होलाष्टक 2024 और होलिका दहन का मुहूर्त

होलाष्टक 2024 और होलिका दहन का मुहूर्त

होलाष्टक 2024 और होलिका दहन का मुहूर्त

शनिवार 16 मार्च को रात्रि 9:39 के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और आयुष्मान योग में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि का आरम्भ हो रहा है जो 17 मार्च को रात्रि 9:53 तक रहेगी | अतः 17 मार्च से होलाष्टक आरम्भ हो जाएँगे जो रविवार 24 मार्च को होलिका दहन के साथ ही समाप्त हो जाएँगे | पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 24 मार्च को प्रातः 9:55 पर विष्टि करण और गण्ड योग में होगा और 25 मार्च दिन में 12:29 पर समाप्त हो जाएगी और फिर रंगों की बरसात करती होली – धुलहाँडी – आ जाएगी | 24 मार्च को पूर्णिमा के उदय के साथ ही विष्टि करण यानी भद्रा का भी उदय हो रहा है जो रात्रि 11:13 तक रहेगी |

देखा जाए तो प्रत्येक वर्ष या दो वर्ष के अन्तराल में भद्रा होलिका दहन की अवधि में आती ही है | प्रश्न यह है कि भद्रा को कितना महत्त्व दिया जाना चाहिए | विद्वानों का मानना है कि भद्रा काल में यद्यपि होलिका दहन निषिद्ध माना जाता है, किन्तु फिर भी यदि अर्द्ध रात्रि के बाद भी भद्रा रहे और दूसरे दिन दोपहर तक ही प्रतिपदा तिथि आ जाए तो पूर्णिमा तिथि रहते हुए भद्रा पुच्छ काल में ही होलिका दहन कर दिया जाता है – भद्रा मुख में नहीं किया जाता – निशीथोत्तरं भद्रासमाप्तौ भद्रामुखं त्यक्त्वा भद्रायामेव | भद्रा को भगवान सूर्य की पुत्री तथा शनि की बहन माना गया तथा अत्यन्त उग्र स्वभाव माना गया है | साथ ही यह भी विचार करना आवश्यक है कि चन्द्रमा उस समय किस राशि में विचरण कर रहा है | यदि चन्द्रमा का संचरण कन्या, तुला अथवा धनु राशि में हो रहा हो तो वह भद्रा पाताल में वास करती है तथा धन धान्य और प्रगति प्रदान करती है, अर्थात् मंगलकारी होती है | 24 मार्च को सूर्यास्त 6:34 पर है अतः उससे 45 मिनट पूर्व से 45 मिनट बाद का समय प्रदोष काल है – अर्थात् सायं 5:49 से 6:45 तक का समय प्रदोष काल है और भद्रा का पुच्छ काल है | साथ ही दोपहर 2:21 से चन्द्रमा का संचार भी कन्या राशि में हो जाएगा | इसके अतिरिक्त 25 मार्च को दिन में 12:29 पर प्रतिपदा तिथि आएगी | अतः प्रदोष काल में भद्रा पुच्छ के साथ होलिका दहन किया जाएगा | और यदि भद्रा मुक्त काल में होलिका दहन करना है तो भद्रा की समाप्ति पर रात्रि ग्यारह बजकर तेरह मिनट से लेकर वृश्चिक लग्न की समाप्ति – अर्ध रात्रि में बारह बजकर 39 मिनट तक – रहेगा |

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक की आठ दिनों की अवधि होलाष्टक के नाम से जानी जाती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होलाष्टक समाप्त हो जाते हैं | होलाष्टक आरम्भ होने के साथ ही होली के पर्व का भी आरम्भ हो जाता है | इसे “होलाष्टक दोष” की संज्ञा भी दी जाती है और कुछ स्थानों पर इस अवधि में बहुत से शुभ कार्यों की मनाही होती है | विद्वान् पण्डितों की मान्यता है कि इस अवधि में विवाह संस्कार, भवन निर्माण आदि नहीं करना चाहिए न ही कोई नया कार्य इस अवधि में आरम्भ करना चाहिए | ऐसा करने से अनेक प्रकार के कष्ट, क्लेश, विवाह सम्बन्ध विच्छेद, रोग आदि अनेक प्रकार की अशुभ बातों की सम्भावना बढ़ जाती है | किन्तु जन्म और मृत्यु के बाद किये जाने वाले संस्कारों के करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता |

फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को होलिका दहन के स्थान को गंगाजल से पवित्र करके होलिका दहन के लिए दो दण्ड स्थापित किये जाते हैं, जिन्हें होलिका और प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है | फिर उनके मध्य में उपले (गोबर के कंडे), घास फूस और लकड़ी आदि का ढेर लगा दिया जाता है | इसके बाद होलिका दहन तक हर दिन इस ढेर में वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियाँ और घास फूस आदि डालते रहते हैं और अन्त में होलिका दहन के दिन इसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है | ऐसा करने का कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि होलिका दहन के अवसर तक वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियों और घास फूस का इतना बड़ा ढेर इकट्ठा हो जाए कि होलिका दहन के लिए वृक्षों की कटाई न करनी पड़े | इस प्रकार देखा जाए तो होलाष्टक होली के रंग पर्व के आगमन के सूचक भी होते हैं |

पौराणिक मान्यता ऐसी भी है कि तारकासुर नामक असुर ने जब देवताओं पर अत्याचार बढ़ा दिए तब उसके वध का एक ही उपाय ब्रह्मा जी ने बताया, और वो ये था कि भगवान शिव और पार्वती की सन्तान ही उसका वध करने में समर्थ हो सकती है | तब नारद जी के कहने पर पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिए घोर तप का आरम्भ कर दिया | किन्तु शिव तो दक्ष के यज्ञ में सती के आत्मदाह के पश्चात ध्यान में लीन हो गए थे | पार्वती से उनकी भेंट कराने के लिए उनका उस ध्यान की अवस्था से बाहर आना आवश्यक था | समस्या यह थी कि जो कोई भी उनकी साधना भंग करने का प्रयास करता वही उनके कोप का भागी बनता | तब कामदेव ने अपना बाण छोड़कर भोले शंकर का ध्यान भंग करने का दुस्साहस किया | कामदेव के इस अपराध का परिणाम वही हुआ जिसकी कल्पना सभी देवों ने की थी – भगवान शंकर ने अपने क्रोध की ज्वाला में कामदेव को भस्म कर दिया | अन्त में कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवन देने का आश्वासन दिया | माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को ही भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था और बाद में रति ने आठ दिनों तक उनकी प्रार्थना की थी | इसी के प्रतीक स्वरूप होलाष्टक के दिनों में कोई शुभ कार्य करने की मनाही होती है |

वैसे व्यावहारिक रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में होलाष्टक का विचार अधिक किया जाता है, अन्य अंचलों में होलाष्टक का कोई दोष प्रायः नहीं माना जाता |

अतः, मान्यताएँ चाहें जो भी हों, इतना निश्चित है कि होलाष्टक आरम्भ होते ही मौसम में भी परिवर्तन आना आरम्भ हो जाता है | सर्दियाँ जाने लगती हैं और मौसम में हल्की सी गर्माहट आ जाती है जो बड़ी सुखकर प्रतीत होती है | प्रकृति के कण कण में वसन्त की छटा तो व्याप्त होती ही है | कोई विरक्त ही होगा जो ऐसे सुहाने मदमस्त कर देने वाले मौसम में चारों ओर से पड़ रही रंगों की बौछारों को भूलकर ब्याह शादी, भवन निर्माण या ऐसी ही अन्य सांसारिक बातों के विषय में विचार करेगा | जनसाधारण का रसिक मन तो ऐसे में सारे काम काज भुलाकर वसन्त और फाग की मस्ती में झूम ही उठेगा…

इन सभी मान्यताओं का कोई वैदिक, ज्योतिषीय अथवा आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है, केवल धार्मिक आस्थाएँ और लौकिक मान्यताएँ ही इस सबका आधार हैं – और इनका पालन करना सामाजिक जीवन के लिए – सामाजिक सम्बन्धों के लिए – अनुकूल होता ही है | तो क्यों न होलाष्टक की इन आठ दिनों की अवधि में स्वयं को सभी प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज़ों के बन्धन से मुक्त करके इस अवधि को वसन्त और फाग के हर्ष और उल्लास के साथ व्यतीत किया जाए…

रंगों के पर्व की अभी से रंग और उल्लास से भरी हार्दिक शुभकामनाएँ…