ही शरीर में विद्यमान है – इस कथन के आधार पर यही सिद्ध होता है कि मानव शरीर यदि ब्रह्माण्ड तुल्य है तो उसके हृदय भाग को दस रक्त वाहिनियाँ घेर कर रखती हैं जिनके द्वारा समस्त शरीर को रक्त की आपूर्ति होती है |

इसी प्रकार से शरीरस्थ आत्मा की वृद्धि में अन्न के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है | “त्रिपादस्यामृतं दिवि” को व्याख्यायित करते हुए चेतना की प्रगति के तीन विविध आयामों की ओर इंगित करते हुए तीनों सोपानों की बड़ी तथ्यपरक व्याखा की गई है | पुरुष सूक्त में चेतना के विभिन्न स्तरों का प्रतिपादन करते हुए जीवों के माध्यम से उस चेतना के पुनर्जन्म के विधान को किस प्रकार बताया गया है इसकी भी बड़ी ख़ूबसूरती से चर्चा की गयी है | विराट पुरुष, देवों के कर्मयज्ञ में ऋतुओं का हविष्य के रूप में उपयोग और कर्मयज्ञ की उपादेयता, सर्वहत यज्ञ, बुद्धियुक्त यज्ञ से वेदों की उत्पत्ति, समस्त पशुओं की उत्पत्ति और उनका महत्त्व, पुरुष सूक्तोक्त वर्ण व्यवस्था, मानव शरीर में सभी वर्णों का आश्रय और उनका उपयोग, सूर्य चन्द्र अन्तरिक्ष द्युलोक इत्यादि की उत्पत्ति आदि की व्याख्या करते हुए समस्त इंद्रियों महाभूतों इत्यादि घटकों के मेल से जीवों की तात्विक संरचना को भी बताने का प्रयास किया गया है | और इन व्याख्याओं के माध्यम से उन लोगों के भी मन के भ्रम को दूर करने का प्रयास किया गया है जो वर्णों को जाति व्यवस्था का आधार बनाकर ऊँच नीच का भेद करते हैं तथा मानते हैं कि वेदिक काल में नर अथवा पशुओं की बलि दी जाती थी | और अन्त में निष्काम कर्म को ही धर्म मानते हुए पुरुष सूक्त की व्याख्या का समापन किया गया है |

वास्तव में वेदों को धर्म से जोड़ना न्यायसंगत नहीं है | वेदों में ज्ञान का अथाह सागर भरा हुआ है – आवश्यकता है भली भाँति उनका अध्ययन मनन करते हुए उनकी गहराई तक पहुँचने की | पुरुष सूक्त में इसी तथ्य का निष्पादन किया गया है कि संसार का सृजन करने वाले उस परम चेतन ने कुछ अंश अपनी चेतना का कुछ को प्रदान किया और कुछ को उसी चेतना से आवृत कर दिया | इस कथन के माध्यम से वेदवाक्यों की सार्वभौमिकता पर भी लेखक ने प्रकाश डाला है |

कुल मिलाकर एक अत्यन्त तथ्यात्मक विवेचना पुरुष सूक्त की “नारायण उवाच” में डॉ. गुलेरी ने की है | अत्यन्त सराहनीय प्रयास है | एक बेहद रोचक किन्तु संस्कृतनिष्ठ शैली में गम्भीर विषय की विवेचना है | एक ऐसी पुस्तक जो न केवल पठनीय है अपितु संग्रहणीय भी है |

पुस्तक कौटिल्य बुक्स, 4378/4बी, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है और इसे www.kautilya.in से online भी मंगाया जा सकता है | हमारे विचार से वेदिक साहित्य और संस्कृति में रुचि रखने वाले लोगों को एक बार अवश्य इसे पढ़ना चाहिए |