मकर संक्रान्ति 2024

मकर संक्रान्ति 2024

मकर संक्रान्ति 2024

“ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् |” यजु. ३६/३

हम सब उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को अपनी अन्तरात्मा में धारण करें, और वह ब्रह्म हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे |

मित्रों, चौदह जनवरी को लोहड़ी का मस्ती भरा पर्व और पन्द्रह जनवरी को परिवर्तन का प्रकाश पर्व मकर संक्रान्ति है… सर्वप्रथम सभी को लोहड़ी और मकर संक्रान्ति की अनेकानेक हार्दिक शुभकामनाएँ…

मकर संक्रान्ति की तारीख़ के विषय में प्रायः लोग प्रश्न करते हैं कि जब 14 जनवरी को मकर संक्रान्ति मनाई जाती थी तो कई बार 15 को क्यों मनाई जाती है | तो इसका कारण है ज्योतिषीय काल गणनाएँ | सूर्य का धनु राशि से मकर राशि में जब संक्रमण होता है तो उसे मकर संक्रान्ति कहा जाता है – और यह संक्रमण प्रति वर्ष कुछ देरी से होता है | जैसे गत वर्ष चौदह जनवरी को रात्रि 8:46 के लगभग हुआ था, उसके पूर्व 2022 में दिन में ढाई बजे के लगभग यह घटना घटित हुई थी | क्योंकि सूर्योदय के समय संक्रमण नहीं हुआ – और संक्रान्ति का पुण्य काल सूर्योदय में ही माना जाता है – अतः दूसरे दिन यानी 15 जनवरी को मकर संक्रान्ति का पर्व मनाया गया | इसी प्रकार इस वर्ष 15 जनवरी को सूर्योदय से पूर्व 2:43 के लगभग पौष शुक्ल चतुर्दशी को सूर्य का मकर राशि में संक्रमण होगा जबकि सूर्योदय 15 को ही 7:15 पर है | अतः इसी दिन संक्रान्ति का पुण्य काल है | भविष्य में भी जैसे 2025 में सूर्य का संक्रमण काल है 15 जनवरी को सूर्योदय से पूर्व 2:44 – और इसी प्रकार आगे बढ़ता जाएगा | इतिहास पर दृष्टि डालें तो सूर्य के संक्रमण के ही कारण किसी समय में दिसम्बर में भी यह पर्व मनाया गया है | और इसी आधार पर कहा जा सकता है कि यह संक्रमण देरी से होते रहने के कारण सम्भव है एक समय ऐसा भी आए कि फ़रवरी में मकर संक्रान्ति मनाई जाए |

यह भी सभी को विदित होगा कि जहाँ कुछ स्थानों पर वहाँ की लोक भाषाओं के अनुसार इस पर्व को मकर संक्रान्ति कहा जाता है, तो कहीं इसे थाई पोंगल, कहीं उत्तरायण, कहीं उत्तरैन, कहीं शिशुर संक्रान्ति, कहीं माघी, कहीं खिचड़ी, कहीं पौष संक्रान्ति इत्यादि अनेक नामों से जाना जाता है | साथ ही नेपाल, बंगला देश, थाईलैंड, लाओस, म्यांमार, कम्बोडिया, श्री लंका इत्यादि देशों में भी इस पर्व को बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है |

हम सभी जानते हैं कि हिन्दू मान्यता में मकर संक्रान्ति का विशेष महत्व है | पौष मास में मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति प्रारम्भ होती है इसलिये इसको उत्तरायणी भी कहते हैं | जब सूर्य किसी एक राशि को पार करके दूसरी राशि में प्रवेश करता है, तो उसे संक्रान्ति कहते हैं । यह संक्रान्ति काल प्रति माह होता है । भगवान भास्कर वर्ष के 12 महीनों में वह 12 राशियों में चक्कर लगा लेटे हैं | इस प्रकार संक्रान्ति तो हर महीने होती है, किन्तु पौष माह की संक्रान्ति अर्थात् मकर संक्रान्ति का कुछ विशेष कारणों से अत्यन्त महत्व माना गया है |

वेदों में पौष माह को “सहस्य” भी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है वर्ष ऋतु, अर्थात् शीतकालीन वर्षा ऋतु | पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्रों का उदय इस समय होता है | पुनर्वसु का अर्थ है एक बार समाप्त होने पर पुनः उत्पन्न होना, पुनः नवजीवन का आरम्भ करना | और पुष्य अर्थात् पुष्टिकारक | पौष के अन्य अर्थ हैं शक्ति, प्रकाश, विजय | इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि इस संक्रान्ति का इतना अधिक महत्व किसलिये है | यह संक्रान्ति हमें नवजीवन का संकेत और वरदान देती है | सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना उत्तरायण और कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की ओर जाना दक्षिणायन कहलाता है । जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होने लगता है तब दिन बड़े और रात छोटी होने लगती है । दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अंधकार कम होगा | अतः मकर संक्रान्ति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है | प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्य शक्ति में वृद्धि होगी | यों महत्व तो हर संक्रान्ति का होता है और न केवल मकर राशि का गोचर अपितु हर राशि में सूर्य का गोचर जन साधारण के जीवन में महत्व रखता है | क्योंकि भगवान सूर्यदेव के विभिन्न राशियों में संक्रमण के कारण प्रकृति में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य ही होते हैं | प्रकृति तो वैसे ही परिवर्तनशील है, किन्तु, क्योंकि प्रति माह के ये परिवर्तन बहुत सूक्ष्म स्तर पर होते हैं इसलिये इनकी ओर ध्यान नहीं जाता | किन्तु कर्क और मकर की संक्रान्तियाँ सबसे अधिक महत्व की मानी जाती हैं | क्योंकि दोनों ही समय मौसमों में बहुत अधिक परिवर्तन होता है, प्रकृति में परिवर्तन होता है, और इस सबका प्रभाव मनुष्य के जीवन पर पड़ता है |

यहाँ हम बात कर रहे हैं सूर्य के मकर राशि में संक्रमण की | सूर्यदेव का समस्त प्राणियों पर, वनस्पतियों पर अर्थात समस्त प्रकृति पर – जड़ चेतन पर – कितना प्रभाव है – इसका वर्णन गायत्री मन्त्र में देखा जा सकता है | इस मन्त्र में भू: शब्द का प्रयोग पदार्थ और ऊर्जा के अर्थ में हुआ है – जो सूर्य का गुण है, भुवः शब्द का प्रयोग अन्तरिक्ष के अर्थ में, तथा स्वः शब्द आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है | शुद्ध स्वरूप चेतन ब्रह्म भर्ग कहलाता है | इस प्रकार इस मन्त्र का अर्थ होता है – पदार्थ और ऊर्जा (भू:), अन्तरिक्ष (भुवः), और आत्मा (स्वः) में विचरण करने वाला सर्वशक्तिमान ईश्वर (ॐ) है | उस प्रेरक (सवितु:), पूज्यतम (वरेण्यं), शुद्ध स्वरूप (भर्ग:) देव का (देवस्य) हमारा मन अथवा बुद्धि धारण करे (धीमहि) | वह परमात्मतत्व (यः) हमारी (नः) बुद्धि (धियः) को अच्छे कार्यों में प्रवृत्त करे (प्रचोदयात्) |

सूर्य समस्त चराचर जगत का प्राण है यह हम सभी जानते हैं | पृथिवी का सारा कार्य सूर्य से प्राप्त ऊर्जा से ही चलता है और सूर्य की किरणों से प्राप्त आकर्षण से ही जीवमात्र पृथिवी पर विद्यमान रह पाता है | गायत्री मन्त्र का मूल सम्बन्ध सविता अर्थात सूर्य से है | गायत्री छन्द होने के कारण इस मन्त्र का नाम गायत्री हुआ | इसका छन्द गायत्री है, ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं | इस मन्त्र में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है, जिसके कारण प्राणों का प्रादुर्भाव होता है, पाँचों तत्व और समस्त इन्द्रियाँ सक्रिय हो जाती हैं और लोक में अन्धकार का विनाश हो प्रकाश का उदय होता है | जीवन की चहल पहल आरम्भ हो जाती है | नई नई वनस्पतियाँ अँकुरित होती हैं | एक ओर जहाँ सूर्य से ऊर्जा प्राप्त होती है वहीं दूसरी ओर उसकी सूक्ष्म शक्ति प्राणियों को उत्पन्न करने तथा उनका पोषण करने के लिये जीवनी शक्ति का कार्य करती है | सूर्य ही ऐसा महाप्राण है जो जड़ जगत में परमाणु और चेतन जगत में चेतना बनकर प्रवाहित होता है और उसके माध्यम से प्रस्फुटित होने वाला महाप्राण ईश्वर का वह अंश है जो इस समस्त सृष्टि का संचालन करता है | इसका सूक्ष्म प्रभाव शरीर के साथ साथ मन और बुद्धि को भी प्रभावित करता है | यही कारण है कि गायत्री मन्त्र द्वारा बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना सूर्य से की जाती है | अर्थात् सूर्य की उपासना से हम अपने भीतर के कलुष को दूर कर दिव्य आलोक का प्रस्तार कर सकते हैं | इस प्रकार सूर्य की उपासना से अन्धकार रूपी विकार तिरोहित हो जाता है और स्थूल शरीर को ओज, सूक्ष्म शरीर को तेज तथा कारण शरीर को वर्चस्व प्राप्त होता है | सूर्य के इसी प्रभाव से प्रभावित होकर सूर्य की उपासना ऋषि मुनियों ने आरम्भ की और आज विविध अवसरों पर विविध रूपों में सूर्योपासना की जाती है |

मकर राशि में सूर्य के संक्रमण के साथ दिन लम्बे होने आरम्भ हो जाते हैं और ठण्ड धीरे धीरे विदा होने लगती है क्योंकि इसके साथ ही सूर्यदेव छः माह के लिये उत्तरायण की यात्रा के लिये प्रस्थान कर जाते हैं | लोहड़ी और मकर संक्रान्ति पर तिलों की अग्नि में आहुति देने को लोकभाषा में कहा भी जाता है “तिल चटखा जाड़ा सटका |” कहा जाता है कि छः माह के शयन के बाद इन छः माह के लिये देवता जाग जाते हैं | अर्थात् इस दिन से देवताओं के दिवस का आरम्भ होता है जो शरीरी जीवों के छः माह के बराबर होता है | इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि सूर्यदेव धीरे धीरे तमस का निवारण करके प्रकाश का प्रस्तार करना आरम्भ कर देते हैं और इस प्रकार यह मकर संक्रान्ति का पर्व अज्ञान के अन्धकार को दूर करके ज्ञान के प्रकाश के प्रस्तार का भी प्रतिनिधित्व करता है |

इस पर्व के पीछे बहुत सी कथाएँ भी प्रचलित हैं | जैसे महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण प्रस्थान के समय को ही अपने परलोकगमन के लिये चुना था | क्योंकि ऐसी मान्यता है कि उत्तरायण में जो लोग परलोकगामी होते हैं वे जन्म मृत्यु के बन्धन से मुक्ति पाकर ब्रह्म में लीन हो जाते हैं | यह भी कथा है कि अपने पूर्वजों को महर्षि कपिल के शाप से मुक्त कराने के लिये इसी दिन भगीरथ गंगा को पाताल में ले गए थे और इसीलिये कुम्भ मेले के दौरान मकर संक्रान्ति का स्नान विशेष महत्व का होता है | पुराणों में ऐसी भी कथा आती है कि इसी दिन सूर्यदेव अपने पुत्र शनि से मिलने के लिए भी जाते हैं – और इसका प्रमाण भी है कि मकर और कुम्भ दोनों ही राशियाँ शनि की राशियाँ हैं |

यह पर्व पूर्ण हर्षोल्लास के साथ किसी न किसी रूप में प्रायः सारे भारतवर्ष के हिन्दू सम्प्रदाय में मनाया जाता है और हर स्थान पर भगवान सूर्यदेव की पूजा अर्चना की जाती है | जैसे बंगाल में गंगा सागर मेला लगता है | माना जाता है कि मकर संक्रान्ति पर गंगा के बंगाल की खाड़ी में निमग्न होने से पहले गंगास्नान करना सौभाग्य वर्धक तथा पापनाशक होता है | असम में इस दिन को भोगली बिहू के नाम से मनाया जाता है | उड़ीसा में मकर मेला लगता है | उत्तर भारत में लोहड़ी और खिचड़ी के नाम से जाना जाता है | तमिलनाडु में पोंगल, महाराष्ट्र में तिलगुल तथा अन्य सब स्थानों पर संक्रान्ति के नाम से इस पर्व को मनाते हैं | गुजरात और राजस्थान में उत्तरायण के नाम से इस पर्व को मनाते हैं और पतंग उड़ाई जाती हैं | आजकल तो वैसे समूचे उत्तर भारत में मकर संक्रान्ति को पतंग उड़ाने का आयोजन किया जाता है |

पोंगल यों तो चार दिवसीय पर्व है – जिसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दिन थाई पोंगल होता है जो दूसरे दिन मनाया जाता है और उत्तर भारत के राज्यों में इसे ही मकर संक्रान्ति के रूप में मनाया जाता है | पोंगल के अवसर पर भी अलाव जलाने की प्रथा है | साथ ही एक एक नये मिट्टी के पात्र में कच्चे दूध, गुड़ तथा नयी फसल के चावलों को उबालकर एक विशेष व्यञ्जन पकाया जाता है | इस विशेष व्यञ्जन को ही पोंगल कहा जाता है | पोंगल बनाते समय, लोग बर्तन में दूध को तब तक उबलने देते हैं जब तक वह उस मिट्टी के पात्र से बाहर न गिरने लगे। इस प्रक्रिया को भौतिक सम्पन्नता एवं समृद्धि के शुभ संकेत के रूप में देखा जाता है | ताजा पकाया हुआ पोंगल सर्वप्रथम अच्छी फसल के लिए सूर्यदेव का आभार प्रकट करते हुए उन्हें अर्पित किया जाता है | साथ ही मुट्टू पोंगल के दिन मवेशियों को सजाया जाता है और उनकी पूजा की जाती है | और अन्तिम दिन यानी कानुम पोंगल को पारिवारिक मिलन का समय होता है | इस प्रकार यह पर्व प्रकृति का पर्व है… समस्त जीवों के प्रति सम्मान की भावना का पर्व है… पारिवारिक सौहार्द का पर्व है…

लोहड़ी की यदि बात करें तो सूर्यास्त के बाद मनाया जाने वाला पर्व है | “लोहड़ी” शब्द कुछ सांकेतिक सा लगता है | इसमें मुख्य रूप से लकड़ी, गोहा यानी सूखे उपले और रेवड़ी का प्रयोग होता है – हमें लगता है इन्हीं सब वस्तुओं – ल यानी लकड़ी, ओह यानी गोहा और ड़ी यानी रेवड़ी का मिला जुला सांकेतिक नाम लोहड़ी हुआ होगा | साथ ही माघ-पूस की दांत किटकिटाने वाली सर्दी से बचने का भी अच्छा प्रयास है लोहड़ी पर आग जलाना | और इसी कारण से यह एक महत्त्वपूर्ण ऋतुपर्व भी है | पारम्परिक रूप से इस दिन पूजा करने के लिए लकड़ियों के नीचे गोबर से बनी लोहड़ी की प्रतिमा रखी जाती है जिसमें अग्नि प्रज्वलित करके भरपूर फसल और समृद्धि के लिए उसकी पूजा होती है | इस आग की सभी परिक्रमा करते हैं रेवड़ी, मूँगफली, मक्का की खीलें आदि इसमें अनाज डालते हैं तथा प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं | साथ ही इस अवसर से एक कथा भी जुडी हुई मानी जाती है कि शिवपत्नी सती के पिता दक्ष ने शिव का अपमान किया तो सती ने उसी यज्ञ की अग्नि में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी – योगाग्नि में स्वयं को दहन कर दिया था – मान्यता है कि उसी की स्मृति में यह अग्नि प्रज्वलित की जाती है और मकर संक्रान्ति, पोंगल और लोहड़ी उन सभी पर्वों पर बेटियों और बहनों को वस्त्र मिष्टान्न गज़क रेवड़ी मूँगफली (मौसम की वस्तुएँ) भी भेंट की जाती हैं जिन्हें दक्ष प्रजापति के प्रायश्चित के रूप में माना जाता है ताकि हर माता पिता अपनी अन्य सन्तानों के साथ साथ पुत्री का तथा उसके पति का सम्मान करना न भूलें | दुल्ला भट्टी की कहानी से भी लोहड़ी को जोड़ा जाता है | कहा जाता है कि अकबर के समय में दुल्ला भट्टी नाम का कोई अधिकारी पंजाब में रहता था | उस समय वहाँ की लड़कियों को जबरन उठाकर अमीर लोगों को बेच दिया जाता था उनसे गुलामी कराने के लिए | दुल्ला भट्टी ने पूरी योजना बनाकर उन लड़कियों को वहाँ से मुक्त कराया और हिन्दू लड़कों के साथ उनके विवाह की व्यवस्था भी कराई | इसी कहानी से सम्बन्धित एक गीत भी इस अवसर पर गाया जाता है ‘सुंदर मुंदरिये होय, तेरा कौन बेचारा होय, दुल्ला भट्टी वाला होय, दुल्ले धी बिआई होय…”

बहरहाल मान्यताएँ और कथाएँ अनेकों हो सकती हैं… पर्व को मनाने का ढंग भी सबका अलग अलग हो सकता है… अलग रीति रिवाज़ हो सकते हैं… किन्तु सत्य एक ही है कि समस्त उत्तर भारत में सूर्योपासना के इस पर्व को पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है… तो क्यों न हम सब भी अपनी अपनी कामनाओं की, महत्त्वाकांक्षाओं की पतंगे जितनी ऊँची उड़ा सकते हैं उड़ाएँ और भगवान सूर्यदेव की अर्चना करते हुए प्रार्थना करें कि हम सबके जीवन से अज्ञान का, मोह का, लोभ लालच का, ईर्ष्या द्वेष का अन्धकार तिरोहित होकर ज्ञान, निष्काम कर्म भावना, सद्भाव और निश्छल तथा सात्विक प्रेम के प्रकाश से हम सबका जीवन आलोकित हो जाए…