मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

कल समूचा राष्ट्र एक महान और गौरवशाली घटना का साक्षी बनने जा रहा है – भगवान श्री राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा – जिसके बाद वह प्रस्तर प्रतिमा “विग्रह” बन जाएगी | लगभग हर व्यक्ति अपनी अपनी सामर्थ्य और योग्यता इत्यादि के अनुसार इस आनन्द का अनुभव कर रहा है | ऐसे ही कुछ लोग तरह तरह से भगवान श्री राम के चित्र, रंगोली, मूर्तियाँ इत्यादि भी गढ़ कर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं | आज ही एक मूर्ति सोशल मीडिया पर वायरल हुई जिसमें एक लड़की ने घर में उपलब्ध टीन के कनस्तर इत्यादि से बड़ी ख़ूबसूरती से भगवान श्री राम की मूर्ति बनाकर पोस्ट की और उस पर कुछ लोगों ने उस लड़की की आलोचना भी आरम्भ कर दी कि ऐसा करना भगवान का अपमान करना है और इसकी पूजा नहीं की जा सकती | तो सर्वप्रथम तो हम उन आलोचकों से निवेदन करना चाहेंगे कि वह मूर्ति उस लड़की ने केवल अपने आनन्द की अभिव्यक्ति के लिए बनाई थी और उसकी पूजा करना उसका उद्देश्य था ही नहीं | क्योंकि किसी भी मूर्ति को यदि पूजा अर्चना के लिए उपयुक्त बनाना है तो पहले उसमें प्राण प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता होती है – जिसके लिए अनेक प्रकार के यम नियम आदि के मार्ग पर चलने की आवश्यकता होती है – जिस प्रकार इन दिनों हमारे आदरणीय प्रधानमन्त्री जी यम नियम का पालन कर रहे हैं | किसी ने सुझाव दिया इस विषय पर कुछ लिखने का, तो आइए आज इसी विषय पर बात करते हैं | आगे बढ़ने से पूर्व एक बात स्पष्ट कर दें कि इस लेख की लेखिका मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के विधान की ज्ञाता नहीं है, केवल अपने पिताजी और विद्वज्जनों से जो कुछ ज्ञात हुआ है उसे ही यहाँ लिखने का प्रयास कर रही है, अतः यदि कहीं कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए आरम्भ में ही क्षमा याचना करते हैं… |

प्राण प्रतिष्ठा केवल एक रीति अथवा आडम्बर मात्र नहीं है, अपितु यह एक अत्यन्त प्रभावशाली कार्य है क्योंकि प्रतिष्ठा करने वाला व्यक्ति उस मूर्ति में मन्त्र जाप इत्यादि के माध्यम से इतनी अधिक ऊर्जा उत्पन्न कर देता है – यहाँ तक कि अपने प्राणों की ऊर्जा तक उसमें प्रेषित कर देता है कि जब यह अनुष्ठान पूर्ण होता है तो मूर्ति से निसृत ऊर्जा प्रतिष्ठा करने वाले व्यक्ति तथा वहाँ उपस्थित समस्त जन समूह को भी प्रभावित कर देती है | हम जब दुर्गा पूजा अथवा गणपति पूजा के समय अपने घरों में मूर्ति लेकर आते हैं पूजा के लिए तो अनुष्ठान के आरम्भ में यज्ञ में आहुति समर्पित करते हुए मंत्रोच्चार किया जाता है “मनो जूतिर्जुषतामज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं, तनोत्वरितष्टं यज्ञSघ्वँ समिम दधातु विश्वेदेवास इह मादयन्तामोSम्प्रतिष्ठ ||” (यजुर्वेद 2/13 ) अर्थात्, ही सविता देव आपका वेगमान मन इस आज्य अर्थात् घृत का सेवन करे, बृहस्पति देव इस यज्ञ को सभी प्रकार के अनिष्ट से रहित करते हुए इसका विस्तार करें और इसे धारण करें तथा सभी दिव्य शक्तियाँ प्रतिष्ठित होकर आनन्दित और सन्तुष्ट हों | तथा, “अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च | अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन ||” अर्थात्, इस देव प्रतिमा के प्राण यहाँ प्रतिष्ठित हों, इसमें नित्य प्राणों का सँचार होता रहे, अर्चना हेतु इसके दैवत्व कि महानता को कम नहीं समझना चाहिए – यह बहुत महान है | इत्यादि मन्त्र बोलकर सर्व प्रथाम उस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है ताकि सम्बन्धित देवता की मूर्ति में इतनी ऊर्जा उत्पन्न हो जाए कि वह अनुष्ठान निर्विघ्न सम्पन्न हो सके | और आपने देखा भी होगा कि अनुष्ठान की उस अवधि में साधक के तन मन में ऊर्जा का पूर्ण प्रवाह बना रहता है | और ऐसा केवल मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा तक ही सीमित नहीं है – जब एक गुरु अपने शिष्य को कोई मन्त्र इत्यादि देता है तो उस गुरु और शिष्य को भी उसी प्रकार यम नियम आदि का पालन करना आवश्यक होता है – शिष्य को मन्त्र देते समय गुरु अपनी स्वयं की ऊर्जा भी शिष्य में प्रेषित करता है ताकि वह निर्विघ्न रूप से उस मन्त्र को सिद्ध कर सके | भारत में तो लगभग हर हिन्दू परिवार में और मन्दिरों इत्यादि में इस प्रकार के अनुष्ठान अनादि काल से सम्पन्न होते आ रहे हैं और यही कारण है कि कितनी भी समस्याएँ राष्ट्र के समक्ष उपस्थित हो जाएँ – कितनी भी आपदाएँ उपस्थित हो जाएँ – यहाँ का जन मानस इतना सबल और दृढ़ निश्चयी है कि उन सभी से मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है और हमारा देश उसी दृढ़ता के साथ पुनः उठ खड़ा होता है |

प्राण-प्रतिष्ठा के पीछे वैदिक विज्ञान समाहित है | यह समस्त संसार – समस्त प्राणी – पँच महाभूतों से निर्मित हैं | ये पँच महाभूत समस्त सृष्टि के कण कण में विद्यमान हैं | जल, वायु, प्रकाश अर्थात् अग्नि, ध्वनि अर्थात् आकाश तथा पृथिवी अर्थात् मृत्तिका सर्वत्र व्याप्त हैं | ब्रह्माण्ड में व्याप्त इन समस्त ईश्वरीय तत्वों को जब एक स्थान पर एकत्र करके पूर्ण विधि विधान से एक मूर्ति में समाहित कर दिया जाता है तो निश्चित रूप से समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा उस ऊरती में सन्निहित हो जाती है और वह मूर्ति एक प्रकार से जीवन्त हो जाती है | कई बार पौरातत्विक धरोहर के रूप में आरक्षित किसी मन्दिर में जाने पर एक विचित्र प्रकार का आध्यात्मिक अनुभव होता होता है, जबकि वहाँ पूजा अर्चना का भी नहीं हो रही होती है, और जब हम वहाँ से बाहर निकलते हैं तो कुछ समय तक कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं होते हैं | इसका कारण यही है कि सदियों पूर्व ऋषि मुनियों ने वहाँ की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की थी जिनका प्रभाव वर्तमान समय तक भी विद्यमान है – क्योंकि पँच महाभूतों का जो संगम वहाँ ऋषि मुनियों ने कराया उसका प्रभाव तो कभी नष्ट हो नहीं सकता |

जब हम किसी स्थान पर प्राण प्रतिष्ठा करते हैं तो वहाँ की ऊर्जा इतनी तीव्र हो जाती है कि उससे एक प्रकार का अदृश्य कम्पन सा उत्पन्न होता है और जब हम उस स्थान पर जाते हैं तो उसी ऊर्जा का प्रवाह हमारे शरीर के निम्नतर चक्रों से उच्चतर चक्रों की ओर स्वाभाविक रूप से होना आरम्भ हो जाता है | समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य भी यही है कि साधक ऊर्जा को निम्नतर चक्रों से उच्चतर चक्रों की ओर ले जाए | यही कारण है कि प्राण प्रतिष्ठा एक असाधारण तथा अद्भुत कार्य है और हर कोई इस कार्य को करने और कराने में सक्षम नहीं होता | अन्यथा तो मूर्ति क्या है – एक चट्टान का टुकड़ा भर ही न | और एक बात, प्राण प्रतिष्ठा के द्वारा किसी प्रस्तर प्रतिमा को जीवित मनुष्य नहीं बनाया जाता अपितु उसके जागृत होने का – उसके सिद्ध होने का अनुभव किया जाता है | इस प्रक्रिया में मूर्ति के कई अधिवास कराए जाते हैं – कई अभिषेकों के द्वारा उसके दोषों का शमन किया जाता है, वेदिक मन्त्रों तथा शंख आदि की ध्वनियों का नाद किया जाता है – और जब यह नाद शून्य अर्थात् आकाश में विद्यमान नाद से जाकर मिल जाता है तो वह मूर्ति और वह स्थान समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा से सम्पन्न हो जाता है – और यही होता है मूर्ति का जागृत होना | यह अनुष्ठान इतना कठिन होता है कि इसके लिए अनेक प्रकार के यम नियम आदि का भी पालन करने की आवश्यकता होती है |

शास्त्रों के अनुसार अष्टांग योग के आठ भाग है, जिसमें आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, भजन, समाधि, यम और नियम होते हैं | यम नियम में अन्न और बिस्तर पर सोने का त्याग और प्रतिदिन स्नान करना आवश्यक तथा मन्त्र आदि का जाप करना होता है | विद्वज्जनों और शास्त्रों के अनुसार मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के मुख्य यजमान को मूर्ति स्थापना से पूर्व इन समस्त यम नियमों का पालन करके स्वयं को मूर्ति से निसृत ऊर्जा के योग्य बनाने की आवश्यकता होती है | यही कारण है मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा के समय उसके नेत्रों पर वस्त्र बाँध दिया जाता है और एक शीशे को सामने रखकर ही वस्त्र हटाया जाता है | अन्यथा इतने अधिक मन्त्र जाप, अधिवास और तान्त्रिक अनुष्ठान आदि के कारण जो ऊर्जा उत्पन्न होती है उसका प्रवाह इतना तीव्र होता है कि साधारण मनुष्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है | ऊर्जा के वेग से कई बार वह शीशा भी टूट कर बिखर जाता है – जिसे एक शुभ संकेत माना जाता है |

और भगवान श्री राम की मूर्ति का तो निर्माण ही एक बहुत प्रभावशाली शिला “शालिग्राम” से हुआ है – जो वास्तव में एक प्रकार का जीवाश्म पत्थर है, जिसके विषय में प्रायः सभी को ज्ञात होगा कि जीवाश्म पौधों और जानवरों के संरक्षित अवशेष होते हैं जिनके शरीर प्राचीन समुद्रों, झीलों और नदियों के नीचे रेत और मिट्टी जैसी तलछट में दबे हुए पाए जाते हैं और प्रायः लाखों करोड़ों वर्ष पुराने होते हैं | भगवान श्री राम की प्रतिमा जिस शालिग्राम से गढ़ी गई है वह भी लगभग 60 करोड़ वर्ष पुराना है | शालिग्राम का प्रयोग परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप में भगवान का आह्वान करने के लिए किया जाता है | प्रायः घरों में गोल अथवा अंडाकार रूप में शालिग्राम का अभिषेक किया जाता है | पद्मपुराण के अनुसार – गण्डकी (नेपाल) अर्थात नारायणी नदी के एक प्रदेश में शालिग्राम स्थल नाम का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँ से निकलनेवाले पत्थर को शालिग्राम कहते हैं | ऐसी मान्यता है कि इसके स्पर्श मात्र से जन्म जन्मान्तर पाप नष्ट हो जाते हैं | ऐसे प्रभावशाली पत्थर से जिस मूर्ति का निर्माण हुआ हो उसमें जब प्राण प्रतिष्ठा के विधान से ब्रह्मांडीय ऊर्जा समाहित होगी तो सोचने की बात है वह कितनी अधिक तीव्र होगी |

अस्तु, इस विग्रह से निसृत ऊर्जा समस्त जन मानस के मनों को भी चैतन्यता प्रदान करे, इसी कामना के साथ – जय श्री राम…