संसार से भागे फिरते हो

संसार से भागे फिरते हो

संसार से भागे फिरते हो

भगवान को तुम क्या पाओगे

चौंकिए मत इन पंक्तियों को पढ़कर, क्योंकि आज हम एक ऐसे उपन्यास के विषय में बात कर रहे हैं जिसे लगभग 13-14 वर्ष की अवस्था में जब प्रथम बार पढ़ा था तब उसके गूढ़ दार्शनिक अर्थों को समझने के लिए उस समय माँ पापा का सहारा लिया था | हालाँकि उस पर आधारित फिल्म उससे तीन बरस पूर्व यानी दस ग्यारह बरस की आयु में प्रथम बार देख चुके थे और सोचने को बाल मन विवश हुआ था कि इसके “हिट” होने का कारण क्या रहा होगा – क्या इसका गीत संगीत, इसके मोहक शास्त्रीय नृत्य या इसके कलाकार ? क्योंकि उसके गूढ़ सम्वाद तो उस समय हमारे सर के ऊपर से निकल रहे थे | या हिट हुई भी होगी अथवा नहीं ? क्योंकि उस समय तो वह हमारे लिए मात्र एक रोमांटिक फिल्म थी जिसे प्रेम त्रिकोण भी कहा जा सकता था | तीन वर्षों के बाद उपन्यास पढ़कर इतना अनुमान अवश्य हो गया था कि एक विशेष वर्ग – जिसे पढ़ा लिखा अथवा Intellectual वर्ग कहा जा सकता है – में यह फिल्म निश्चित रूप से बहुत पसन्द की गई होगी |

चलिए रहस्य से पर्दा हटा देते हैं | इस फ़िल्म का नाम था चित्रलेखा – जिसे अपने सशक्त और भावपूर्ण अभिनय से सजाया था उस समय के प्रसिद्ध कलाकार दादा मुनि अशोक कुमार जी, मीना कुमारी जी, प्रदीप कुमार जी और महमूद ने, निर्देशन था उस समय के जाने माने निर्देशक श्री केदार शर्मा जी का, गीत लिखे थे रोशन और साहिर लुधियानवी ने, संगीत रोशन का था और सुरों का जादू बिखेरा था मंगेशकर बहनों – आशा जी, लता जी, उषा जी के साथ सबके प्रिय मुहम्मद रफ़ी साहब और मन्ना दा ने | पिताजी से ही पता चला था कि आचार्य भगवती चरण वर्मा जी की अमर कृति “चित्रलेखा” उपन्यास पर आधारित इसी फिल्म को श्री किदार शर्मा जी ही महताब, ए एस ज्ञानी, नंद्रेकर, भारत भूषण आदि को लेकर 1941 में भी बना चुके थे – जिसे माँ पापा ने देखा भी था |

अभी पिछले दिनों पतिदेव डा दिनेश शर्मा माता जी के लिए कुछ पुस्तकें मँगा रहे थे तो हमने भी चित्रलेखा की फरमाइश कर दी | पूरा समय लगाकर इसे पुनः पढ़ा तो वास्तव में समझ आया कि आचार्य भगवती चरण वर्मा जी की सोच को कितना जीवन्त बना दिया था इस फ़िल्म में |

यहाँ हम फ़िल्म की बात नहीं कर रहे हैं, यहाँ हम बात कर रहे हैं उपन्यास “चित्रलेखा” की | इस कालजयी उपन्यास में वर्माजी ने हमारे समाज में स्थापित नैतिक मूल्यों को चुनौती देकर उनका पुनर्मूल्यांकन करने का प्रयास किया है | इसकी भाषा शैली इतनी सशक्त है कि इस उपन्यास ने समय की सारी सीमाओं को लाँघ दिया है | चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है | पाप क्या है ? उसका निवास कहाँ है ? इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए महाप्रभु रत्नांबर अपने दो शिष्यों श्वेतांक और विशालदेव को क्रमश: सामन्त बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि की शरण में भेजते हैं – इस आदेश के साथ कि “इस अनुभव में तुम स्वयं न डूब जाना” | उनके निष्कर्षों के आधार पर पर महाप्रभु रत्नांबर टिप्पणी भी करते हैं कि ‘‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है | हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है |” और यदि व्यावहारिक तथा सामाजिक दृष्टि से देखें तो जीवन का सत्य भी यही है |

इसके सभी पात्रों का अपना अपना प्रभावशाली सशक्त व्यक्तित्व है | कहानी चित्रलेखा नाम की विधवा लेकिन अत्यन्त सौन्दर्यमयी नर्तकी चित्रलेखा के चारों ओर घूमती है | चित्रलेखा के शारीरिक सौन्दर्य की अपेक्षा उसका मानसिक सौन्दर्य कहीं अधिक आकर्षक है | विलास और वैभव के बीच में रमण करनेवाली एक नर्तकी होते हुए भी वह उच्च कोटि की आध्यात्मिक स्त्री है | उसका मन सबल और दृष्टि पैनी है | मौर्य साम्राज्य के सामन्त बीजगुप्त के साथ उसके प्रेम सम्बन्ध हैं | बीजगुप्त पूर्ण रूप से भोग विलास में लिप्त हैं, मन में यौवन की उमंगें हिलोरें ले रही हैं और आँखों में मादकता की लाली समाई हुई है | उनकी उच्च अट्टालिकाओं में भोग विलास के सभी साधन उपलब्ध हैं तथा चित्रलेखा के साथ विवाह न होते हुए भी बीजगुप्त के जीवन में चित्रलेखा का स्थान पत्नी का है | तो उधर मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक, अधिकांश समय समाधि में लीन रहने वाले, संसार का त्याग कर देने का दावा करने वाले, समस्त वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेने का दम्भ भरने वाले तथा संसार के साधन से स्वर्ग के लक्ष्य को प्राप्त करने के महत्वाकांक्षा रखने वाले कुमारगिरि भी उसके सौन्दर्य के मोहजाल में फँस जाते हैं | जबकि कुमारगिरि का क्षेत्र संयम और नियम है और उसका मानना है कि संयम और नियम से पाप दूर रहता है | अब अन्त में बीजगुप्त का क्या होता है, क्या कुमारगिरी साधना का मार्ग छोड़कर वासना के मार्ग पर चल देते हैं, क्या श्वेतांक और विशालदेव को पाप और पुण्य के रहस्य का पता चल जाता है – इन प्रश्नों के उत्तर के लिए तो इस कथानक के समुद्र में ही छलाँग लगानी पड़ेगी |

बचपन में जब प्रथम बार चित्रलेखा से परिचय हुआ था उस समय चित्रलेखा और बीजगुप्त शीर्ष पर दिखाई दिए थे, जबकि कुमारगिरि सबसे बड़े पापी,  और उनके बाद श्वेतांक | श्वेतांक इसलिए कि जिस बीजगुप्त ने उसे अपना भाई सरीखा माना उसी की न केवल प्रेमिका से प्रेम का प्रयास किया, बल्कि जिसके साथ विवाह करके बीजगुप्त सम्भवतः चित्रलेखा के विरह से मुक्त हो सकते थे उसे भी छीन लिया और बीजगुप्त ने श्वेतांक के प्रति सहानुभूति रखते हुए अपना समस्त ऐश्वर्य भी उसे दे दिया | मूवी में तो बीजगुप्त ने कहा भी है कि एक को संन्यासी ले गया और दूसरी को ब्रह्मचारी |

अब जब पुनः चित्रलेखा से मित्रता की तो यह धारणा -कि पाप पुण्य की सबकी अपनी अपनी परिभाषा होती है – और भी गहन हो गई | यदि एक चोर चोरी करता है तो वह उसका कर्तव्य कर्म है और जैसा प्राचीन ग्रन्थों में पढ़ा भी है – चोरी करने के लिए भी वह शकुन अपशकुन का विचार करता है और ईश्वर से प्रार्थना करता है – क्योंकि उसकी आजीविका का साधन होने के कारण उसका वही धर्म है | उसे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि समाज उसे पापी अथवा अपराधी कहता है | उसके लिए तो “स्वधर्मे निधनं श्रेय:” वाली स्थिति होती है – ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हत्या जैसा घृणित कर्म भी सराहनीय बन जाता है जब किसी घोर आतंकी की हत्या की जाती है | और इसे ही रतनांबर के कथन के माध्यम से लेखक ने सिद्ध करने का सफल प्रयास भी किया है । जब अलग अलग परिस्थितियों में रहे अपने दोनों शिष्यों के अनुभव जानकर रत्नांबर बोलते हैं कि “संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य की विनम्रता का दूसरा नाम है | प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मन:प्रवृत्ति लेकर उत्पन्न होता है | प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर अभिनय के लिए आता है | मनुष्य जो कुछ करता है वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है | वह अपना स्वामी नहीं – परिस्थितियों का दास है | कर्ता नहीं है, वह केवल साधन है | फिर पुण्य और पाप कैसा | इसीलिए पाप की कोई परिभाषा नहीं हो सकती |”

उपन्यास में प्रेम और वासना की अद्वितीय उपमा लेखक ने प्रस्तुत की है | एक दूसरे के प्रति सहानुभूति और एक दूसरे में मिलकर एक हो जाना ही वास्तविक प्रेम है और यही जीवन का लक्ष्य भी होना चाहिए | प्रेम त्याग है, तन्मयता है, विस्मृति है | केवल एक क्षणिक पिपासा और तृप्ति प्रेम का विषय नहीं हो सकते | इसी तरह वासना के सन्दर्भ में कुमारगिरि के चरित्र के माध्यम से लेखक का मत है कि सत् चित् और आनन्द ये तीनों ईश्वरीय गुण हैं और वासना से रहित विशुद्ध मन ही इन तीनों गुणों को प्राप्त कर सकता है | जब तक वासना रहती है तब तक ममत्व प्रधान रहता है और ममत्व के भ्रान्ति कारक आवरण के रहते हुए उनमें से किसी एक का भी प्राप्त करना असम्भव है | उपन्यास में कर्म और भोग दोनों समानान्तर चलते हैं | लेखक ने एक ओर जहाँ कर्म पर बल दिया है वहीं भोग के प्रति भी आश्वस्त दीख पड़ते हैं | संस्कारों में जकड़ी हुई मानवीय भावनाओं का, परिस्थितियों के साथ उठने गिरने वाले मानव के स्वभाव का बेहद मार्मिक चित्रण लेखक ने इस उपन्यास में किया है |

वास्तव में यह उपन्यास दार्शनिक रहस्यों को समेटे पूर्णरूपेण आध्यात्मिक रचना है |

—–कात्यायनी